सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित समिति तीनों कृषि क़ानूनों को निरस्त करने के ख़िलाफ़ थी: रिपोर्ट

केंद्र द्वारा निरस्त किए गए तीन कृषि क़ानूनों पर विचार करने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने एक तीन सदस्यीय समिति का गठन किया था. बीते साल सौंपी गई उसकी रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं की गई थी. अब समिति के एक सदस्य अनिल घानवत ने इसे जारी करते हुए कहा कि 85.7 प्रतिशत किसान संगठन क़ानूनों के समर्थन में थे.

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सुप्रीम कोर्ट की समिति में शामिल अशोक गुलाटी, प्रमोद कुमार जोशी और अनिल घनवट. (फोटो साभार: Smart Indian Agriculture/Sarkarnama/naarm.org)

केंद्र द्वारा निरस्त किए गए तीन कृषि क़ानूनों पर विचार करने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने एक तीन सदस्यीय समिति का गठन किया था. बीते साल सौंपी गई उसकी रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं की गई थी. अब समिति के एक सदस्य अनिल घानवत ने इसे जारी करते हुए कहा कि 85.7 प्रतिशत किसान संगठन क़ानूनों के समर्थन में थे.

सुप्रीम कोर्ट की समिति में शामिल अशोक गुलाटी, प्रमोद कुमार जोशी और अनिल घानवत. (फोटो साभार: Smart Indian Agriculture/Sarkarnama/naarm.org)

नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त समिति तीन विवादित कृषि कानूनों को पूरी तरह निरस्त नहीं करने के पक्ष में थी. समिति ने इसके बजाय निर्धारित मूल्य पर फसलों की खरीद का अधिकार राज्यों को देने और आवश्यक वस्तु कानून को खत्म करने का सुझाव दिया था.

इस समिति के तीन सदस्यों में से एक अनिल घानवत ने सोमवार को रिपोर्ट जारी करते हुए यह बात कही.

अनिल घानवत ने कहा कि उन्होंने तीन मौकों पर समिति की रिपोर्ट जारी करने के लिए उच्चतम न्यायालय को पत्र लिखा था, लेकिन कोई जवाब नहीं मिलने के कारण वह इसे खुद जारी कर रहे हैं.

पुणे के किसान नेता घानवत ने कहा कि समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि ‘इन कानूनों को निरस्त करना या लंबे समय तक निलंबन उस खामोश बहुमत के लिए अनुचित होगा जो कृषि कानूनों का समर्थन करते हैं.’

समिति ने कानूनों के क्रियान्वयन और रूपरेखा में कुछ लचीलापन लाने का समर्थन किया. हितधारकों के साथ समिति की द्विपक्षीय बातचीत से जाहिर हुआ कि केवल 13.3 प्रतिशत हितधारक तीन कानूनों के पक्ष में नहीं थे.

घानवत ने कहा, ‘3.3 करोड़ से अधिक किसानों का प्रतिनिधित्व करने वाले लगभग 85.7 प्रतिशत किसान संगठनों ने कानूनों का समर्थन किया.’

संवाददाता सम्मेलन में समिति के दो अन्य सदस्य अर्थशास्त्री अशोक गुलाटी तथा कृषि अर्थशास्त्री प्रमोद कुमार जोशी मौजूद नहीं थे.

समिति ने तीन कृषि कानूनों पर 19 मार्च 2021 को अपनी सिफारिशें सुप्रीम कोर्ट में प्रस्तुत की थीं, जिसमें अन्य बातों के अलावा किसानों को सरकारी मंडियों के बाहर निजी कंपनियों को कृषि उपज बेचने की अनुमति देने की बात कही गई.

उत्तर प्रदेश और पंजाब में विधानसभा चुनाव से पहले पिछले साल नवंबर में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार ने तीनों कृषि कानूनों को निरस्त कर दिया था.

संवाददाता सम्मेलन में घानवत ने कहा कि समिति ने राज्यों को न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) प्रणाली को कानूनी रूप देने की स्वतंत्रता समेत कानूनों में कई बदलावों का भी सुझाव दिया था.

समिति ने यह भी सुझाव दिया था कि ‘ओपन एंडेड’ खरीद नीति को बंद कर दिया जाना चाहिए और एक मॉडल अनुबंध समझौता तैयार किया जाना चाहिए. स्वतंत्र भारत पार्टी के अध्यक्ष घानवत ने कहा कि तीनों कानूनों को निरस्त कर दिया गया है. इसलिए अब इसकी कोई प्रासंगिकता नहीं है.

