क्या किसी सत्ता दल को मतदाताओं की नाराज़गी के आईने में अपनी शक्ल तभी देखनी चाहिए, जब वह उसे सत्तापक्ष से विपक्ष में ला पटके?
अभी यह साफ होना बाकी है कि गत गुरुवार को उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की जीत के बाद मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का उसके कार्यकर्ताओं से यह कहना कि वे जोश में होश न खोएं, जनादेश में छिपे जवाबदेही के नए संकेत को ठीक से समझें और खुद को फिर से राष्ट्रवाद, सुरक्षा, विकास व सुशासन और दूसरी जनाकांक्षाओं के अनुरूप साबित करने में लगें, पार्टी की समर्थक जमातों को कैसा लगा है और भविष्य में वे उसका कैसा भाष्य करने वाली हैं.
लेकिन इस बात में संदेह की कोई गुंजाइश नहीं है कि प्रदेश के जिन मतदाताओं ने न सिर्फ भाजपा की विधानसभा सीटें उन्नीस प्रतिशत घटा दी हैं, बल्कि योगी के ग्यारह मंत्रियों को नई विधानसभा का मुंह नहीं देखने दिया है, थोड़ी आश्वस्ति का अनुभव हुआ होगा.
लेकिन क्या वे योगी के कथन में जनादेश का दबाव महसूस कर रहे नेता की फल से लदे वृक्ष की डाली जैसी सच्ची सदाशयता के दर्शन कर पाए होंगे, जिसके बाद परस्पर अविश्वास की कोई गुंजाइश नहीं रह जाती? साथ ही वह लोकतांत्रिक परंपरा समृद्ध होने लग जाती है, जिसके तहत सरकारें चुनी भले ही बहुमत से जाती हों, सत्ता संभालने के बाद सिर्फ बहुसंख्यकों या अपने मतदाताओं की होकर नहीं रह जातीं.
वे इस सदाशयता का दर्शन कर पाते तो पिछले पांच साल के कार्यकाल में योगी सरकार द्वारा इस मान्यता के खुल्लमखुल्ला तिरस्कार से जुड़े अंदेशे स्वतः समाप्त हो जाते. लेकिन कम से कम दो कारणों से ऐसा नहीं लगता.
पहला यह कि योगी आदित्यनाथ कार्यकर्ताओं से तो जोश में होश न खोने को कह रहे थे, लेकिन उन्हें खुद इतना होश रखना भी गवारा नहीं था कि जो कार्यकर्ता बुलडोजर के साथ उनके समक्ष आए और उसे जीत के उनके करिश्मे से जोड़कर उस पर फूल-मालाएं चढ़ा रहे थे, उन्हें यह कहकर मना कर दें कि बुलडोजर किसी भी रूप में सृजन या निर्माण का नहीं, ध्वंस व दमन का ही प्रतीक होता है और भले ही उसके चुनावी इस्तेमाल से बचना संभव नहीं हो पाया, आगे वे उसका इस्तेमाल दोहराना नहीं चाहते.
वरना इस जीत के लिए जिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कृतज्ञ हैं, उनके ‘सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास और सबके प्रयास’ के मंत्र को कैसे अंगीकार कर पाएंगे? और नहीं कर पाएंगे तो क्या अपनी हिदायत का खुद ही कोई नया और पहले से ज्यादा मनमाना भाष्य गढ़ने को मजबूर नहीं हो जाएंगे?
रामपुर जिले की बिलासपुर सीट से चुने गये योगी सरकार के राज्यमंत्री बलदेव सिंह औलख ने जिस तरह नतीजा आते ही ऐलान कर दिया है कि चूंकि मुसलमानों ने भाजपा को वोट नहीं दिया, इसलिए अब बुलडोजर पहले से ज्यादा तेज दौड़ेगा, उससे साफ है कि नये भाष्य के लिए ‘मजबूर’ होना ही योगी की नियति है.
वे डुमरियागंज विधानसभा सीट से अपने करीबी हिंदू युवा वाहिनी नेता राघवेंद्र सिंह की हार से शायद ही कोई सबक ले सकें, जिन्होंने चुनाव प्रचार के दौरान मुसलमानों के खिलाफ तो भरपूर जहर उगला ही था, दूसरी तरफ जाने वाले हिंदुओं के लिए भी कई बेहद अपमानजनक बातें कही थीं.
