जो दुख में है, पीड़ित है, उसी की खिल्ली उड़ाने का नया रिवाज इस देश में चल पड़ा है. इसे क्या मात्र क्षुद्रता कहा जाए? या यह बड़ा चारित्रिक पतन है? हर कुछ रोज़ पर इस क्षुद्रता का एक नया नमूना देखने को मिलता है. अभी यूक्रेन पर रूसी हमले के समय यह फिर उभर आई है.
कर्नाटक निवासी नवीन के पार्थिव शरीर को यूक्रेन से वापस लाने के सवाल पर कर्नाटक के एक मंत्री ने कहा कि एक मृत शरीर जितनी जगह छेंकता है, उतने में 8 लोग वापस आ जाएंगे. यह बयान नवीन के परिवार के ज़ख्म पर नमक रगड़ने की तरह ही है. उसे ज़िंदा तो यूक्रेन से सरकार न ला सकी, अब मरने के बाद उसके शरीर को घर लाने को ही बेकार बता रही है.
यह क्षुद्रता है या क्रूरता? इतनी क्षुद्रता, इतनी नीचता, इतना ओछापन, इतना छिछोरापन, इतनी हिंसा! इतनी बेहिसी! अपने ही लोगों के लिए इतनी घृणा और उनका अपमान करने की इतनी तत्परता! यह सब कहां छिपा था?
पिछले 8 साल से यह कीच बहकर बाहर फैल रहा है. भारतीय समाज के सिर्फ पैर नहीं, उसकी आत्मा तक इस गलाजत में सन गई है. लेकिन क्या इसकी शुरुआत और पहले नहीं हो गई थी?
हर कुछ रोज़ पर इस क्षुद्रता का एक नया नमूना देखने को मिलता है. अभी यूक्रेन पर रूसी हमले के समय यह फिर उभर आई है. यूक्रेन में हमले के बाद फंस गए हजारों भारतीय छात्रों की उन्हें बाहर निकालने की गुहार पर सत्ताधारी दल के नेता और समर्थक जिस तरह उन्हीं छात्रों का मजाक उड़ा रहे हैं, उन्हें ही उनकी मुश्किल के लिए जिम्मेदार ठहरा रहे हैं, उससे मालूम होता है कि उन्हें पूरा यकीन हो चला है कि भारत की जनता में आत्मबोध और आत्मसम्मान लुप्त हो चुका है.
वरना जब पहली बार जब यह बात सार्वजनिक हुई कि यूक्रेन में फंस गए छात्रों को वक्त रहते निकालने के लिए भारत सरकार ने पर्याप्त उपाय नहीं किए तो अफ़सोस जताने की जगह प्रधानमंत्री ने अपने पहले बयान में इस पर चिंता जाहिर करके विषयांतर किया कि आखिर हमारे बच्चे बाहर जाते ही क्यों हैं!
असली मसले पर बात न करके जो अभी की फौरी ज़रूरत है, जनता को यह न बताकर कि सरकार क्या कर रही है इन छात्रों को सुरक्षित निकालने के लिए, नरेंद्र मोदी ने विषय ही बदल दिया. क्यों नहीं निजी क्षेत्र मेडिकल शिक्षा में निवेश करता, क्यों नहीं राज्य सरकारें इसके लिए सस्ती दर पर ज़मीन मुहैया करातीं, आदि आदि प्रश्न वे उस वक्त उठाने लगे जब उनसे पूछा जा रहा था कि भारतीय नागरिकों को बाहिफ़ाजत निकालने में देर क्यों हो रही है!
इसके बाद इन छात्रों को हीन साबित करने की मुहिम चल पड़ी. वे अयोग्य हैं, भारत में ‘नीट’ में उत्तीर्ण नहीं हो पाते, इसलिए बाहर जाते हैं. इस तरह के बयान इस सरकार के मंत्री ढिठाई से दे रहे हैं. मानो, अगर ऐसा है तो उन्हें मरने के लिए छोड़ देना चाहिए!
और फिर सुरक्षा की गुहार लगाते बच्चों पर को लानत भेजी जाने लगी कि क्या उन्हें लाने के लिए पालकी भेजी जाए! कर्नाटक निवासी नवीन की रूसी हमले में मौत के बाद की प्रतिक्रियाएं स्तब्ध कर देती हैं. सरकार समर्थक लोग एक के बाद एक ही जुबान में पूछने लगते हैं कि वह अब तक वहां था ही क्यों!
जो दुख में है, पीड़ित है, उसी की खिल्ली उड़ाने का नया रिवाज इस देश में चल पड़ा है. इसे क्या मात्र क्षुद्रता कहा जाए? या यह बड़ा चारित्रिक पतन है?
आपको याद हो कि नोटबंदी के बाद प्रधानमंत्री ने दूर देश जापान में उन लोगों की खिल्ली उड़ाई थी जिन्होंने शादी का इंतजाम कर लिया था लेकिन अचानक पाया कि उनके हाथ से पैसे खींच लिए गए हैं. हमारे देश में दुश्मन के घर भी विवाह में विघ्न पैदा करना पाप माना जाता है. लेकिन प्रधानमंत्री ने अंगूठा दिखाते हुए उन तमाम लोगों के दुख का मज़ाक बनाया और उन्हें सुननेवालों ने ठहाका लगाया और ताली बजाई!
