द कश्मीर फाइल्स: पुराने जख़्म पर मरहम के बहाने नए ज़ख़्मों की तैयारी

हालिया रिलीज़ फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’ में कश्मीरी पंडितों के बरसों पुराने दर्द को कंधा बनाकर और उस पर मरहम रखने के बहाने कैसे एक पूरे समुदाय विशेष को ही निशाना बनाया जा रहा है.

//
(फोटो साभार: फेसबुक)

हालिया रिलीज़ फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’ में कश्मीरी पंडितों के बरसों पुराने दर्द को कंधा बनाकर और उस पर मरहम रखने के बहाने कैसे एक पूरे समुदाय विशेष को ही निशाना बनाया जा रहा है.

(फोटो साभार: फेसबुक)

हाल ही में रिलीज़ हुई हिंदी फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’ इस समय विवादों में क्यों है, इसका सबसे संक्षिप्त जवाब इसी फिल्म के एक किरदार द्वारा कहे गए डायलॉग से बढ़कर और क्या हो सकता है कि ‘सच जब तक जूते पहनता है, झूठ पूरी दुनिया का चक्कर लगाकर आ चुका होता है.’

यही तो सच है कि द कश्मीर फाइल्स जैसी फिल्म के बहाने कैसे कई सारे सच को छिपाते हुए ढेर सारे झूठ का सहारा लिया गया, बाकायदा एक प्रोपेगंडा प्रोजेक्ट तैयार किया गया, कश्मीरी पंडितों का बरसों पुराना दर्द सामने लाने के नाम पर एक पूरे समुदाय पर निशाना साधा गया और लोगों का ब्रेनवॉश करके उनकी भावनाओं को इस तरह से भड़काया जा रहा है कि फिल्म देखकर मनोरंजन करने गए लोग दंगा करने पर उतारू हो रहे हैं, जब तक ऐसे अनेक सवालों के सही जवाब दिए जा सकते, तब तक कितनी ही घटनाएं घट चुकी हैं.

जिसकी वजह है यह फिल्म, द कश्मीर फाइल्स. ज़ाहिर है कि इस फिल्म को बनाने का और उससे भी बढ़कर जिस वक़्त में बनाने का जो मकसद है, वह ऐसी घटनाओं के ज़रिये हल हो रहा है.

इस फिल्म को देखने के बाद अनेक जगहों पर संवेदनशील घटनाएं लगातार घट रही हैं. कहीं फिल्म देखने के बाद थियेटर में बैठे लोग ही इस देश की हर समस्या, हर आतंकवाद का ज़िम्मेदार एक समुदाय-विशेष के लोगों को बता रहे हैं, कहीं फिल्म देखने के बाद आवेश में लोगों द्वारा बाकायदा स्पीच देकर ये आह्वान किया जा रहा है कि उक्त समुदाय-विशेष की औरतों से शादियां करके बच्चे पैदा करो और उनकी आबादी कम करो, क्योंकि जिस समय वे फिल्म देख रहे हैं, उस समय उस आबादी के लोग अपने घरों में, अपनी आबादी को बढ़ाने की कोशिशों में लगे हुए हैं.

कुछ जगहों पर एक समुदाय-विशेष को टारगेट करते हुए नारेबाज़ी की जा रही है, कुछ जगहों पर एक विशेष धर्म के धार्मिक स्थलों के रंग बदले जा रहे हैं, कई जगहों पर एक समुदाय-विशेष को टारगेट करके हाथापाई की गई और इस सब की ज़िम्मेदारी लेने से यह फिल्म इनकार करती है.

इस तरह की सभी घटनाओं को महज़ यह कहकर नकारा जा रहा है कि यह तीस-बत्तीस साल पुराने दर्द से उपजा आक्रोश मात्र है, जो अब रिसकर सामने आ रहा है.

