नदी पुत्र: निषाद समुदाय के इतिहास की छानबीन करती किताब

पुस्तक समीक्षा: रमाशंकर सिंह की किताब ‘नदी पुत्र: उत्तर भारत में निषाद और नदी’ हाल ही में प्रकाशित होकर आई है. इस किताब में नदियों के साथ जुड़ीं निषाद समुदाय की स्मृतियों, ऐतिहासिक दावेदारियों, सामाजिक गतिशीलता, अपवंचना और बहिष्करण के तत्वों की पड़ताल की गई है.

/
(साभार: सेतु प्रकाशन)

पुस्तक समीक्षा: रमाशंकर सिंह की किताब ‘नदी पुत्र: उत्तर भारत में निषाद और नदी’ हाल ही में प्रकाशित होकर आई है. इस किताब में नदियों के साथ जुड़ीं निषाद समुदाय की स्मृतियों, ऐतिहासिक दावेदारियों, सामाजिक गतिशीलता, अपवंचना और बहिष्करण के तत्वों की पड़ताल की गई है.

(साभार: सेतु प्रकाशन)

निषाद समुदाय के बारे में जब सामान्य लोग सोचते हैं या बात करते हैं तो उन्हें लगता है कि वे केवल नदी में नाव चलाते हैं और उनका जीवन बहुत ही शांत रहता होगा. ऐसा नहीं है. उनके जीवन में दिक्कतें हैं और उन्हें भी परेशानी का सामना करना पड़ता है.

उनका जीवन कैसा है और उनकी परेशानी कैसी है, वे किस तरह एक असमान दुनिया में अर्जी, आंदोलन और प्रतिरोध का सहारा लेकर अपना वर्तमान बदलना चाहते हैं, इसे जानने के लिए रमाशंकर सिंह की किताब ‘नदी पुत्र: उत्तर भारत में निषाद और नदी’ एक महत्वपूर्ण काम है, जो अभी हाल ही में प्रकाशित हुआ है.

मार्च 2022 में संपन्न हुए उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव ने पूरी दुनिया का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया है. इसमें निषाद समुदाय की भूमिका को सभी राजनीतिक दलों ने समझा और उन्हें टिकट दिया.

भारतीय जनता पार्टी, समाजवादी पार्टी, कांग्रेस, बसपा ने निषाद समुदाय में शामिल विभिन्न जातियों को टिकट दिया. विकासशील इंसान पार्टी और निषाद पार्टी ने स्वयं चुनाव लड़ा. निषाद पार्टी ने न केवल भाजपा का समर्थन किया, बल्कि अपने लिए सीटें भी जीत ली हैं.

इसके अतिरिक्त सीएसडीएस लोकनीति का चुनाव उपरांत सर्वे दिखाता है कि अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल जातियों ने निषादों का ही ऐसा वर्ग था, जिसने 2017 की अपेक्षा 2022 में 11 प्रतिशत कम समर्थन दिया.

चूंकि यह किताब चुनावी राजनीति के बारे में नहीं है, लेकिन इसके अंतिम अध्यायों को पढ़ने से पाठक को यह पता लगता है कि कैसे निषादों ने एक सुपरिभाषित जातीय इतिहास और संस्कृति के द्वारा एक बहुत ही सक्रिय राजनीतिक समाज का निर्माण किया है.

यह सब कैसे हुआ और एक ‘राजनीतिक समुदाय’ के रूप में निषाद यहां तक कैसे आए हैं-  यह बात ‘नदी पुत्र’ में लगभग 3500 वर्षों के इतिहास की छानबीन के बाद बताई गई है.

निषाद समुदाय पर पूर्व में कई अध्ययन हो चुके हैं. समाजशास्त्री स्मिता तिवारी-जस्सल और ऑस्ट्रेलियन नेशनल यूनिवर्सिटी के अस्सा डोरोन का काम इस दिशा में महत्वपूर्ण काम माना जाता है.

यह आधारभूत रूप से बनारस के निषादों का मानव वैज्ञानिक अध्ययन हैं. इन अध्ययनों में यह कमी रही है कि वे निषादों को सीमित परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करते हैं और यह उनकी राजनीतिक गोलबंदी से काफी समय पहले हुए हैं.

