जन्मदिन विशेष: महादेवी वर्मा जीवन भर व्यवस्था और समाज के स्थापित मानदंडों से लगातार संघर्ष करती रहीं और इसी संघर्ष ने उन्हें अपने समय और समाज की मुख्यधारा में सिर झुकाकर भेड़ों की तरह चुपचाप चलने वाली नियति से बचाकर एक मिसाल के रूप में स्थापित कर दिया.
ज़िंदगी की आपाधापी और रोज़मर्रा की व्यस्तता में जिस प्रकार से हमारे तमाम दिन गुज़र जाते हैं, ऐसे में एकबारगी हमें कोई वजह नहीं मिलती कि किसी दिन विशेष को याद भी रखा जाए. पर महादेवी वर्मा, जिनके जन्म के नाम पर आज की तारीख (26 मार्च) दर्ज़ है, भारतीय साहित्य का वह अविस्मरणीय व्यक्तित्व हैं, जिन्हें उनकी 115वीं वर्षगांठ पर याद करना कई दृष्टियों से प्रासंगिक है.
महादेवी की रचनाओं को उम्र के अलग-अलग पड़ावों पर पढ़ते हुए उनके व्यक्तित्व और साहित्य को दी गई उनकी विरासत पर नए पहलू से विचार करने की आवश्यकता महसूस होने लगती है, जो मेरी दृष्टि में किसी भी रचनाकार के प्रासंगिक और कालातीत बने रहने का बड़ा आधार है.
प्रेम और वेदना की अमर गायिका के रूप में प्रचलित कवयित्री की रचनाएं समसामयिक संदर्भों में स्त्री-अधिकारों को भी वाणी देने का कार्य कर सकती है, यह उनकी रचनाओं से ही पता चलता है. ऐसा लगता है कि स्त्री मुक्ति के तमाम संघर्षों में महादेवी की पंक्तियों को नारे की तरह उपयोग किया जा सकता है.
‘तू न अपनी छांह को अपने लिए कारा बनाना!
जाग तुझको दूर जाना!’
स्त्रीवादी विमर्श या फेमिनिज़्म आज भले ही महानगरीय जीवन में बहुत ही आम बात लगती है और स्त्रियों के अधिकारों की चर्चा लिविंग रूम की बैठकों और कॉफी हाउसों की बहसों का एक रूटीन अंग लगता हो. आज महिलाओं की सामाजिक स्थिति पर सोच पाना और इसके संदर्भ में सक्रियता दिखाना सहज लगता है, पर क्या हम ये कल्पना कर सकते हैं कि 1920-30 के दशक में वर्तमान महानगरों से कहीं बहुत दूर के कस्बाई इलाकों में कोई स्त्री महिला के अधिकारों की बात को न केवल अपनी लेखनी में उठा रही थी, बल्कि स्वयं अपनी विचारधारा की एक जीवंत तस्वीर थी.
महादेवी वर्मा को उनके व्यक्तित्व की विशिष्टता के लिए ही आधुनिक समय की मीरा कहा गया. जिस तरह से मीरा अपने मध्यकालीन समाज में विद्रोह और प्रतिरोध का प्रतीक थीं, कहीं-न-कहीं, महादेवी स्वयं जीवन भर व्यवस्था और समाज के स्थापित मानदंडों से लगातार संघर्ष करती रहीं और इसी संघर्ष ने उन्हें अपने समय और समाज की मुख्यधारा में सिर झुकाकर भेड़ों की तरह चुपचाप चलने वाली नियति से बचाकर एक मिसाल के रूप में स्थापित कर दिया.
एक संभ्रांत और शिक्षित परिवार से संबंध रखने वाली महादेवी की शादी तकरीबन नौ वर्ष की उम्र में ही कर दी गई थी, जिसकी स्मृति कुछ इन शब्दों में वह दर्ज़ करती हैं:
‘बारात आई तो बाहर भागकर हम सबके बीच खड़े होकर बारात देखने लगे. व्रत रखने को कहा गया तो मिठाई कमरे में बैठकर खूब मिठाई खाई. रात को सोते समय नाउन ने गोद में लेकर फेरे दिलवाए होंगे, हमें कुछ ध्यान नहीं है. प्रातः आंख खुली तो कपड़े में गांठ लगी देखी तो उसे खोलकर भाग गए.’