हालांकि इस फिल्म की शुरुआत में दिए स्पष्टीकरण में यह बात कहने की औपचारिकता ज़रूर बरती गई है कि इस फिल्म के निर्माण का उद्देश्य पूर्ण रूप से मनोरंजन करना है. इसका उद्देश्य किसी जाति, धर्म, संप्रदाय या मत की भावनाओं को आहत करना नहीं है. किसी भी जीवित या मृत व्यक्ति या किसी घटना से इसकी समानता महज़ एक संयोग हो सकती है.

फिल्म के शुरू होने से पहले ही इस फिल्म का झूठ शुरू हो जाता है. इस झूठ की ज़िम्मेदारी लेने में न तो इस फिल्म के निर्देशक विवेक अग्निहोत्री की कोई दिलचस्पी है और न ही फिल्म के कलाकारों- अनुपम खेर, मिथुन चक्रवर्ती, पल्लवी जोशी या दर्शन कुमार आदि में से किसी की.

इस फिल्म की शुरुआत साल 1990 के दशक के जिस काल-खंड से होती है, उसमें यह तो दिखा दिया गया कि माहौल ख़राब है, लेकिन माहौल क्यों ख़राब है, उसका कारण क्या है, उसका ज़िम्मेदार कौन है, उसका इतिहास क्या है और उसके परिणाम के निशाने पर सबसे पहले आने वाले लोग कौन थे, ऐसे किसी सवाल का जवाब तो दूर की बात, उस सवाल को छूने तक की ज़रूरत या हिम्मत फिल्म से जुड़े हुए लोगों में नहीं थी और ऐसा करना उनका मक़सद था भी नहीं.

कश्मीरी पंडितों का दर्द झूठ नहीं है, उनके आंसू झूठे नहीं हैं. वह दर्द झूठा कैसे हो सकता है, जो अपने ही घर से बेघर होने पर उपजता है, जो अपनी सरज़मीं छोड़ने पर उपजता है, दर-दर की ठोकरें खाने पर मजबूर कर दिए जाने पर उपजता है.

किसी भी कश्मीरी पंडित के इस दर्द को सिवाय कश्मीरी पंडितों के और कोई शायद ही समझ पाए, इसलिए उनके इस दर्द को सामने लाने का काम पूरी सच्चाई से कोई संवेदनशील और ज़िम्मेदार कश्मीरी पंडित ही कर सकता है. किसी छिपे एजेंडे के तहत काम करने वाला और मौके पर चौका मारने वाला स्वार्थी तत्व नहीं.

कश्मीरी पंडितों के पलायन की वजह, उसके कारण और उसके इतिहास पर किसी भी प्रकार की चर्चा करने की इस फिल्म को कोई भी ज़रूरत इसलिए भी महसूस नहीं हुई, क्योंकि उसका मकसद ही कश्मीरी पंडितों के दर्द का ज़िम्मेदार घाटी में मौजूद मुसलमानों को दिखाना था, बल्कि सिर्फ़ कुछ मुसलमानों को ही नहीं, पूरे मुस्लिम समुदाय को ही निशाने पर लेना था.

चाहे बात कश्मीरी पंडितों के घर से बेघर किए जाने की हो, उनकी समस्याओं की हो, उनकी सुरक्षा की हो या आज तक उनके दर-दर की ठोकरें खाने पर मजबूर होने की, सभी का ज़िम्मेदार इस फिल्म में सिर्फ़ मुसलमानों को दिखाया गया है.

तब ज़ाहिर है कि हम कह सकते हैं कि कश्मीर पंडितों के दर्द को कंधा बनाकर, उनके पुराने दर्द पर मरहम रखने के नाम पर विवेक अग्निहोत्री ने बाकायदा ऐसी फिल्म बनाई है, जो इंसानियत को ऐसे कई नए ज़ख़्म देने का काम कर सकती है.