दूसरा और कहीं ज्यादा बड़ा कारण यह कि जीत के खुमार में डूबी भारतीय जनता पार्टी मतदाताओं की नाराजगी का नोटिस लेती ही नहीं दिखाई देती. न ही समझना चाहती है कि उसको हासिल हुआ प्रदेश का इस बार का जनादेश उतना प्रचंड भी नहीं है, जितना वह प्रचारित कर रही है.
इस खास मकसद से कि मतदाताओं की नाराजगी को नक्कारखाने में तूती की आवाज बनाकर इस ‘कसूर’ की सजा दे कि वह सत्ता परिवर्तन के लिए पर्याप्त नहीं सिद्ध हुई? सवाल है कि क्या किसी सत्ता दल को मतदाताओं की नाराजगी के आईने में अपनी शक्ल तभी देखनी चाहिए, जब वह उसे सत्तापक्ष से विपक्ष में ला पटके?
विकल्प के अभाव में या किन्हीं मजबूरियों के तहत मतदाता उसे बेदखल न कर पाएं, तो भी उसके एजेंडा व मंसूबे को निर्ममता से नकार दें, तो इसकी थोड़ी-बहुत शर्म महसूस की जानी चाहिए या नहीं?
निस्संदेह, प्रदेश के मतदाताओं ने इस बार कुछ ऐसा ही किया है. याद कीजिए, चुनाव के दौरान मुजफ्फरनगर के 2013 के जिस दंगे के हवाले से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ समेत प्रायः सारे बड़े भाजपा नेता प्रतिद्वंद्वी समाजवादी पार्टी को घेरते और 2012 से 2017 के उसके ‘जंगल राज’ की याद दिलाकर हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण की कोशिशें करते रहे थे, सपा के प्रति मन पूरी तरह साफ न होने के बावजूद मतदाताओं ने उसके आरोपी दोनों भाजपा प्रत्याशियों- संगीत सोम व सुरेश राणा को चुनाव हरा दिया है.
इनमें योगी सरकार में कैबिनेट मंत्री रहे सुरेश राणा शामली जिले की थाना भवन सीट से प्रत्याशी थे, जबकि संगीत सोम मेरठ की सरधना सीट से. 2013 में दोनों दंगा भड़काने में धरे गये थे, लेकिन योगी राज आने पर ‘हिंदुत्व के हीरो’ बन गए थे. लेकिन अब मतदाताओं ने उनके साथ ही मुजफ्फरनगर जिले की बुढ़ाना विधानसभा सीट पर भाजपा विधायक उमेश मलिक पर भी कोई रहम न करके उसके नफरतभरे मंसूबे को नकार दिया है तो किसके मुंह पर तमाचा मारा है?
दूसरी ओर, रामपुर के मतदाताओं ने योगी की नफरत के सबसे बड़े शिकार सपा नेता आजम खान को चुनकर भी एक बड़ा संदेश दिया है. उन्होंने बगल की स्वार टांडा सीट पर आजम के बेटे अब्दुल्ला आजम को भी नहीं हराया है. भले ही चुनाव प्रचार के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृहमंत्री अमित शाह और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने पिता-पुत्र दोनों पर भरपूर निशाने साधे थे. गृहमंत्री अमित शाह ने एक रैली में उन्हें अतीक अहमद और मुख्तार अंसारी जैसे बाहुबलियों के साथ जोड़ डाला था.
कैराना से हिंदुओं के कथित पलायन के जिस मुद्दे को लेकर शाह ने घर-घर जाकर परचे बांटे और दावा किया था कि सपा राज में वहां से भागे हिंदू परिवार योगी सरकार बनने के बाद ही वापस आ पाए, वहां भी मतदाताओं ने समाजवादी पार्टी के नाहिद हसन को ही चुना है.
उन्होंने पिछली बार से दस ज्यादा मुस्लिम विधायक चुनकर भी प्रदेश की गंगा-जमुनी संस्कृति की अवमानना करके ईद की बधाई देने तक से परहेज करने वाले योगी की नफरत को सबक सिखाया है.