इसे महादेवी का विद्रोही मन ही कहा जाए या अति-संवेदनशील हृदय, अपने पति के साथ वो कभी नहीं रहीं और वैवाहिक जीवन के प्रति उदासीन ही बनी रहीं.
कई अटकलें लगाई जाती हैं कि महादेवी कुरूप थीं और अपने पति को पसंद नहीं थी. कारण जो भी रहा हो, पर हतप्रभ करने वाली बात यह थी कि उस समय में जब समाज में एक स्त्री के विवाहित होते हुए भी यूं पति से अलग रहने को एक अभिशाप की तरह देखा जाता था, वैसे समय में न केवल महादेवी ने यह कदम उठाया बल्कि अपने जीवन को अपने ऊंचे आदर्शों और मूल्यों की कसौटी पर खरा रखते हुए जिया.
‘महादेवी का जीवन तो एक संन्यासिनी का ही जीवन बना रहा. उन्होंने जीवन भर श्वेत वस्त्र पहना, तख्त पर सोईं और कभी शीशा नहीं देखा.’
ये तो हुई महादेवी के निजी जीवन के संघर्षों की गाथा जिसने उन्हें बड़े-से-बड़े चट्टानों से टकराने का साहस दिया, अगर दृष्टि उनके बाह्य जीवन या कार्यक्षेत्र की ओर डालें तो यहां भी कुछ बहुत बड़ी उपलब्धियां उनके साथ जुड़ी हुई हैं.
महादेवी का कार्यक्षेत्र लेखन, संपादन और अध्यापन से जुड़ा रहा. छायावादी कविता के विस्तृत आकाश में नीहार (1930), रश्मि (1932), नीरजा (1933), सांध्यगीत (1935), दीपशिखा (1942), अग्निरेखा (1988) जैसे महादेवी के काव्य संग्रह अपनी छायावादी रहस्यात्मक काव्यात्मकता के लिए जितने चर्चित हुए, स्मृति की रेखाएं (1943), पथ के साथी (1956), अतीत के चलचित्र (1961), जैसी गद्य विधाओं के माध्यम से भी हिन्दी साहित्य को आजीवन उन्होंने समृद्ध किया.
इलाहाबाद में प्रयाग महिला विद्यापीठ के विकास में उनका अभिन्न योगदान रहा. महिलाओं की शिक्षा को समर्पित इस प्रकार की किसी संस्था का आना अपने समय में महिला-शिक्षा के क्षेत्र में क्रांतिकारी कदम था.
उन्होंने संपादन की दुनिया में महिलाओं की उपस्थिति दर्ज करने में भी अभूतपूर्व भूमिका निभाई, जब 1923 में हिन्दी की महत्वपूर्ण पत्रिका ‘चांद’ के संपादन का कार्य महादेवी ने संभाला. भारत में महिला कवि सम्मेलनों की नींव रखने का भी श्रेय भी उन्हें ही दिया जाता है. महादेवी की पहल पर ही पहला अखिल भारत वर्षीय कवि सम्मेलन 15 अप्रैल 1933 को प्रयाग महिला विद्यापीठ में संपन्न हुआ.
ऊपर कही गई तमाम उपलब्धियों को सुनकर हमें महादेवी को सिर्फ एक कर्मठ कार्यकर्ता के रूप में समझने की भ्रांति हो सकती है. परंतु क्या महादेवी को सिर्फ उनके किए गए योगदान के लिए ही जानना चाहिए? क्या एक पुरुष प्रधान समाज में किसी महिला द्वारा किए गए काम को बस इसीलिए तारीफ मिलनी चाहिए कि ये सारे काम एक महिला के द्वारा किए गए हैं?
मेरी दृष्टि में इस तरह के तर्क न केवल महादेवी को एक व्यक्ति के तौर पर उनके विचार करने की क्षमता से अलग कर देंगे, बल्कि उन्हें बस उनकी उपलब्धियों के पीछे छुपा देंगे. जबकि सच तो यह है कि आज 2022 में अगर महादेवी वर्मा को याद करने की जरूरत है तो वह ‘व्यक्ति’ महादेवी के अपने समय और परिवेश से कहीं ज्यादा आगे चलने वाले विचारों की वजह से है.