और फिर अगर हमें सच्चे इतिहास की कोई ज़रूरत नहीं है, सच्चे और सही आंकड़ों की कोई ज़रूरत नहीं है और हम एक फिल्म को ही पूरे इतिहास, कालखंड और घटनाक्रम का प्रतिनिधि मानने को तैयार हैं तो फिर राहुल पंडिता और विधु विनोद चोपड़ा की फिल्म ‘शिकारा’ का ज़िक्र बहुत ज़रूरी हो जाता है.

राहुल पंडिता कश्मीरी पंडित भी हैं, अपनों को मरता देखने का दर्द भी जानते हैं और अपने जलते घर से धुंआ उठते देखने के अनुभव से भी अछूते नहीं हैं. वे अपनी बात आप करते हैं और ईमानदारी से करने की कोशिश करते हैं, इसलिए शिकारा फिल्म बनाने के बाद जमकर कोसे जाते हैं, गरियाये जाते हैं, ट्रोल होते हैं.

कोई भी ऐसा माध्यम, जो जन सरोकारों से जुड़ा हो, चाहे वह लेखन हो, फिल्म निर्माण हो या फिल्म में अभिनय करना भर ही क्यों न हो, उसकी एक गहरी ज़िम्मेदारी होती है, जवाबदेही होती है, नैतिकता होती है. उससे कुछ भी कहकर पल्ला नहीं झाड़ा जा सकता.

जब आप ऐसी फिल्म बनाते हैं, जिसे देखने के बाद लोगों के होशोहवास इतने दुरुस्त ही नहीं रह जाते कि वे देख-जान सकें कि राजनीतिक रूप से जिस विरोधी दल को घेरने का काम यह फिल्म करने की कोशिश में है, वह तो उस समय सत्ता में कहीं थी भी नहीं, बल्कि उस समय कश्मीर में जनता दल की सरकार थी, जिसके प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह थे और वे भाजपा के समर्थनधारी थे.

प्रधानमंत्री से मिलने के बाद फिल्म द कश्मीर फाइल्स की टीम बीते दिनों गृहमंत्री अमित शाह से मुलाकात करने गई थी. (फोटो साभार: फेसबुक)

जिस कांग्रेस को दबे-छिपे ढंग से पूरा खलनायक बताया जा रहा है, उसके राजीव गांधी के द्वारा किए गए का संसद के घेराव के बाद ही तब कश्मीरी पंडितों की सुरक्षा और सरोकारों की सुध ली गई थी, कौन जानना चाहेगा ये बात, थियेटर से विवेक खोकर निकलते हुए लोगों में से.

यहां तक कि पूरी फिल्म में यह बात तो कही गई कि कश्मीरी पंडितों की हत्याएं हुईं, लेकिन यह बात पूरी तरह से दबा दी गई कि हत्याएं कश्मीरी पंडितों की ही नहीं हुई थीं, बल्कि हज़ारों की संख्या में मुसलमान और कुछ दूसरे वर्गों की भी हुई थीं, जो उस समय घाटी में मौजूद थे. इन हत्याओं का मकसद क्या था, उन हत्याओं की वजह क्या थी, यह बात भी सिरे से पूरी फिल्म में गायब कर दी गई है. ज़ाहिर है, इरादतन ही.

मुसलमानों को ही हर आतंकवाद की जड़ मानने के दौर में यह बात भी कितना दब सी गई है कि घाटी में यदि मुसलमानों का प्रतिशत महज़ दो प्रतिशत था और मुसलमानों का नब्बे-अठ्ठानवे प्रतिशत और तब घाटी में मौजूद हर मुसलमान, हर कश्मीरी पंडित का दुश्मन था, चाहे वह नौजवान रहा हो, औरत रहा हो, यहां तक कि नन्हा सा बच्चा ही क्यों न रहा हो, कश्मीरी पंडितों का घोर शत्रु रहा है तो ये कश्मीरी पंडित उनके साथ घर से घर जोड़कर बनाए गए आशियानों में सदियों से सुरक्षित, ज़िंदा और फलते-फूलते कैसे रह गए?

