स्मृति शेष: देश के सबसे प्रभावशाली मार्क्सवादी चिंतकों में से एक एजाज़ अहमद का बीते महीने निधन हो गया. अहमद को साहित्य और समाज, इतिहास, अर्थतंत्र और राजनीति के जटिल अंतर्संबंधों की अंतर्दृष्टिपूर्ण व्याख्या के लिए जाना जाता था.
भारत के सबसे प्रभावशाली मार्क्सवादी चिंतकों में से एक एजाज़ अहमद का 9 मार्च, 2022 को इरविन, कैलिफोर्निया में निधन हो गया. जन-बुद्धिजीवी एजाज़ अहमद को साहित्य और समाज, इतिहास, अर्थतंत्र और राजनीति के जटिल अंतर्संबंधों की अंतर्दृष्टिपूर्ण व्याख्या के लिए जाना गया.
एजाज़ अहमद यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया, इरविन के तुलनात्मक साहित्य विभाग में वर्ष 2016 से चांसलर प्रोफेसर के रूप में अध्यापन कर रहे थे.
आज़ादी से छह साल पहले वर्ष 1941 में मुज़फ्फरनगर के एक छोटे-से क़स्बे में पैदा हुए एजाज़ अहमद बचपन में ही अपने पिता से प्रेरित होकर और उनसे प्रोत्साहन पाकर पठन-पाठन और किताबों की दुनिया की ओर आकृष्ट हुए. देश की आज़ादी और विभाजन के बाद उनका परिवार पाकिस्तान चला गया. जहां लाहौर में उनकी स्कूली पढ़ाई पूरी हुई और वहीं उन्होंने उच्च शिक्षा भी हासिल की.
…ग़ालिब का है अंदाज़-ए-बयां और
आगे चलकर साठ के दशक के आख़िर में एजाज़ न्यूयॉर्क गए, जहां उन्होंने राजनीतिक रूप से सक्रिय रहते हुए उर्दू साहित्य और विशेषकर मिर्ज़ा ग़ालिब की शायरी पर काम किया.
न्यूयॉर्क में रहते हुए ही वर्ष 1971 में कोलंबिया यूनिवर्सिटी प्रेस से एजाज़ द्वारा संपादित पहली किताब छपी, ‘ग़ज़ल्स ऑफ ग़ालिब’. इस किताब में ग़ालिब की ग़ज़लों के अंग्रेज़ी अनुवाद एजाज़ अहमद, डबल्यूएस मर्विन, एड्रीएन रिच, विलियम स्टैफर्ड, डेविड रे, टॉमस फित्ज़सिमंस, मार्क स्ट्रैंड और विलियम हंट द्वारा किए गए थे. इनमें से कुछ अनुवाद पहले-पहल वर्ष 1969 में मिर्ज़ा ग़ालिब के शताब्दी वर्ष के अवसर पर ‘द हडसन रिव्यू’ में छपे थे.
उक्त किताब के लिए लिखी गई लंबी भूमिका में एजाज़ ने मिर्ज़ा ग़ालिब के जीवन, उर्दू के समकालीन लेखकों और मुग़ल दरबार से उनके संबंध के बारे में तो लिखा ही, साथ ही ‘दस्तंबू’ में संकलित मिर्ज़ा ग़ालिब के पत्रों के हवाले से उन्होंने 1857 के विद्रोह से जुड़े ग़ालिब के अनुभवों और विद्रोहियों व अंग्रेज़ों के प्रति उनके रवैये के बारे में भी विस्तार से बताया.
एजाज़ दिल्ली समेत तत्कालीन उत्तर भारत के उस सामाजिक-सांस्कृतिक और भाषाई परिवेश की भी चर्चा करते हैं, जिसमें मिर्ज़ा ग़ालिब जी रहे थे. साथ ही, वे मिर्ज़ा ग़ालिब की ग़ज़लों का अंग्रेज़ी तर्जुमा करने में पेश आने वाली वाली चुनौतियों का भी उल्लेख करते हैं.
सत्तर के दशक में ही एजाज़ पाकिस्तान वापस लौटे. इस दौरान जहां एक ओर वे पाकिस्तान में फिरोज़ अहमद द्वारा प्रकाशित की जा रही पत्रिका ‘पाकिस्तान फोरम’ से जुड़े, वहीं उन्होंने न्यूयॉर्क से छपने वाली प्रसिद्ध समाजवादी पत्रिका ‘मंथली रिव्यू’ में भी लेख लिखने शुरू किए.
लेकिन वर्ष 1977 में पाकिस्तान में जनरल ज़िया-उल-हक़ द्वारा किए गए सैन्य तख्तापलट के दो साल बाद ही उन्हें हमेशा के लिए पाकिस्तान छोड़ना पड़ा.
अस्सी के दशक में एजाज़ अमेरिका से भारत आए और यहां वे तीन दशकों से अधिक समय तक रहे. वे लंबे समय तक नेहरू मेमोरियल म्यूज़ियम एंड लाइब्रेरी में फेलो रहे. जहां नेहरू मेमोरियल म्यूज़ियम एंड लाइब्रेरी के तत्कालीन निदेशक रविंदर कुमार से उनके आत्मीय संबंध रहे.