यह अध्ययन निषादों के व्यापक धरातल पर पहुंचने की कोशिश की एक संवेदनशील पड़ताल है. इस किताब के लेखक ने नदियों के साथ जुड़ीं निषाद समुदाय की स्मृतियों, ऐतिहासिक दावेदारियों, सामाजिक गतिशीलता, अपवंचना और बहिष्करण के तत्वों की पड़ताल की है.

लेखक ने पाठ आधारित सामग्री, नृवंशविज्ञान आधारित शोध, अभिलेखागार सामग्री और निषादों के आत्म इतिहास के बेहतरीन समन्वय के द्वारा इसे रोचक और इतिहास लेखन में हस्तक्षेपकारी बना दिया है.

सात अध्यायों में विभाजित यह किताब प्राचीनकाल से लेकर समकाल तक की यात्रा करती है. यह जाति के उद्भव, उससे उपजे बहिष्करण, कलंकीकरण और अस्पृश्यता को विश्लेषित करती हुई प्राकृतिक संसाधनों पर हकदारी के विभिन्न पहलुओं और उनके आधुनिक लोकतंत्र में गोलबंद होने की प्रक्रिया को दर्ज करती है.

प्राचीन भारत के संदर्भ में हुए इतिहास लेखन को देखे तो उसमें कृषि और उसके आसपास विकसित संस्कृति का अध्ययन केंद्र में दिखाई देता है. प्राचीन भारत में होने वाले परिवर्तनों का आधार कृषि और उससे उपजे अधिशेष को ही माना गया.

अन्य प्राकृतिक संसाधनों और उनकी सामाजिक सहभागिता की खोज कम दिखाई देती है. यह किताब इस दायरे को तोड़कर प्राचीन भारत में नदियों और निषादों के सामाजिक-सांस्कृतिक सहजीवन को देखती है.

लेखक ने नदी परिस्थितिकी तंत्र को इतिहास के एक ऐसे दायरे के रूप में देखा है, जहां एक ही साथ कई इतिहास बनते हैं. यह दायरे अभी शोध की दृष्टि में अनुपस्थित हैं. ऐसे ही कई अन्य शोध अंतरात को चिह्नित किया गया है जो आगामी समय में शोध का महत्वपूर्ण विषय हो सकते हैं.

भारतीय समाज विज्ञान और इतिहास लेखन में मनुष्य और संसाधनों के बीच विकसित संबंधों को उपेक्षित किया है. नदियों का अध्ययन बांध, प्रदूषण, कर्मकांड, नदी घाटी परियोजनाओं के केंद्र में होता रहा है. नदियों के किनारे रहने वाली करोड़ों की आबादी इस अध्ययन से अछूती रही है. यह दिखाता है कि भारतीय समाज विज्ञान को अभी कितना समावेशी और न्यायपूर्ण होना है. यह किताब इसी समावेशन की प्रक्रिया को आगे बढ़ाती है.

गंगा नदी की सांस्कृतिक, धार्मिक और लौकिक छवियों की लेखक ने पहचान की है. एक हाशिये पर आधारित समुदाय अपना आत्म इतिहास, स्मृति और दावेदारी की रचना कैसे करता है, लेखक ने इसका सैद्धांतिकरण किया है.

यह किताब जाति व्यवस्था की समझ के बनने और उसमें शूद्रों की सामाजिक स्थिति को रेखांकित करते हुए जाति संबंधी पूर्वमान्यताओं का विवरणात्मक विवेचन करती है.

इस क्रम में निषाद इतने ताकतवर नजर आते हैं कि वह चतुरंगिनी सेना से लड़ने को तैयार हैं, कभी इतने गरीब हैं कि उन्हें सहरी मछली भी नसीब नहीं होती है.

लेखक ने नदी और सामाजिक व्यवस्था में निषादों के एक समुदाय के रूप में उदय तथा उनकी सामाजिक, सांस्कृतिक छवियों, अस्पृश्यता, वंचना और सामुदायिक दावेदारियों को पाठ आधारित सामग्री वेद, पुराण, स्मृतियों और विभिन्न रचनाओं के माध्यम से देखा है. पाठ आधारित सामग्री में निषाद वीर भी हैं और साथ ही अस्पृश्यता और वंचना के शिकार भी हैं.

