राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े भारतीय मज़दूर संघ ने सरकार पर साधा निशाना. 17 नवंबर को दिल्ली में होगा संसद मार्च.
नागपुर: राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े भारतीय मज़दूर संघ (बीएमएस) ने विभिन्न सरकारी संस्थानों में बैठे हार्वर्ड से शिक्षित सलाहकारों पर निशाना साधते हुए कहा कि उनका भारत की जमीनी हकीकत से कोई वास्ता नहीं है. बीएमएस ने भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार से कहा कि उसे सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों का विनिवेश बंद करना चाहिए.
मज़दूर संघ के पदाधिकारियों की दो दिन की बैठक के बाद एक प्रेस वार्ता में बीएमएस के राष्ट्रीय महासचिव बृजेश उपाध्याय ने कहा कि उनका संगठन अन्य श्रमिक संगठनों के साथ मिलकर 17 नवंबर को दिल्ली में संसद मार्च में शामिल होगा.
उन्होंने कहा कि इस जुलूस का मकसद श्रमिक वर्ग और आम आदमी के सामने मुंह बाए खड़े आर्थिक मुद्दों के समाधान के लिए सरकार पर दबाव बनाना है. सरकार के आर्थिक सलाहकारों पर हमला करते हुए उपाध्याय ने कहा कि वह देश की जमीनी सचाइयों से अनभिज्ञ हैं. इनमें से किसी भी सलाहकार या परामर्शदाता का जमीनी जुड़ाव नहीं है.
उन्होंने कहा, ये हार्वर्ड विश्वविद्यालय से पढ़कर आए लोग हैं जिनका ज्ञान वहां के छोटे देशों तक सीमित है और इनके परामर्श को यहां भारत जैसे बढ़े देश में लागू नहीं किया जा सकता, क्योंकि यह यहां व्यवहारिक नहीं है.
उन्होंने कहा कि सरकारी संस्थानों के सभी सलाहकारों को बदला जाना चाहिए और नीति-निर्माण की प्रक्रिया में जमीनी हकीकत से जुड़े लोगों को शामिल किया जाना चाहिए.
गौरतलब है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ा मज़दूर संगठन भारतीय मज़दूर संघ मोदी सरकार से लगातार नाराज चल रहा है और सरकार की आर्थिक नीतियों को मज़दूर और किसान विरोधी बताता रहा है.
इसके पहले बीएमएस ने मोदी सरकार की श्रमिक एवं श्रम कानून संबंधी नीतियों पर सवाल उठाए थे. बीते अगस्त में संघ ने नीति आयोग और आईडीएफसी इंस्टीट्यूट के उन निष्कर्षों को आधारहीन बताया था जिनमें कहा गया है कि श्रम कानूनों में संशोधन के बिना औद्योगिक प्रगति और रोजगार सृजन संभव नहीं है.
संघ ने कहा था कि आर्थिक नीति पर टुकड़ों टुकड़ों में विचार करने की प्रक्रिया छोड़कर समग्र आर्थिक नीति का एकमुश्त आंकलन एवं निर्धारण किया जाए.
भारतीय मज़दूर संघ के महामंत्री विरजेश उपाध्याय ने अपने बयान में कहा था कि भारतीय मज़दूर संघ ने नीति आयोग और आईडीएफसी इंस्टीट्यूट के इस निष्कर्ष को आधारहीन तथ्य बताया है जिसमें कहा गया है कि श्रम कानूनों में संशोधन के बिना औद्योगिक प्रगति और रोजगार सृजन संभव नहीं है.
उन्होंने कहा कि ऐसी रिपोर्टों और अध्ययनों के माध्यम से देश एवं समाज में एक ऐसा वातावरण बनाने का प्रयास हो रहा है कि श्रमिक एवं श्रम कानून औद्योगिक विकास एवं रोजगार सृजन में सबसे बड़ी बाधा हैं और इन बातों को स्थापित करने के प्रयास भी हो रहे हैं
(समाचार एजेंसी भाषा से इनपुट के साथ)