आज़ादी के बाद से उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का एकछत्र राज हुआ करता था, लेकिन आज हालात ये हैं कि किसी समय राज्य की नब्बे फीसदी से अधिक (430 में से 388) सीट जीतने वाली कांग्रेस दो सीटों पर सिमट कर रह गई है.
नई दिल्ली: आजादी के बाद से उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का एकछत्र राज हुआ करता था. 1967 में पार्टी को झटका जरूर लगा और पहली बार भारत की राजनीति में गठबंधन का मुख्यमंत्री बना, लेकिन अगले ही चुनाव में कांग्रेस ने फिर वापसी की. हालांकि, वह बहुमत से दो सीट कम पा सकी. इसलिए 1967 से 1970 के बीच कांग्रेस की भारतीय क्रांति दल के चौधरी चरण सिंह के साथ दो बार आंख मिचौली चली.
उसके बाद कांग्रेस का राज फिर भी कायम रहा, लेकिन उसकी बार-बार मुख्यमंत्री बदलने की बीमारी हमेशा कायम रही. आपातकाल के बाद हुए चुनाव (1977) में कांग्रेस को सबसे बड़ा झटका लगा और वह 215 से सीधे 47 सीटों पर लुढ़क गई.
लेकिन, अगले ही चुनाव (1980) में वह फिर से अपनी पुरानी आभा में लौटी और प्रचंड बहुमत से वापस सरकार बनाई. लेकिन, अगले आठ सालों में छह बार उसने अलग-अलग नेताओं को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाई, जिनमें एक वीपी सिंह भी थे जिन्होंने बोफोर्स कांड के चलते कांग्रेस से बगावत कर दी और जनता दल नामक ताकत उसके सामने खड़ी कर दी.
1989 में जब विधानसभा चुनाव हुए तो 269 सीट और 39.2 फीसदी मत प्रतिशत वाली कांग्रेस 27.9 फीसदी मत के साथ 94 सीटों पर सिमट गई. मुलायम सिंह यादव जनता दल के मुख्यमंत्री बने.
वही कांग्रेस की उत्तर प्रदेश में अंतिम विदाई थी. उसके बाद कांग्रेस का प्रदर्शन राज्य में चुनाव दर चुनाव ढलान पर आता गया. वर्तमान हालात ये हैं कि एक वक्त राज्य की नब्बे फीसदी से अधिक (430 में से 388) सीट जीतने वाली कांग्रेस आज 2 सीटों पर आकर सिमट गई है.
उसका वोट प्रतिशत छोटे-छोटे क्षेत्रीय दलों से भी कम है. हालिया संपन्न विधानसभा चुनाव में उसे 2.33 प्रतिशत मत प्राप्त हुए हैं, उससे अधिक मत (2.85) राष्ट्रीय लोक दल (रालोद) जैसे एक छोटे क्षेत्रीय दल को मिले हैं.
एक वक्त राज्य की सत्ता पर बतौर राष्ट्रीय दल राज करने वाली कांग्रेस की सीट संख्या रालोद, सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (सुभासपा), अपना दल (सोनेलाल), निषाद पार्टी, जनसत्ता दल लोकतांत्रिक जैसे बेहद ही छोटे दायरे में सीमित स्थानीय और क्षेत्रीय दलों से भी कम है.
हालांकि, पूर्व मुख्यमंत्री मायावती की पार्टी बसपा ने कांग्रेस से कम सीट (एक) पाई हैं, लेकिन फिर भी वह 12.88 फीसदी मत प्राप्त करने में सफल रही है.
कांग्रेस की दुर्गति का आलम यह रहा कि उसके प्रदेशाध्यक्ष अजय कुमार लल्लू तक चुनाव हार गए. लल्लू दो बार से लगातार जीतते आ रहे थे और यूपी में कांग्रेस की कमान संभाल रहीं पार्टी महासचिव प्रियंका गांधी के करीबी थे.
प्रियंका ने चुनावों को महिला केंद्रित बनाते हुए 40 फीसदी टिकट महिला उम्मीदवारों को देने की पहल की, लेकिन उनका यह दांव भी विफल रहा.