उसी तरह जब कोरोना वायरस संक्रमण के दौरान तालाबंदी के चलते बेकार और बेघरबार कर दिए गए मजदूरों ने पैदल अपने गांव वापस जाना शुरू किया तो शासक दल के सांसद ने उनकी खिल्ली उड़ाते हुए कहा कि अभी इन्हें अपने रिश्तेदारों से मिलने की सूझी है!
किसानी से जुड़े कानूनों का विरोध करने जब किसान अपने घर-गांव छोड़कर दिल्ली की सरहद पर धरना देकर बैठे तो उनका मज़ाक उड़ाते हुए कहा गया कि ये संघर्ष कहां कर रहे हैं, ये तो पिज्जा खा रहे हैं.
यह सब कुछ परले दरजे की नीचता है लेकिन इसमें अब हर कुछ दिन पर प्रधानमंत्री और उनके दल के लोग नया रिकॉर्ड बनाते हैं. ऐसा वे क्यों कर पा रहे हैं? क्योंकि जनता ताली बजा रही है.
याद है, जब प्रधानमंत्री ने, जब वे प्रधानमंत्री नहीं थे, तब ’55 करोड़ रुपये की गर्लफ्रेंड’ कहकर शशि थरूर पर फ़ब्ती कसी तो जनता ने ताली बजाई. फिर जब सोनिया गांधी को ‘जर्सी गाय’ कहा तो और ताली बजी.
उसके भी पहले 2002 में गुजरात में हिंसा के शिकार मुसलमानों के राहत शिविर तोड़ देने पर तत्कालीन मुख्यमंत्री ने कहा था कि वे आतंकवादियों को पैदा करने की फैक्ट्री नहीं चलने दे सकते. इस पर भी ताली बजी थी. ‘हम पांच, हमारे पच्चीस’ नहीं चलने दे सकते, उनके इस भाषण पर ताली बजी.
हमने हर बार ताली बजाई. एक राजनेता ने जब इसे नीचता कहा तो हम उस पर टूट पड़े. नीचता को नीचता कहने की हिम्मत कैसे हुई? यह तो असभ्यता है!
फिर हर संवैधानिक पद से इस छिछोरेपन का प्रचार किया गया. विधायकों और सांसदों की तो बात ही रहने दें, राज्यपाल और मुख्यमंत्री, हर किसी ने अपनी ज़बान को बेलगाम छोड़ दिया.
एक ने कहा कि वे राहुल गांधी से नहीं पूछते कि उनके पिता कौन हैं. एक राज्यपाल ने सावित्रीबाई फुले की प्रतिमा के अनावरण के समय ठी-ठी करते हुए उनके बाल विवाह का मज़ा लिया. कोई वक्त था जब पद व अवसर की गरिमा हुआ करती थी. अब कुछ नहीं बचने दिया गया है.
संसद और सड़क का फर्क मिट गया. शासक दल के नेताओं की भाषा को सम्मानपूर्वक सड़कछाप ही कहा जा सकता है. चुनाव प्रचार का लाभ उठाकर एक 70 साल का वृद्ध मुंह गोल करके ‘दीदी ओ दीदी’ की फब्ती कसता है.
वह देश के सर्वोच्च पद पर है. सड़क के शोहदों को इस अंदाज में ख़ासा अपनापन मालूम पड़ता है. बाकी सभ्यजन मुंह फेरकर इस पर मुस्कुराते हैं और उस औरत की अस्वस्ति का अनुमान कर आनंद लेते हैं.
हमें सोचना होगा कि ऐसा क्योंकर हुआ. हमारे भीतर बैठी अश्लीलता, क्षुद्रता को सहलाकर, उसे उत्तेजित करके इन नेताओं ने हमसे समर्थन हासिल किया. इन्होंने बताया कि फूहड़पन से बाहर निकलने की मेहनत नहीं करनी है. भाषा और भाव को संवारने का श्रम नहीं करना है.
हम जिस कीचड़ में हैं, वहीं पड़े रहने में आनंद है. इस तरह जनता और नेता के बीच एक अटूट रिश्ता कायम हुआ. आप मुसलमानों को खुलेआम गाली दें, प्रधानमंत्री मन ही मन मुस्काते रहेंगे. आप उन्हें गोली मारने का नारा लगाएं, मंत्री के रूप में आपकी पदोन्नति कर दी जाएगी.
आप जितना नीचे गिरेंगे, सामाजिक और राजनीतिक तौर पर आपके ऊपर उठने की संभावना उतनी ही बढ़ जाएगी. जो सभ्य तरीके से बात करे, शालीनता से पेश आए, उसे कमज़ोर, दीन-हीन माना जाएगा. जो ताकतवर है पहले से वह समाज से शालीनता, शिष्टाचार का बोध मिटा देना चाहता है.
एक बार सभ्यता-बोध शिथिल हो जाए, फिर हत्या आसान हो जाती है. क्या इसे समझने के लिए हमें किसी और देश या किसी और काल में जाना होगा?
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)