विधानसभा चुनाव परिणाम: आशा और आशंका के बीच जनतंत्र कहां है

जनादेश जब इस क़िस्म का हो कि मतदाताओं का एक तबका उसमें ख़ुद को किसी तरह शामिल न कर पाए, तो उसके मायने यही होंगे कि जनता खंडित हो चुकी है.

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10 मार्च को दिल्ली में भाजपा मुख्यालय पर इकट्ठा हुए पार्टी समर्थक व कार्यकर्ता. (फोटो: पीटीआई)

जनादेश जब इस क़िस्म का हो कि मतदाताओं का एक तबका उसमें ख़ुद को किसी तरह शामिल न कर पाए, तो उसके मायने यही होंगे कि जनता खंडित हो चुकी है.

10 मार्च को दिल्ली में भाजपा मुख्यालय पर इकट्ठा हुए पार्टी समर्थक व कार्यकर्ता. (फोटो: पीटीआई)

आशंका सच साबित हुई. आशा आकाशकुसुम बनकर रह गई. लेकिन जो एक के लिए आशंका है, वह दूसरे के लिए आशा है.

उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, गोवा, मणिपुर और पंजाब में क्रमशः भारतीय जनता पार्टी और आम आदमी पार्टी की जीत के घंटों के भीतर ही हज़ारों शब्द इनकी व्याख्या में खर्च किए जा चुके हैं. आशंका और आशा के दो समुदाय इस देश में बन चुके हैं. इसलिए इस जनादेश के एक दूसरे से बिलकुल विपरीत दो अर्थ निकाले जा रहे हैं.

यह बात जनतंत्र के लिए बहुत ख़तरनाक है. आम तौर पर जनादेश या बहुमत में समाज के सभी तबकों की आशा शामिल रहती है. लेकिन अगर ऐसा हो कि एक तबके को वह अपने ख़िलाफ़ लगने लगे, बल्कि उसे यह बार-बार बतलाया जाए तो चुनाव भले जनतांत्रिक लगे, उसका आशय उसके ठीक उलट हो जाता है.

जनादेश जब इस क़िस्म का हो कि मतदाताओं का एक तबका उसमें ख़ुद को किसी तरह शामिल न कर पाए, तो उसके मायने यही होंगे कि जनता खंडित हो चुकी है.

जैसा हमने कहा जो एक के लिए आशा का स्रोत है, वह दूसरे के लिए आशंका का कारण है. यह जनतंत्र और देश के लिए स्वस्थ स्थिति नहीं है. इस पर हम आगे विचार करेंगे. लेकिन पहले इस जनादेश के कारण को समझने की कोशिश करें.

माना जा रहा था कि पिछले वर्षों में तेज़ी से बढ़ी बेरोज़गारी, आर्थिक बदहाली, कोरोना संक्रमण के दौरान सरकार की कुव्यवस्था आदि का असर मतदाताओं पर होगा. जब वे नई सरकार बनाने के लिए विधानसभा चुनेंगे तो इस रिकॉर्ड को ध्यान में रखेंगे. लेकिन यह नहीं हुआ.

इसे देखते हुए अलग-अलग विचारक प्रायः एक बात पर सहमत हैं कि मतदाता की आर्थिक बदहाली का उसके मतदान के निर्णय से बहुत कम रिश्ता रह गया है. यह बात भी है कि वह अपनी बदहाली के लिए अब प्रायः सरकार को जवाबदेह नहीं ठहराता, ख़ासकर अगर वह भाजपा की सरकार हो.

उस समय वह विश्व बाज़ार, प्राकृतिक विवशता, ऐतिहासिक कारण आदि को इसके लिए ज़िम्मेदार मानकर सरकार को मुक्त करने को तत्पर रहता है. यह बात पिछले कुछ वक़्त से देखी जा रही थी. नोटबंदी और जीएसटी के बाद तबाह हो गए व्यापारियों में ख़ासी संख्या ने गुजरात के विधानसभा चुनाव में दुबारा भाजपा को वोट दिया. बाक़ी लोगों ने भी.

कुछ तो यह मानकर कि जिस निर्णय ने उनका जीवन तहस-नहस कर दिया, उसके पीछे ज़रूर कोई बड़ा कारण होगा जो राष्ट्रीय हित के लिए अनिवार्य हो उठा हो. यह कारण नेता को मालूम है, उन्हें नहीं.

नेता के प्रति जो अगाध विश्वास है, वह उसके हर निर्णय को सही ठहराने के लिए तर्क खोजने का काम भी मतदाताओं के ज़िम्मे कर देता है. लेकिन उस नेता में यह विश्वास कैसे और क्योंकर पैदा हुआ? क्यों उस नेता का आकर्षण दुर्निवार है? इसके कारण खोजना बहुत मुश्किल नहीं है.

अपनी जनता में असुरक्षा पैदा करना और फिर ख़ुद को उसका उपाय या उद्धारकर्ता बतलाना यह पुराना आज़माया हुआ तरीक़ा है.

यह असुरक्षा हिंदुओं में दशकों से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) पैदा करता रहा है. उनकी असुरक्षा के कारण मुसलमान हैं, उनमें भी मुसलमान मर्द. लेकिन भारत की धर्मनिरपेक्ष जनतांत्रिक व्यवस्था के कारण हिंदुओं के बराबर ही अधिकार रखते हैं, बल्कि अल्पसंख्यक होने का लाभ उठाकर अतिरिक्त सुरक्षा भी हासिल करते हैं.