इन बेहद ख़तरनाक और कपटी क़रार दिए जा रहे मुसलमानों के बच्चे ऐसे कैसे बन गए कि वे कश्मीरी पंडितों के बच्चों के साथ खेल-कूदकर बड़े हो रहे थे? शायद इन सवालों के जवाब देने की ज़िम्मेदारी से विवेक अग्निहोत्री अपनी फिल्म में यह कहने के बावजूद बचना चाहेंगे कि ‘झूठ को दिखाना उतना बड़ा गुनाह नहीं है, जितना सच्ची ख़बर को छिपाना.’

माचिस की ज़रा सी डिबिया में कितनी आग भरी होती है, उससे घर का चूल्हा भी जलाया जा सकता है और घर भी, यह बात माचिस की डिबिया को नहीं समझनी होती, बल्कि माचिस की तीली जलाने वाले को समझनी होती है, इसलिए जब विवेक अग्निहोत्री, द कश्मीर फाइल्स जैसी फिल्म बनाते हैं और जिस ढंग से बनाते हैं तो उन्हें भी इस फिल्म के असर और उस असर से उठने वाले आवेश और उस आवेश की बदौलत घट सकने वाली घटनाओं की ज़िम्मेदारी से पल्ला झाड़ने की छूट नहीं मिल सकती.

उन्हें इसलिए भी जवाब देना ही चाहिए, क्योंकि उनकी फिल्म अनेक राज्यों में टैक्स फ्री कर दी गई है, बॉक्स ऑफिस पर करोड़ों का कारोबार कर रही है और उसके साथ हज़ारों-हज़ार लोगों की भावनाएं ही नहीं, विवेक भी जुड़ते जा रहे हैं.

सवाल विवेक अग्निहोत्री की नीयत पर उठना तय है, इसलिए उम्मीद कर सकते हैं कि जिन कश्मीरी पंडितों के दर्द के वे हमदर्द दिखने की कोशिश में हैं और जो कश्मीरी पंडित धारा 370 हटने के इतने समय बाद भी अपने ही घर के दरवाज़े अब तक नहीं खोल पाए हैं, उनकी घर-वापसी का टिकट सुनिश्चित कराने के लिए विवेक अग्निहोत्री हर फिल्म के ज़रिये कमा रहे एक-एक रुपये को लगा देंगे.

साथ ही जो सरकारें अपनी पूर्ववर्ती सरकारों द्वारा किए गए राहत कार्यों का क्रेडिट ख़ुद हथियाने में जुटी हैं और उन्हीं को आफ़त फैलाने का ज़िम्मेदार बताने का काम कर रही हैं, जो असल में राहत जुटाने के इंतज़ाम करते आए हैं, वे भी अपनी याददाश्त ताज़ा कर सजग-सचेत करने की कोशिश करेंगी कि अगर उनके ख़तरे में आए हिंदू में से कोई हिंदू ठहरकर यह जानने की कोशिश करने लगे कि वह कब, किसकी वजह से, किन कारणों से, किस मंशा के चलते ख़तरे में लाया जा रहा है तो उसकी स्थिति कहीं भस्मासुर जैसी न हो जाए.

ये धरती, ये दुनिया और इस दुनिया के कुछ लोग हमेशा के लिए टीस का इतिहास बनकर रह जाते हैं. बहुत सी औरतों के बदन इस दर्द से और इस दर्द की बदौलत उठने वाले आवेश, बदले की भावना के या फिर जीत के इतिहास की कहानियों से भर दिए जाते हैं.

उसी तरह, जिस तरह से इस फिल्म में कश्मीरी पंडितों की बात करते हुए दिखाया गया और उसी तरह से जैसे बहुत से मामलों में दिखाना तो दूर अभी उस सच और दर्द को स्वीकारा तक नहीं गया, जैसे गुजरात दंगे, भागलपुर दंगे और जैसे बहुत सारे दूसरे युद्ध, दंगे, लड़ाइयां वग़ैरह.