चाहे वह अपने रचना-संसार के माध्यम से प्रेम की एक प्लेटोनिक परिभाषा गढ़ने का कार्य हो (जब असीम से हो जाएगा/मेरी लघु सीमा का मेल/देखोगे तुम देव!अमरता/ खेलेगी मिटने का खेल!) या फिर वेदना और दुख की स्थितियों में भी मानवता को बनाए रखने का उनका प्रस्ताव (पथ न भूले, एक पग भी/ घर न खोए, लघु विहग भी/स्निग्ध लौ की तूलिका से/आंक सबकी छांह उज्ज्वल), महादेवी अपने समय की वैचारिकता का एक प्रमुख स्तंभ थीं.
महादेवी के स्त्री-संबंधी विचारों के लिए मेरे खयाल से हर पाठक को ‘शृंखला की कड़ियां’ पढ़नी चाहिए, क्योंकि 1942 में लिखी गई इस किताब को पढ़ते वक़्त हर पल यह महसूस होता है कि कैसे कोई उस समय, जब हमारा भारतीय समाज स्त्रियों और उनकी अस्मिता के प्रश्नों पर किसी विकसित विचारधारा और सैद्धांतिकी की बात तो दूर, उन पर खुलकर चर्चा भी नहीं कर पाता था, महिलाओं से जुड़े प्रश्नों को उठा रहा था?
कई अर्थों में महादेवी की यह रचना महिला-मुक्ति और महिलाओं के पुरुषों के समान अधिकारों की मांग करने वाला पहला सुनियोजित प्रयास माना जा सकता है. आज हम कामकाजी महिलाओं पर पड़ने वाले दोहरे बोझ की बात करते हैं , पर महादेवी उस दौर में सर्वहारा वर्ग की महिलाओं के संदर्भ में अपनी चिंता व्यक्त करते हुए कहती है:
‘श्रमजीवी श्रेणी की स्त्रियों के विषय में तो कुछ विचार करना भी मन को खिन्नता से भर देता है. उन्हें गृह का कार्य और संतान का पालन करके भी बाहर के कामों में पति का हाथ बंटाना पड़ता है. सवेरे 6 बजे गोद में छोटे बालक को तथा भोजन के लिए एक मोटी काली रोटी लेकर मजदूरी के लिए निकली हुई स्त्री जब संध्या के 7 बजे घर लौटती है तो संसार भर का आहत मातृत्व उसके शुष्क ओठों में कराह उठता है. उसे श्रांत शिथिल शरीर से फिर घर का आवश्यक कार्य करते और उसपे कभी-कभी मद्यप पति के निष्ठुर प्रहारों को सहते देख कर करुणा को भी करुणा आए बिना नहीं रहती.’
इसी तरह, मध्यमवर्गीय गृहस्थ महिला की स्थिति पर महादेवी के विचार सुन कर ऐसा लगता है मानों आज भी स्थितियां कमोबेश वही तो हैं, भले ही उनके रूप थोड़े बदले हुए हों, आधुनिकता के संसाधनों से रंगे-छुपे हुए:
‘मध्यम श्रेणी की महिलाओं को गृह के इतर और महत्वपूर्ण दोनों प्रकार के कार्यों से इतना अवकाश ही नहीं मिलता कि वे कभी अपनी स्थिति पर विचार कर सके. जीवन के आरंभिक वर्ष कुछ खेल में, कुछ गृह-कार्यों के सीखने में व्यतीत कर जब से वे केवल शाब्दिक अर्थवाले अपने गृह में चरण रखती हैं , तब से उपेक्षा और अनादर की अजस्र वर्षा में ठिठुरते हुए मृत्यु के अंतिम क्षण गिनती रहती हैं. स्वत्वहीन धनिक महिलाओं को यदि सजे हुए खिलौने बनकर रहने का सौभाग्य प्राप्त है तो साधारण श्रेणी की स्त्रियों को क्रीत दासी का दुर्भाग्य.’