निषादों के सामुदायिक अधिकारों की बात करते हुए लेखक ने बिहार के भागलपुर में 1982 में प्रारंभ हुए ‘गंगा मुक्ति आंदोलन’ का जिक्र किया है. इस आंदोलन की मांग भी नदीय पर्यावरण को संरक्षित और सुरक्षित करने की थी. लेकिन विडंबना देखिए कि जहां चिपको आंदोलन को अंतरराष्ट्रीय पटल पर जगह मिली, उसे कुछ बेहतरीन इतिहासकार मिले, वहीं इसी तरह के दूसरे अन्य आंदोलनों पर किसी का भी ध्यान नही गया.

इलाहाबाद और बनारस में हुए नदीय आंदोलनों पर इस तरह के अध्ययनों का अभाव था. इसे यह किताब पूरा करती है. इसे इस किताब की उपलब्धि कहा जाना चाहिए.

आगे के अध्यायों में किताब निषादों के जीवन को औपनिवेशिकता और समकालीनता के परिप्रेक्ष्य में विवेचित करती है. औपनिवेशिक शासन के द्वारा बनाए गए कानूनों ने कैसे विभिन्न समुदायों के हाशियाकरण और कलंकीकरण को भारत में विद्यमान प्रथाओं से जोड़ दिया, इस तथ्य का विशद विश्लेषण किया गया है.

अभिलेखागारीय इतिहास से उच्चस्तरीय इतिहास लेखन क्षमता का परिचय देते हुए रमाशंकर सिंह ने ‘आपराधिक जनजातीय कानून’ के कार्यान्वयन और उसकी औपनिवेशिक आवश्यकता की गहन पड़ताल की है.

यह इस किताब का सबसे खूबसूरत अध्याय है, जहां पर उन्होंने निषादों के आरंभिक इतिहास, ब्रिटिश उपनिवेश से उनकी मुठभेड़ और उनकी वर्तमान जिंदगी को जोड़ दिया है.

लेखक ने समकालीन भारत में निषादों के जीवन की चुनौतियों, नदी पर हकदारी के सवालों और नदियों के किनारे विकसित नदीय अर्थव्यवस्था में उनकी भूमिका को विश्लेषित किया है.

विभिन्न विवरणों के द्वारा लेखक ने निषाद समुदाय की पहचान एक ऐसे करदाता समुदाय के रूप मे की है, जिसकी उपेक्षा प्राचीन राज्यों से लेकर औपनिवेशिक राज्य भी नहीं कर सकता था.

वे इस देश के लिए धन, समृद्धि और संसाधनों का निर्माण करते थे और आधुनिक समय में उन्हें एक बेहद कमजोर, पिछड़े और निष्क्रिय समाज के रूप में चित्रित किया गया.

यह किताब निषादों की इसी परंपरागत छवि को तोड़ती है. व्यास, एकलव्य, फूलन देवी जैसे नायकों की मदद से यह समुदाय अपने भविष्य की ईमारत गढ़ रहा है.

यह किताब निषाद राजनीति की कच्ची सामग्री से हमें परिचित कराती है. किताब के एक महत्वपूर्ण भाग के रूप में नदियों पर आधारित समुदाय की आजीविका को पर्यावरण के संकट के आलोक में देखने का प्रयास किया गया है.

यहां बताया गया है कि पर्यावरण के संकट ने कैसे वैश्विक स्तर पर नदी, पर्वत, पठार और विभिन्न पारिस्थितिक स्थलों के रहवासियों के जीवन को संकट में डाला है. इन समुदायों ने मुक्ति के लिए अर्जी और आंदोलन का सहारा लिया है.

लेखक ने परंपरागंत इतिहास-लेखन से अलग हटकर लोक, शास्त्र और स्मृति में गंगा नदी और नदीय समुदायों को विवेचन किया है.

लेखक ने गंगा नदी को तीन समूहों की दृष्टि से देखने की कोशिश की है- निषाद, आमजन और राज्य. यह तीनों अलग-अलग दृष्टिकोण से नदी को देखते रहे हैं. तीनों के विचारों में सामंजस्य नहीं दिखता हैं. राज्य द्वारा नदी से संबंधित किसी भी नीति से समुदायों को बाहर रखता है.