1989 से शुरू हुए कांग्रेस के पतन में, मंडल आयोग और अयोध्या विवाद से होते हुए राज्य की राजनीति में जाति और धर्म की राजनीति के उभार का अहम योगदान रहा.
बदलते राजनीतिक समीकरणों के साथ कांग्रेस तब से अब तक तालमेल ही नहीं बैठा सकी, जिसके चलते 1989 की फजीहत 1991 में भी जारी रही और पार्टी के वोट शेयर में फिर से 10 फीसदी से अधिक की कमी आई. वह 17.3 फीसदी मत प्रतिशत के साथ 46 सीटों पर सिमट गई.
1993 के चुनावों में सीट घटकर 28 रह गईं और मत प्रतिशत 15.1 रहा. 1996 में उसे एहसास हुआ कि यूपी की ज़मीन उसके नीचे से खिसक गई है और वह बसपा के साथ संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन में चुनाव लड़ी.
गठबंधन में वह बसपा की सहयोगी दल थी. उसने केवल 126 सीटों पर उम्मीदवार उतारे. इसका उसे लाभ भी मिला. उसकी सीट संख्या में बढ़ोतरी हुई. उसे 33 सीट मिलीं, लेकिन कम सीटों पर चुनाव लड़ने के चलते मत प्रतिशत गिरकर 8.3 रह गया.
हालांकि, जिन 126 सीटों पर उसने अपने उम्मीदवार उतारे थे, उन सीटों पर पड़े कुल मतों का उसे 29.1 फीसदी मत प्राप्त हुआ था.
इस तरह अपनी खोई ज़मीन वापस हासिल करने के बजाय उसने अपनी ज़मीन कुछ समय पहले ही यूपी की राजनीति में प्रभावी हुए क्षेत्रीय दलों को खुद ही सौंप दी. 1980 की तरह उसने उसे वापस हासिल करने का प्रयास नहीं किया.
2002 के चुनावों में कांग्रेस ने फिर से सभी सीटों पर लड़ने का फैसला किया. उसे 25 सीटों पर जीत भी मिली, लेकिन 1993 (जब वह सभी सीटों पर चुनाव लड़ी) के मुकाबले मत प्रतिशत में छह फीसदी से अधिक की कमी आई और वह गिरकर 9 पर आ गया.
2007 के अगले विधानसभा चुनावों में केंद्र की सत्ता में कांग्रेस थी, लेकिन इसका भी उसे कोई लाभ नहीं हुआ. मत प्रतिशत और नीचे गिर गया. खाते में आईं 22 सीट और वोट मिले 8.6 प्रतिशत.
2012 के चुनाव में करीब दो दशक बाद उसका मत प्रतिशत दहाई अंकों (11.6) में पहुंचा. सीट संख्या भी बढ़ी और 28 सीटें उसकी झोली में गिरीं. इससे पहले वह 2009 के लोकसभा में चुनावों में सपा के बाद दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी.
उस चुनाव में उसने राष्ट्रीय लोक दल के साथ 355 सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे. इन सीटों पर उसे 13.2 फीसदी मत मिले.
लेकिन, यूपी में वापसी की उम्मीद जगाती कांग्रेस के लिए उसकी केंद्र सरकार के खिलाफ खड़ी हुई सत्ता विरोधी लहर निर्णायक साबित हुई, रही-सही कसर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) में नरेंद्र मोदी के उदय ने पूरी कर दी और कांग्रेस बस अपने गढ़ अमेठी और रायबरेली तक ही सिमटकर रह गई.
1996 की तर्ज पर कांग्रेस 2017 के चुनावों में फिर से गठबंधन करके सहयोगी दल की भूमिका में आई. इस बार सपा के साथ गठबंधन में वह सिर्फ 114 सीट पर चुनाव लड़ी, जो उसके इतिहास का सबसे कम आंकड़ा था. लेकिन, जनता ने फिर भी उसे खारिज कर दिया.