ये युद्ध, ये दंगे, ये बदले की भावनाएं, ये हिंसाएं देती क्या हैं, सिवाय दर्द के और दर्द सिर्फ़ दर्द होता है, जिसे सहने वाला ही जानता है, कहने वाला नहीं. कहने वाले तो अक्सर अपने स्वार्थ और ग़ैर ज़िम्मेदारी से तेज़ से तेज़ दर्द को भी एक कहानी भर बनाकर बेच देते हैं और बॉक्स ऑफिस पर करोड़ों का लाभ कमाने के लिए किसी भी स्तर तक चले जाते हैं.

उनके लिए तानाशाही के विरुद्ध लिखी गई और उम्मीद से भरी हुई ‘फ़ैज़ अहमद फ़ैज़’ की नज़्म ‘लाज़िम है कि हम भी देखेंगे’ को सबसे अश्लीलतम रूप में दिखाना भी ग़लत नहीं है.

पूरे एक समुदाय के बच्चे-बच्चे को उस ज़ुल्म का हिस्सेदार दिखाना ग़लत नहीं है, जो उस समय पैदा भी नहीं हुआ था. अपनी अदूरदर्शिता के चलते किसी भी हद तक चले जाना ग़लत नहीं है.

ऐसे अदूरदर्शी लोग ही दर्द को सामने लाने के नाम पर उसे सनसनीख़ेज़ बनाकर, फ्रंट पेज पर छापकर उसे उस रद्दी में बदल देते हैं, जो अगले दिन भेलपूरी खाने के लिए बनने वाली पुड़िया से लेकर बच्चों का पखाना साफ़ करने तक में इस्तेमाल होता है.

बस नहीं होता है तो उस दर्द के साथ इंसाफ ही नहीं होता है, जिसे अपना स्वार्थ साधने का ज़रिया बना लिया जाता है.

इस्तेमाल करने की नीयत से कहने वाले के लिए किसी का भी दर्द सिवाय लाभ देने के और किसी लायक नहीं होता, चाहे वह फिर वैसे ही किसी दर्द की फिर से वजह क्यों न बन जाए.

तब ये तक भी भुला दिया जाता है कि किसी भी दर्द के सच्चे इंसाफ़ का मतलब है कि वैसा दर्द फिर कभी न दोहराया जाए, फिर कभी न पैदा किया जाए. कम से कम उसकी वजह तो हर्गिज़-हर्गिज़ न बना जाए.

(फोटो साभार: फेसबुक)

फिल्मों को अक्सर यथार्थ से एक मखमली पलायन भी कहा जाता रहा है. हम इंसान, आम इंसान, मौक़े और हालात के चलते अपनी एक ज़िंदगी में हज़ारों ज़िंदगियां जीते हैं और हज़ारों मौतें मरते हैं, इसीलिए हमें ज़िंदगी में मनोरंजन की ज़रूरत पड़ती है.

थियेटर के अंधेरे में हम गाते-गुनगुनाते उम्मीद की एक किरण जगाते हैं और ब्रेक में थियेटर से बाहर निकलकर पॉपकॉर्न और कोल्ड ड्रिंक ढूंढते हैं.

फिर हमने उम्र के साथ ये परिपक्वता भी पाई कि सिनेमा समाज का दर्पण भी होता है, उसे सिर्फ़ यथार्थ से पलायन ही नहीं दिखाना है, बल्कि खरा यथार्थ भी दिखाना है तो हमने ये बात जानी कि हर फिल्म पॉपकॉर्न मूवी नहीं हो सकती, सो हमने सद्गति, दामुल, आवारा, काग़ज़ के फूल, आंधी, अस्तित्व, चांदनी बार, परज़ानिया, देव, फ़िराक़, शिकारा जैसी हज़ारों-लाखों फिल्मों से लेकर हाल ही में जय भीम और सरदार उधम सिंह जैसी फिल्में तक देखीं.