घानवत के अनुसार, रिपोर्ट से भविष्य में कृषि क्षेत्र के लिए नीतियां बनाने में मदद मिलेगी.

रिपोर्ट के मुताबिक, ऑनलाइन पोर्टल के माध्यम से प्राप्त जवाबों से जाहिर हुआ कि लगभग दो-तिहाई उत्तरदाता कानूनों के पक्ष में थे. ई-मेल के माध्यम से प्राप्त जवाबों से यह भी पता चला कि अधिकतर लोग कानूनों का समर्थन करते हैं.

इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक, रिपोर्ट बताती है कि समिति ने 266 किसान संगठनों को बुलावा भेजा था, जिनमें कृषि कानूनों का विरोध कर रहे किसान संगठन भी शामिल थे.

घानवत ने कहा कि संयुक्त किसान मोर्चा (एसकेएम) के बैनर तले आंदोलन करने वाले 40 संगठनों ने बार-बार अनुरोध करने के बावजूद अपनी राय प्रस्तुत नहीं की.

रिपोर्ट से पता चलता है कि आमंत्रित किए गए 266 किसान संगठनों में से, समिति ने 3.83 करोड़ किसानों का प्रतिनिधित्व करने वाले 73 किसान संगठनों के साथ सीधे बातचीत की, जिनमें से 3.3 करोड़ किसानों (85.7 प्रतिशत) का प्रतिनिधित्व करने वाले 61 किसान संगठनों ने कानूनों का पूरा समर्थन किया. विभिन्न आधिकारिक आकलनों के मुताबिक, भारत में किसानों की संख्या 9 करोड़ से 15 करोड़ के बीच है.

इसके अलावा, समिति ने अपने पोर्टल पर तीनों कृषि कानूनों को लेकर विस्तृत प्रश्नावली पर प्रतिक्रिया मांगी थीं, इस पर 19,027 प्रतिक्रियाएं मिलीं. समिति ने एमएसपी नीति पर फिर से विचार करने और ओपन-एंडेड खरीद को बंद करने की भी सिफारिश की थी.

बता दें कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 19 नवंबर 2021 को राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने की घोषणा करते हुए कहा था कि सरकार कृषि क्षेत्र के सुधार संबंधी लाभों के बारे में विरोध करने वाले किसानों को नहीं समझा सकी.

निरस्त किए गए तीन कृषि कानून – कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) कानून, कृषक (सशक्तीकरण व संरक्षण) कीमत आश्वासन और कृषि सेवा पर करार कानून और आवश्यक वस्तुएं (संशोधन) कानून थे. तीनों कृषि कानूनों को निरस्त करना दिल्ली की सीमाओं पर विरोध प्रदर्शन करने वाले 40 किसान संगठनों की प्रमुख मांगों में से एक था.

विरोध प्रदर्शन नवंबर 2020 के अंत में शुरू हुआ और संसद द्वारा तीन कानूनों को निरस्त करने के बाद समाप्त हुआ. कानून जून 2020 में एक अध्यादेश के जरिये लागू हुए थे और बाद में उन्हें सितंबर 2020 में संसद द्वारा मंजूरी दे दी गई थी.

नवंबर 2021 में कानूनों को निरस्त कर दिया गया. हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने जनवरी 2021 में कानूनों के अमल पर रोक लगा दी थी और साथ ही समिति के गठन का आदेश दिया था.

एमएसपी प्रणाली को कानूनी रूप देने की किसान संगठनों की मांग पर समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि मांग ठोस तर्क पर आधारित नहीं थी और इसे लागू करना संभव नहीं है.

रिपोर्ट में कहा गया, ‘उत्पादित किसी भी उत्पाद को व्यावहारिक मूल्य पर व्यापार करने की आवश्यकता होती है. विशेष रूप से फसल के समय कीमतों में किसी भी तरह की अनुचित गिरावट से किसानों को बचाने के लिए एमएसपी एक सांकेतिक न्यूनतम मूल्य है. सरकार के पास उन सभी 23 वस्तुओं को खरीदने के लिए खजाना नहीं है जो वर्तमान में एमएसपी के दायरे में हैं.’

रिपोर्ट में कहा गया कि जैसा कि हरित क्रांति के समय अनाज के लिए एमएसपी और खरीद समर्थन नीति बनाई गई, इस पर फिर से विचार करने की आवश्यकता है क्योंकि गेहूं और चावल का भारी अतिरिक्त भंडार तैयार हुआ है.