भारतीय समाज की पुरुष-प्रधानता कोई नई बात नहीं है और ज़ाहिर है कि तथाकथित आधुनिकता की आड़ में आज भले हम अपने समाज के बदलने की बात करते हों, या फिर पुरुषों के उदार या प्रगतिशील हो जाने की बात करते हों, पर महादेवी के समय में इस तथाकथित आधुनिकता का प्रवेश भारतीय या यूं कह लें, पूरे दक्षिण-एशियाई समाज में बहुत कम था या था भी तो उसके लाभार्थी समाज के उच्च वर्ग ही रहे होंगे. (हालांकि उच्च वर्गों की महिलाओं के लिए भी समाज की जकड़न बराबर ही थी, हां शिक्षित उच्च वर्गीय पुरुष महिला अधिकारों की ज़बानी हिमायत करते होंगे.) महादेवी भी अपने समय व समाज के संदर्भ में कहती हैं:
‘इस समय हमारे समाज में केवल दो प्रकार की स्त्रियां मिलेंगी- एक वे जिन्हें इनका ज्ञान ही नहीं है कि वे भी एक विस्तृत मानव-समुदाय की सदस्य हैं, और उनका भी एक ऐसा स्वतंत्र व्यक्तित्व है, जिसके विकास से समाज का उत्कर्ष और संकीर्णता से अपकर्ष संभव है; दूसरी वे जो पुरुषों की समता करने के लिए उन्हीं के दृष्टिकोण से संसार को देखने में, उन्हीं के गुणावगुणों का अनुकरण करने में जीवन के चरम लक्ष्य की प्राप्ति समझती हैं.’
इन पंक्तियों को पढ़कर वाकई उस समय का समाज और उसकी सीमित परिधि का पता लगाया जा सकता है, परंतु अगर हम आज के समाज पर भी मंथन करें तो मन सच में इस प्रश्न से जूझने लगता है कि स्थितियों में परिवर्तन क्या सच में हुआ है और अगर हुआ भी है तो उसके प्रमाण क्यों बहुत नहीं मिलते?
महादेवी के स्त्री-संबंधी विश्लेषणों को जान कर लगता है, मानों हम सिमोन द बोउआर (1908-1986) को पढ़ रहे हों जो लगभग उसी दौर में द सेकेंड सेक्स लिख रहीं थी. सिमोन भी तो स्त्री की मुक्ति को सिर्फ एक विचार की तरह नहीं बल्कि एक सक्रिय आंदोलन की तरह उठाना चाहती थीं- यथार्थ बनाना चाहती थीं.
वह स्त्री और पुरुषों की दैहिक असमानता को सामाजिक असमानता का कारण नहीं बनने देना चाहतीं और वही प्रश्न उठाती हैं जो महादेवी के भी विचार थे: ‘क्यों नारी को हमेशा यह आश्वासन दिया गया हैं कि वे कमज़ोर हैं और उन्हें स्थिर व स्वाभाविक रहने के लिए पुरुषों के मार्गदर्शन पर चलना चाहिए?’
महादेवी भी महिलाओं की शिक्षा को उनके हालात बदलने का सबसे बड़ा शस्त्र मानती हैं, क्योंकि उनकी अज्ञानता ही उन्हें अपनी स्थिति पर विचार करने और अपने अधिकारों की मांग करने से वंचित रखती है. पर साथ ही यह भी बखूबी समझती हैं कि किसी बड़े परिवर्तन को लाने के लिए किसी-किसी को ही बड़े त्याग करने होते हैं, और इसलिए ऐसे लोग अपवाद बन जाते हैं.
ऐसे में वह कुछ एक महिलाओं के सशक्तिकरण की नहीं बल्कि समाज के हर वर्ग की महिलाओं के लिए अपने आस-पास के अपवादों से प्रेरणा ग्रहण करने का आग्रह करती है:
‘संसार के बड़े-से-बड़े, असंभव-से-असंभव परिवर्तन आदि में इने-गिने व्यक्ति ही रहते हैं, शेष असंख्य तो कुछ जानकर और कुछ अनजाने में ही उनके अनुकरणशील बन जाया करते हैं.’
बहरहाल, महादेवी को याद करते हुए खुद उन्हीं की कही गई बात याद आने लगती है कि सच में संसार के बड़े-से-बड़े परिवर्तन में कुछ गिने-चुने व्यक्ति ही तो होते हैं, क्योंकि समाज की भीड़ के साथ उफान खाती नदी के सुरक्षित किनारे पर खड़े होकर तलहटी के मोती नहीं मिलते. कुछ गिने-चुने ही डुबकी लगाने का साहस रखते हैं और महादेवी वर्मा उसी साहस की जीवंत मिसाल थीं.
(अदिति भारद्वाज दिल्ली विश्वविद्यालय में शोधार्थी हैं.)