सच का सामना करते और सच को पूरी सच्चाई, कड़वाहट, बेपर्दगी और बेदर्दी के साथ दिखाते विश्व सिनेमा में टैरंटीनो और गैस्पर नोए, रोमन पोलांस्की की द पियानिस्ट जैसी क्रूरतम दृश्यों से भरी फिल्में देखीं और इतिहास ऐसी सैकड़ों फिल्मों से भरा पड़ा है, जब कल्पना का सहारा लेकर सिनेमा स्क्रीन पर सच दिखाती फिल्मों ने देखने वालों की आंखों को नम कर दिया या उनके रोंगटे खड़े कर दिए, लेकिन यह सब एक संतुलन के साथ होता था, ज़िम्मेदारी के साथ होता था.

न तो हम द पियानिस्ट देखने के बाद हर ग़ैर यहूदी के प्रति हिंसा की भावना से भर उठते हैं और न ही सरदार उधम सिंह देखने के बाद हमारा दिल तुरंत उठकर किसी अंग्रेज़ का ख़ून कर देने का कर उठता है, लेकिन द कश्मीर फाइल्स देखने के बाद मामला अलग था.

जब आप सच दिखाने के नाम पर, एक बेहद ख़ौफ़नाक, कड़वी हक़ीक़त को ढेर सारे झूठ में लपेट देंगे तो उसका असर वही होगा, जो द कश्मीर फाइल्स देखते हुए बहुत से लोगों ने महसूस किया और उस मानसिकता में पहुंचा दिए गए कि सच जानने का न होश बाकी रहा, न ज़रूरत.

ये इस फिल्म का सबसे बड़ा कमजोर पक्ष है कि एक विलेन को दिखाने के नाम पर पूरे समुदाय को इस तरह से दोषी दिखा दिया कि लगभग ढाई घंटे की फिल्म में आपको एक भी किरदार ऐसा नहीं मिला, जो उस समुदाय की भलमनसाहत को भी सामने लाने या फिल्म को संतुलित करने का काम करता, नौजवान और प्रौढ़ तो छोड़िए, आपने औरतों और बच्चों तक से इस संतुलन की गुंजाइश छीन ली.

हालांकि आपकी ही इस फिल्म का नायक अंत में अपनी स्पीच में कहता है कि उस हैवानियत के दौर में ग़लत के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने वाले हर शख़्स की आवाज़ को मार डाला गया, जो चाहे किसी भी धर्म, जाति या संप्रदाय का क्यों न रहा हो, आपने अपनी फिल्म में इस बात को, इस सच को नहीं दिखाया, क्योंकि अगर आप ऐसा कर देते तो यह इंसानी भावनाओं का बैलेंस बन जाता कि अच्छे, बहुत अच्छे, बुरे और बहुत बुरे लोग हर जगह, हर समाज और हर वक्त में होते हैं.

दरअसल तब आपका प्रोपेगंडा तो काम करता ही नहीं, क्योंकि तब आप एक ख़ास मकसद से, एक पूरे खास वर्ग के ज़रिये, एक पूरे खास वर्ग पर, एक खास आरोप कैसे मढ़ते.

और वह नीयत भी क्या हो सकती है, यह आप ही के एक समर्थक के एक ट्वीट ने बड़े आराम से समझा दिया कि जाकर द कश्मीर फाइल्स देख आओ. लगभग ढाई घंटे की इस मूवी को देख लेने के बाद आप बेरोज़गारी, शिक्षा, रोजगार, सुरक्षा, स्वास्थ्य वगैरह जैसे मुद्दे भूल जाओगे.