लेकिन जैसे इतना ही काफी न हो, उन्होंने उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य (सिराथू) समेत योगी के ग्यारह मंत्रियों को दोबारा विधानसभा का मुंह न देखने का दंड भी दिया है.
जैसा कि पहले बता आए हैं, सुरेश राणा शामली जिले की थाना भवन सीट से, तो छत्रपाल सिंह गंगवार बरेली की बहेड़ी सीट, राजेंद्रप्रताप सिंह उर्फ मोती सिंह प्रतापगढ़ जिले की पट्टी सीट, चंद्रिकाप्रसाद उपाध्याय चित्रकूट, आनंदस्वरूप शुक्ल बलिया जिले की बैरिया सीट, उपेंद्र तिवारी बलिया जिले की ही फेफना सीट, रणवेंद्र सिंह धुन्नी फतेहपुर जिले की हुसैनगंज सीट, लखन सिंह राजपूत औरैया जिले की दबियापुर सीट, सतीशचंद्र द्विवेदी सिद्धार्थनगर जिले की इटवा सीट, तो संगीता बलवंत गाजीपुर सीट से मतदाताओं के रोष व क्षोभ का शिकार होने से नहीं बचे हैं.
अपवादों को छोड़ दें तो किसी भी भाजपा प्रत्याशी को बड़े अंतर की जीत नसीब नहीं हुई है और पंद्रह सीटों पर हजार वोटों से भी कम पर फैसला हुआ है.
गौरतलब है कि अब, दशकों पुरानी दलित-पिछड़ा दुश्मनी को नए सिरे से आगे बढ़ाती हुई बसपा प्रमुख मायावती कह रही हैं कि उनकी पार्टी के वोटरों ने सपा के जंगलराज के अंदेशे से घबराकर भाजपा को वोट दिया. इसके बावजूद भाजपा के मत प्रतिशत में बड़ा उछाल न आना भी क्या मतदाताओं की उससे नाराजगी का सबूत नहीं है?
लेकिन भाजपा के साथ मीडिया के उस वर्ग द्वारा भी इसे मतदाताओं की नाराजगी के तौर पर नहीं देखा जा रहा, जो चुनाव के दौरान भाजपा की जमीन हमवार और उसके प्रतिद्वंद्वियों की राह दुश्वार करने में कुछ भी उठा नहीं रख रहा था.
भाजपा का अपना आकलन था कि उसे ढाई सौ के आस-पास सीटें मिल जाएंगी और वह अपनी सरकार बचा लेगी, लेकिन यह मीडिया उसे इस तरह तीन सौ के पार पहुंचा रहा था, जैसे उसकी संभावनाओं को वह उससे भी बेहतर समझता हो.
स्वाभाविक ही, अब वह इस सवाल का जवाब नहीं दे रहा कि सपा ने 2017 के मुकाबले ढाई गुनी सीटें और डेढ़ गुना मत प्रतिशत क्या मतदाताओं की भाजपा से नाराजगी के बगैर ही प्राप्त कर लिया है? सो भी, जब भाजपा की चुनावी संभावनाएं उजली करने में उस चुनाव आयोग की भी भूमिका रही है, जो चुनाव तारीखों के ऐलान के वक्त कोरोना प्रोटोकाल के नाम पर सारा तकिया डिजिटल प्रचार पर रखते वक्त ही यह बात भूल गया था कि वह भारत का चुनाव आयोग है, भारत सरकार या सरकारी पार्टी का नहीं और अंपायर है, खिलाड़ी नहीं.
याद कीजिए, योगी ने इस चुनाव को अस्सी और बीस की लड़ाई बताया था. लेकिन मतदाताओं ने उन्हें इस तरह गलत सिद्ध कर दिया कि एक असदुद्दीन ओवैसी को छोड़कर कोई भी जनादेश को उस रूप में नहीं देख रहा. क्या अर्थ है इसका?
क्या यही नहीं कि मतदाता चाहते हैं कि वे जनादेश में व्यक्त उनकी नाराजगी को ठीक से पढ़ें और अपना रास्ता बदलें? हां, वे भी बदलें ही, जो नाहक मतदाताओं के विवेक पर सवाल उठा और स्यापा कर रहे हैं.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)