रिपोर्ट में कहा गया है, ‘गेहूं और चावल के लिए, खरीद पर सीमा होनी चाहिए जो जन वितरण प्रणाली (पीडीएस) की जरूरतों के अनुरूप हो. ‘ओपन एंडेड’ खरीद नीति को बंद करने की आवश्यकता है क्योंकि यह कृषि उत्पादन की संरचना को बदल रही है.’

समिति ने कम से कम दस साल आगे कैसे बढ़ना है, इस पर कुछ विकल्प दिए. रिपोर्ट में कहा गया, ‘समिति ने जिन विकल्पों पर विचार-विमर्श किया, उनमें से एक यह है कि केंद्र सरकार द्वारा राज्यों में गेहूं व चावल की खरीद, भंडारण एवं पीडीएस पर उत्पादन, खरीद और गरीबी को उचित महत्व देने वाले उद्देश्य के आधार पर वर्तमान खर्च आवंटित किया जाए.’

रिपोर्ट के मुताबिक, ‘राज्यों को अपने-अपने क्षेत्र में किसानों का सहयोग करने और गरीब उपभोक्ताओं की रक्षा करने के लिए अपना स्वयं का दृष्टिकोण विकसित करने की स्वतंत्रता दी जानी चाहिए.’

घानवत ने कहा कि वह जल्द ही कृषि नीति पर एक चर्चा पत्र लेकर आएंगे और कृषि सुधारों को आगे बढ़ाने के लिए राष्ट्रीय राजधानी में अक्टूबर में दिल्ली में एक लाख से अधिक किसानों की एक रैली भी आयोजित करेंगे.

वहीं, टाइम्स नाउ के मुताबिक किसान आंदोलन के नेतृत्वकर्ताओं में से एक रहे भारतीय किसान यूनियन के राकेश टिकैत ने इस संबंध में प्रतिक्रिया देते हुए कहा है कि रिपोर्ट में क्या आने वाला है, यह सबको पता था. सवाल यह है कि रिपोर्ट सार्वजनिक क्यों नहीं की गई?

टिकैत ने कहा कि हकीकत में किसानों को कई खेमों में तोड़ने की साजिश रची जा रही है. साथ ही उन्होंने ट्विटर के माध्यम से अनिल घानवत को केंद्र सरकार की कठपुतली करार दिया.

 

उन्होंने ट्वीट में लिखा, ‘तीन कृषि कानूनों के समर्थन में घानवत ने सुप्रीम कोर्ट को सौंपी रिपोर्ट सार्वजनिक कर साबित कर दिया कि वे केंद्र सरकार की ही कठपुतली थे. इसकी आड़ में इन बिलों को फिर से लाने की केंद्र की मंशा है तो देश में और बड़ा किसान आंदोलन खड़े होते देर नहीं लगेगी.’

दूसरी और, घानवत ने इंडियन एक्सप्रेस को दिए साक्षात्कार मे कहा है, ‘एक वर्ष से अधिक समय तक रिपोर्ट धूल खाती रही, इससे उन्होंने अपमानित महसूस किया.’

जब घानवत से पूछा गया कि उन्होंने रिपोर्ट सार्वजनिक क्यों की और समिति के दो अन्य सदस्यों का क्या मत था, तो उन्होंने बताया, ‘एक साल पहले हमारी समिति ने सीलबंद लिफाफे में रिपोर्ट सुप्रीम कोर्ट को सौंप दी थी. मैंने तीन बार चीफ जस्टिस को रिपोर्ट सार्वजनिक करने के लिए लिखा. जहां तक समिति के दो अन्य सदस्यों की बात है तो वे अर्थशास्त्री और शिक्षाविद हैं. उनका काम समिति सदस्य के तौर पर जानकारी जुटाना और उसका अध्ययन करना था. एक बार वो हो गया, तो उन्हें लगा कि उनका काम खत्म हो गया. लेकिन एक किसान नेता और खुद किसान होने के चलते मैंने महसूस किया कि मेरा मत समिति के सिर्फ एक सदस्य से कहीं अधिक था. इसलिए रिपोर्ट को सार्वजनिक करके मैं इस बारे में आम चर्चा को शुरू करना चाहता हूं.’

साथ ही उन्होंने आगे कहा कि सरकार इस रिपोर्ट को गंभीरता से नहीं लेगी क्योंकि अब कृषि कानून वापस ले लिए गए हैं.

उन्होंने कहा कि उनकी रिपोर्ट देश में कृषि नीति बनाने पर चर्चा शुरू करेगी, भारत एक कृषि प्रधान देश माना जाता है लेकिन यहां कृषि नीति तक नहीं है. आशा है कि इस दिशा में यह पहला कदम होगा.

(समाचार एजेंसी भाषा से इनपुट के साथ)