रमाशंकर सिंह लिखते हैं कि किसी भी प्राकृतिक संसाधन को लेकर बनाई जाने वाली नीति में उन समुदायों को जरूर शामिल लिया जाना चाहिए जो इन संसाधनों पर किसी भी तरह निर्भर हैं.

इसी तर्क के आधार पर कहा गया है कि गंगा को लेकर बनने वाली किसी भी नीति में निषाद समुदाय को शामिल किया जाना चाहिए और उनके सामुदायिक ज्ञान को सम्मान दिया जाना चाहिए.

वे आगे कहते हैं कि जब तक समुदायों के ज्ञान के सम्मान नहीं मिलेगा, तब तक समस्याओं का वास्तविक निदान भी नहीं हो पाएगा. निषाद समुदाय भारतीय राष्ट्र राज्य से फरियाद, प्रतिरोध और आंदोलन के माध्यम से अपनी बात रख रहा है. उसकी इस भाषा में निहित अर्थों पर विचार किया जाना है.

अंत में यह किताब बताती है कि कमजोर समुदाय किस प्रकार शक्ति अर्जित करते हैं और एक नई राजनीति विकसित करने का प्रयास करते हैं.

लेखक अपने धारदार तर्कों के द्वारा यह साबित करने में कामयाब रहे हैं कि ‘नदी पुत्र’ कौन हैं और नदियों से इनका संबंध कब से तथा कैसा रहा है. यह किताब अकादमिक, बौद्धिक, छात्र, सामाजिक कार्यकर्ता और प्रतियोगी छात्रों के लिए बहुत उपयोगी है.

किताब में कुछ कमियां भी हैं. पहली कमी आरंभिक दो अध्यायों में दिखाई देती है, जहां लेखक ने पाठ आधारित सामग्री का भरपूर प्रयोग किया है, वहीं दूसरी तरफ अभिलेख आधारित सामग्री के प्रयोग का अभाव दिखाई देता है. प्राचीन काल का इतिहास लेखन बिना अभिलेख आधारित सामग्री के अधूरा रह जाता है.

दूसरी बड़ी कमी है कि किताब पूरे 1000 सालों के इतिहास में नदी और निषाद के अंतर्संबंध को बिल्कुल अछूता छोड़ देती है. लेखक संपूर्ण सल्तनत और मुगल काल पर मौन दिखाई देते हैं. इन दोनों कमियों का कोई स्पष्टीकरण लेखक ने नही दिया है.

नदी के ऊपर रहने वाले निषाद नदी को कैसे देख रहे हैं, उनके स्मृति निर्माण में नदी कैसी भूमिका निभा रही है और उनकी जलीय परिस्थितियों में किस प्रकार के परिवर्तन आए हैं. यह तीसरी कमी है जो किताब में है.

किताब में चौथी कमी कई जगहों पर कथनों के दोहराव की है. इन कमियों का एक बड़ा कारण है कि इस विषय पर शोधकार्य का अभाव है, जिसके कारण यह कमियां किताब में आ गई हैं. इन कमियों के बावजूद एक नूतन विषय पर जिसकी दृष्टि इतिहास में धुंधली थी, उसे प्रकाश में लाने का यह एक महत्वपूर्ण और गंभीर प्रयास है.

(लेखक इलाहाबाद स्थित जीबी पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान में शोध छात्र हैं.)

pkv games bandarqq dominoqq pkv games parlay judi bola bandarqq pkv games slot77 poker qq dominoqq slot depo 5k slot depo 10k bonus new member judi bola euro ayahqq bandarqq poker qq pkv games poker qq dominoqq bandarqq bandarqq dominoqq pkv games poker qq slot77 sakong pkv games bandarqq gaple dominoqq slot77 slot depo 5k pkv games bandarqq dominoqq depo 25 bonus 25 bandarqq dominoqq pkv games slot depo 10k depo 50 bonus 50 pkv games bandarqq dominoqq slot77 pkv games bandarqq dominoqq slot bonus 100 slot depo 5k pkv games poker qq bandarqq dominoqq depo 50 bonus 50 pkv games bandarqq dominoqq bandarqq dominoqq pkv games