केवल 7 सीट उसकी झोली में गिरीं और 6.25 फीसदी वोट मिला. 2017 के चुनावों में यूपी की कमान गांधी परिवार और कांग्रेस के वारिस राहुल गांधी ने संभाली थी, सपा प्रमुख अखिलेश यादव के साथ भी उन्होंने खूब चुनावी सभाएं की थीं. लेकिन, जनता ने उन्हें खारिज कर दिया.
2019 के लोकसभा चुनावों में तो कांग्रेस की ऐसी दुर्दशा हुई कि राहुल गांधी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहते हुए अपनी पारंपरिक सीट अमेठी से चुनाव हार गए. यानी कि यूपी के जो अमेठी, रायबरेली या इलाहाबाद कांग्रेस के गढ़ हुआ करते थे, वह भी ढह चुके थे.
गांधी परिवार के एक सदस्य को यूपी ने खारिज किया तो दूसरी सदस्य- प्रियंका गांधी अपना भाग्य आजमाने यूपी में आ गईं.
यूपी के सदन में महज सात विधायक होते हुए भी उन्होंने मुख्य विपक्ष की भूमिका निभाई. यूपी में जहां भी कुछ अवांछित घटा, विपक्ष के तौर पर एकमात्र नेता प्रियंका ही थीं जो हर उस जगह नज़र आईं. लेकिन, अंतत: उनकी मेहनत भी रंग नहीं लाई. सुर्खियां बटोरने के बावजूद भी पार्टी ने अपने इतिहास का सबसे बुरा प्रदर्शन किया.
इस तरह यूपी में कांग्रेस के दोनों ही सबसे बुरे प्रदर्शनों की अगुवाई गांधी परिवार के सदस्यों ने ही की है जो दर्शाता है कि गांधी परिवार से यूपी का मोह भंग हो चुका है.
द वायर से बातचीत में राज्य के राजनीतिक जानकारों ने भी बताया था कि राज्य में कांग्रेस का संगठन बहुत पहले ढह चुका है. उसे दोबारा खड़ा करने की कभी कोशिश ही नहीं हुई. इस बार भी प्रियंका गांधी सिर्फ अपना चेहरा प्रस्तुत कर रही थीं, लेकिन संगठन खड़ा करने का प्रयास नहीं.
वहीं, जानकारों का ऐसा भी मानना रहा कि प्रियंका अगर स्वयं विधानसभा चुनाव लड़तीं तो कांग्रेस का जो बचा-खुचा संगठन बचा था, उसमे जोश जगा देतीं लेकिन वह अपनी राष्ट्रीय नेता की छवि त्यागकर प्रादेशिक नेता नहीं बनना चाहती थीं.
जानकार मानते हैं कि राहुल गांधी प्रियंका गांधी जो कांग्रेस की कमान अपने हाथों में थामे हुए हैं, उनसे जनता इसलिए भी खुद को जुड़ा हुआ नहीं पाती है क्योंकि वे हर मुद्दे पर सक्रियता तो दिखाते हैं लेकिन उसे अंजाम तक नहीं पहुंचाते हैं. वहीं, जानकार प्रियंका की कथनी और करनी में अंतर भी पाते हैं.
कांग्रेस की दुर्गति का एक अहम कारण जानकार यह भी मानते हैं कि जाति-धर्म की पकड़ में जकड़ चुकी यूपी की राजनीति में कांग्रेस के पास ऐसा कोई जाति समूह नहीं है जिसका वह नेतृत्व करती हो. प्रियंका ने ‘लड़की हूं, लड़ सकती हूं’ जैसा आकर्षक नारा तो दिया लेकिन चुनावी नारा ऐसा होना चाहिए था जिससे मतदाताओं का हर वर्ग खुद को जुड़ा हुआ महसूस करता, न कि एक विशेष वर्ग.
वहीं, महिलाओं को 40 फीसदी टिकट देने की घोषणा तो कर दी गई लेकिन जब टिकट देने के लिए पार्टी में महिला कार्यकर्ता नहीं मिलीं तो ऐसों को टिकट बांट दिया गया, जिनका कोई जनाधार ही नहीं था. नतीजतन, कांग्रेस ने बुरे प्रदर्शन के मामले में इतिहास रच दिया.