इस स्थिति को तोड़े बिना हिंदुओं का सुरक्षित होना मुमकिन नहीं. इसका एक नमूना गुजरात में 2002 में पेश किया गया.

गुजरात में 2002 के मुसलमानों के जनसंहार को ढिठाई से झुठलाने और साथ ही उचित ठहराने की नेता की हिमाक़त ने उसकी जनता का दिल जीत लिया. वह जितना ढीठ होता गया, जनता उतना ही उसकी होती चली गई. उसने उन्हें हिंसा करने की छूट दी, उन्हें उसके लिए उकसाया, उसका औचित्य प्रस्तुत किया.

इस प्रकार वह जनता का नेता बना और उसे उसका विश्वास हासिल हुआ. जो विश्लेषक बार-बार यह कहते हैं कि नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता बरकरार है, उन्हें इसका कारण बतलाना चाहिए. वह कारण है हिंसा में जनता और नेता की समान भागीदारी. इससे उनमें अपनापा पैदा होता है.

नरेंद्र मोदी के रूप में आरएसएस को भी वह हथियार मिल गया जिसकी तलाश वह कई दशकों से कर रहा था. भारतीय पूंजीपतियों को भी ऐसा प्रशासक चाहिए था जिस पर जनता इतना यक़ीन करे कि जब वह हर सार्वजनिक संसाधन, ऊर्जा का स्रोत उनके हवाले करे तो वह सवाल न करे. यह गुजरात में नरेंद्र मोदी ने कर दिखलाया.

प्रत्येक जनतांत्रिक प्रतिरोध को कुंद कर देने की क्षमता के कारण मोदी को पूंजीपतियों ने अपने मनपसंद प्रशासक के रूप में अपना लिया. और फिर मोदी की विश्वसनीयता का निर्माण राष्ट्रीय स्तर पर किया गया. 2002 की बार-बार याद दिलाने वालों को शिकायती, पिछड़ा हुआ ठहराया गया.

यह कथा लंबी है और कभी इस पर चर्चा अवश्य होनी चाहिए लेकिन जब बुद्धिजीवी कहते हैं कि नरेंद्र मोदी स्थिर व्यवस्था के भंजक के रूप में, एक क्रांतिकारी के रूप में अवतरित हुए तो उन्हें बतलाना पड़ेगा कि उस व्यवस्था की नींव धर्मनिरपेक्षता की थी. मामला इसे तोड़ने का था. नरेंद्र मोदी ने इसमें पुराना संसदीय संकोच पूरी तरह छोड़ने का ‘साहस’ प्रदर्शित किया.

प्रधानमंत्री बन जाने के बाद भी मोदी ने साबित किया कि यह पद किसी भी तरह घृणा प्रचारक के मुख्य कार्य में बाधा नहीं बनेगा. बल्कि और सहायता ही करेगा. घृणा को एक गरिमा मिल जाएगी.

2014 के बाद से सारे चुनाव जनता और नेता के बीच इस परस्पर विश्वास को और दृढ़ करने का काम करते आए हैं. हर चुनाव इस असुरक्षा को उकसाने और ख़ुद को संरक्षक के तौर पर पेश करने का एक और मौक़ा है. 2022 के राज्य के चुनाव अलग न थे.

हर चुनाव ऐसा जनादेश बार-बार तैयार करने की क़वायद है जो समाज को विरोधी हिस्सों में बांट दे. उत्तर प्रदेश में जब क़ानून-व्यवस्था की बात होती है तो मुसलमानों को मालूम है कि उनके लिए यह ‘क़ानून’ के ज़रिये जुल्म की बात है. जब सुरक्षा का वादा किया जाता है तो मुसलमानों को मालूम है कि यह उनको पूरी तरह असुरक्षित करने की तैयारी है.

उत्तर प्रदेश के अलावा उत्तराखंड में चुनाव के ठीक पहले से मुसलमानों द्वारा ज़मीन ख़रीदने की साज़िश का प्रचार भूलना नहीं चाहिए. क्या उसका कोई प्रभाव मतदाता पर नहीं पड़ा? क्या हम यह नापेंगे कि मत देते समय यह कितना प्रतिशत था और आर्थिक कारण का प्रतिशत कितना था?

जो उत्तर प्रदेश के चुनाव को राशन और खाते में पैसे जैसे कल्याणकारी कदम से प्रभावित बताना चाहते हैं कि वे यह छिपा लेना चाहते हैं कि आख़िर इस लाभार्थी का दिल-दिमाग़ कैसा है. इसे छिपाकर हम ख़ुद से धोखा ही करेंगे.

अगर आम आदमी पार्टी भी सिर्फ़ सुशासन का कार्यक्रम लेकर पंजाब गई थी तो उसके नेताओं ने वहां हिंदू असुरक्षा की बात बार-बार क्यों की? क्या यह सुशासन की सादा दाल में एक भावनात्मक तड़का लगाया जा रहा था? और क्या वहां इससे अलग एक दूसरी छिपी हुई असुरक्षा को सहलाया नहीं जा रहा था?

इन प्रश्नों पर विचार किए बिना हम अपने जनतंत्र के हाल के बारे में भी ईमानदारी से बात नहीं कर पाएंगे.

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)