तो क्या आप वही कर रहे थे कि जब सैकड़ों ज़रूरी मुद्दे मुंह बाए खड़े हैं, आपने कश्मीरी पंडितों के दर्द को मोहरा बना लिया. आपने अनजाने ही वह प्रसंग छेड़ दिया है, जिसकी जवाबदेही भी आपकी ही बनती है कि आपने अब तक उनके लिए क्या किया है, सिवाय पहले की सरकार द्वारा किए गए राहत कार्यों का सेहरा अपने सिर बांध लेने की अश्लीलता फैलाने के.

अगर विवेक अग्निहोत्री अपनी इस ग़ैर ज़िम्मेदारी के चलते, अपने माध्यम का दुरुपयोग करते हुए, लोगों की संवेदनशीलता और भावनाओं से खिलवाड़ करते हुए, उसे भड़काकर थियेटर को एक ज्वालामुखी में बदल देना चाहते थे तो आपने कसर सिर्फ़ इतनी ही छोड़ी है कि थियेटर के बाहर काउंटर पर कोल्ड ड्रिंक और पॉपकॉर्न मिलने की बजाय पत्थर और हथियार नहीं बंटवा दिए, ताकि लोग थियेटर से निकलकर तुरंत खुद इंसाफ़ करने में लग जाएं.

और इंसाफ़, यानी जस्टिस, क्या होता है जस्टिस, इंसाफ? इस फिल्म का किरदार भी तो यही सवाल उठाता है न. अतीत में कभी भी किसी एक के किए गए ग़लत कामों को भविष्य में किसी दूसरे द्वारा किए गए ग़लत कामों के आधार पर समर्थन नहीं दिया जा सकता, क्योंकि हर संवेदनशील इंसान जानता है कि अगर आंख के बदले आंख का कानून चलता रहा तो ये पूरी दुनिया ही अंधों से भर जाएगी.

आप किसी एक के आंसू पोंछने के नाम पर इस्तेमाल किए हुए रूमाल को किसी दूसरे का कफ़न बनाना चाहते हैं तो यह सिलसिला इतनी दूर तक चला जाता है कि एक दिन लाशें तो बहुत सारी हो जाएंगी, हां कफ़न ज़रूर कम पड़ जाएंगे.

इंसान के दर्द का इतिहास उतना ही पुराना है, जितना इंसान का. और हम इंसान हैं. कितनी अजीब बात है कि अभी कुछ ही अर्सा पहले जब कोरोना काल में हम इंसान घरों में क़ैद होने को मजबूर थे और जानवर बाहर आ जाने को आज़ाद, तब फिर से बाहर आने का इंतज़ार करते हुए हम उम्मीद करते थे कि अब शायद यह दुनिया अपनी पिछली गलतियों से सबक लेकर एक बेहतर दुनिया बन जाएगी, लेकिन हम ग़लतियों के अंतहीन सिलसिले की तरफ़ फिर से बढ़ चले. ये भूलते हुए भी कि-

ये जब्र भी देखा है तारीख़ की नज़रों ने

लम्हों ने ख़ता की थी, सदियों ने सज़ा पाई.

बनना ही है तो पुराने दर्द का मरहम बनिए,

नए दर्द की वजह नहीं.

pkv games bandarqq dominoqq pkv games parlay judi bola bandarqq pkv games slot77 poker qq dominoqq slot depo 5k slot depo 10k bonus new member judi bola euro ayahqq bandarqq poker qq pkv games poker qq dominoqq bandarqq bandarqq dominoqq pkv games poker qq slot77 sakong pkv games bandarqq gaple dominoqq slot77 slot depo 5k pkv games bandarqq dominoqq depo 25 bonus 25 bandarqq dominoqq pkv games slot depo 10k depo 50 bonus 50 pkv games bandarqq dominoqq slot77 pkv games bandarqq dominoqq slot bonus 100 slot depo 5k pkv games poker qq bandarqq dominoqq depo 50 bonus 50 pkv games bandarqq dominoqq bandarqq dominoqq pkv games slot pulsa pkv games pkv games bandarqq bandarqq dominoqq dominoqq bandarqq pkv games dominoqq