हाल ही में रिलीज़ हुई फिल्म जॉली एलएलबी-2 एक मुस्लिम युवा के फेक एनकाउंटर की कहानी कहती है. तकरीबन सवा दो घंटे की इस फिल्म के आख़िर में उस युवा को न्याय मिल जाता है. लेकिन असल ज़िंदगी की कहानियों को क्या ऐसा अंत मिल पाता है?
ये जरूरी नहीं है कि अगर कोई फिल्म किसी डिस्क्लेमर के साथ आए और ये कहे कि उसकी कहानी का किसी व्यक्ति, घटना से संबंध नहीं रखती है और इसका उद्देश्य सिर्फ और सिर्फ मनोरंजन करना है तो वाकई में ऐसा हो.
शायद ऐसा भी हो सकता है कि असल में उस कहानी का संबंध किसी मूल घटना से हो और उससे जुड़ा पात्र असल ज़िंदगी में आपके इर्द-गिर्द जिंदा भी हो बस आपको नज़र न आता हो.
कमज़ोर नज़र की आंखों के लिए ही बना है ये चश्मा जिसे हम सिनेमा कहते हैं. जॉली एलएलबी-2 यूं तो मनोरंजन से भरपूर फिल्म है पर साथ ही काफी गहरे सवाल उठाती है, फिल्म की विषयवस्तु संवेदनशील है.
शायद ये महज़ संयोग ही है. फिल्म की रिलीज़ के आसपास ही साल 2005 में 29 अक्टूबर को दिल्ली में हुए तीन बम धमाकों में पकड़े गए दो कथित आतंकियों को दिल्ली की निचली अदालत के निर्णय के बाद दोषमुक्त करार देते हुए रिहा कर दिया गया. ये दोनों युवा पिछले 12 साल से जेल में थे.
यह कोई नया मामला नहीं है जब आतंकवादी होने के आरोप में गिरफ्तार किए गए लोगों को दोषमुक्त करार दिया गया हो. साथ ही ऐसा पहली बार नहीं हुआ कि अभियोजन पक्ष साक्ष्य को गढ़ने, साक्ष्यों से छेड़छाड़ करने, प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपायों की अवहेलना करने में संलिप्त न हुआ हो.
इसलिए ज़्यादातर मामलों में न्यायालय द्वारा विचाराधीन कैदियों को छोड़ा गया है. जॉली एलएलबी-2 भी इन्हीं खामियों को बड़े मज़बूत ढंग से हमारे समक्ष प्रस्तुत करती है.
वक़्त मिले तो दिल्ली के इस निचली अदालत के 140 पन्नों का निर्णय पढ़ा जाना चाहिए बल्कि ऐसी ही तमाम फिल्मों की कहानियां पढ़ें जो आपको जामिया टीचर्स एसोसिएशन की ओर से प्रकाशित ऐसी ही रिपोर्ट में मिल जाएगी जिसमें तमाम ऐसे लोगों के कथित आतंकी बनने की कहानियां और फिर अदालत से दोषमुक्त होकर छूटने का क़िस्सा मिलेगा.
सब कहानियों में पुलिस की मोडस ऑपेरेंडी यानी कि काम का तरीका एक जैसा ही है इसलिए कहानी नीरस है. जॉली एलएलबी-2 जैसा सुखद अंत इन सच्ची कहानियों में नहीं है.
गौर करने वाली बात ये भी है कि असल ज़िंदगी की ये कहानियां सिर्फ दो या तीन घंटों में ख़त्म नहीं होती हैं. इन्हें ख़त्म होने में 11, 13, 15 और कई बार 20 साल तक लग जाते हैं. इन सालों के दौरान इन सच्ची कहानियों का प्रमुख पात्र हर तरफ से हार जाता है.
इन सालों के दौरान उसका बॉक्स आॅफिस कलेक्शन यानी कि उन्होंने जो झेला होता है उसका कोई मुआवज़ा उन्हें नहीं मिल पाता, भले ही वो इसके लिए शीर्ष अदालत ही क्यों न चले जाएं.
मुआवज़े को लेकर हमारे पास 2002 में हुए गुजरात के अक्षरधाम मंदिर विस्फोट कांड में छह निर्दोष व्यक्तियों की अर्ज़ी गलत मिसाल स्थापित होने के डर से सर्वोच्च न्यायालय द्वारा ठुकरा देना वाला उदाहरण है.
फिल्म जॉली एलएलबी-2 में सुभाष कपूर को अच्छे नंबर देना बनता है. वह इसके कहानीकार और निर्देशक हैं. उन्होंने अपने पॉलीटिकल जर्नलिज़्म वाले अनुभव को बखूबी परोसा है जो कहानी के ‘आधार’ के चयन से परिलक्षित हो जाता है.
इस व्यंग्य फिल्म को देखने के बाद एक गहरी ख़ामोशी नितांत जरूरी है ताकि हम सोच सकें फिल्म के कथानक को इस निर्णय के समानांतर रखकर, सोच सकें कि असल जिंदगी की इन कहानियों को सुखद अंत लिखने में इतना वक़्त क्यों लग जाता है.
(लेखक सुप्रीम कोर्ट में अधिवक्ता हैं और ये उनके निजी विचार हैं)