उल्लेखनीय है कि अपनी चर्चित पुस्तक ‘लीनिएजेज़ ऑफ द प्रेजेंट’ को एजाज़ ने रविंदर कुमार को ही समर्पित किया है. तीन मूर्ति में बिताए इस पूरे कालखंड को उन्होंने अपने बौद्धिक निर्माण और वैचारिक तैयारी की दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण माना है. इसी दौरान उन्होंने भारतीय उपमहाद्वीप समेत दक्षिण एशिया के इतिहास के बारे में सुव्यवस्थित ढंग से अध्ययन किया.
यही नहीं दिल्ली में उन्होंने जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी और जामिया मिलिया इस्लामिया में भी अध्यापन किया. नेहरू मेमोरियल लाइब्रेरी में ही फेलो के रूप में कार्य करते हुए उन्होंने ‘इन थियरी’ जैसी चर्चित पुस्तक लिखी.
साहित्य की सैद्धांतिकी और विचारधारा की राजनीति
वर्ष 1992 में छपी एजाज़ अहमद की प्रभावशाली पुस्तक ‘इन थियरी’ के प्रकाशन के तीस साल अब पूरे हो रहे हैं. साहित्य की आलोचना के लिए इतिहासबोध के साथ-साथ राजनीतिक-आर्थिक परिदृश्य की गहरी समझ होना और साहित्य को देश-काल की समग्रता में रखकर मूल्यांकित करना कितना आवश्यक है, यह ‘इन थियरी’ पढ़ते हुए पता चलता है.
वैश्विक मंच पर सक्रिय साम्राज्यवादी शक्तियों, पूंजीवादी सत्ता और विचारधाराओं द्वारा साहित्य के क्षेत्र में किए जा रहे सूक्ष्म बदलावों को जिस पैनेपन के साथ एजाज़ उद्घाटित करते हैं, वह पढ़ने योग्य है.
‘इन थियरी’ में एजाज़ अहमद वर्ग, राष्ट्र और साहित्य की बात करते हैं, उनकी बहुलता में, उनकी बहुवचनीयता को बरकरार रखते हुए. अकारण नहीं कि उन्होंने किताब का उप-शीर्षक रखा- ‘क्लासेज़, नेशंस, लिट्रेचर्स’.
इतिहास, साहित्य और राजनीति के अंतर्संबंधों को समझने के लिए एजाज़ की यह किताब और उनके दूसरे लेख पढ़े जाने चाहिए. साथ ही, यह जानने-समझने के लिए भी कि जब साहित्य और साहित्यालोचन से जुड़ी सैद्धांतिकी को इतिहास, राजनीति, अर्थतंत्र आदि की समग्रता में समझा जाता है, तो वह किस तरह अपने समय की जटिलताओं को और नेपथ्य में काम करने वाली सत्ता और विचारधारा की राजनीति को उद्घाटित करता है.
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद विऔपनिवेशीकरण की प्रक्रिया में जहां एक ओर एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के देशों को स्वतंत्रता मिली. वहीं दूसरी ओर, ठीक उसी दौर में साम्राज्यवाद ने धीरे-धीरे सूक्ष्म वैचारिक स्वरूप अख़्तियार किया.
साम्राज्यवाद की यह वैचारिकी अमेरिका और यूरोप के विश्वविद्यालयों में बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में विकसित होने वाले सिद्धांतों- विशेषकर उत्तर-संरचनावाद और उत्तर-आधुनिकतावाद में परिलक्षित होती है. एजाज़ अहमद के अनुसार, इन विचारधाराओं और चिंतन पद्धतियों ने साठ के दशक में शुरू हुए युद्धविरोधी आंदोलनों और छात्र आंदोलनों के रूप में पनपे राजनीतिक असंतोष और प्रतिरोध को नियंत्रित करने और उन्हें अकादमिक बहसों में बांधकर संस्थागत रूप देने का भी काम किया.
युद्धोत्तर काल में होने वाले सिद्धांतों के इस विस्फोट के पीछे सक्रिय ऐतिहासिक शक्तियों और इस प्रक्रिया को तीव्रता देने वाली राजनीतिक-आर्थिक परिघटनाओं की पड़ताल भी एजाज़ इस किताब में करते हैं.
इस क्रम में एजाज़ अपना ध्यान उन मूल विचारधाराओं पर केंद्रित करते हैं, जिनसे दूसरी विचारधाराएं और चिंतन-सरणियां प्रस्फुटित हुईं. यही नहीं एजाज़ ने समकालीन साहित्यालोचन की पद्धतियों और सैद्धांतिकी में उस स्पष्ट विरोधाभास को भी चिह्नित किया, जिसमें मार्क्सवाद के वैचारिक इतिहास और सिद्धांतों को सिरे-से नकारते हुए भी इन नव-सिद्धांतकारों द्वारा अपने लेखन में मार्क्सवादी स्थापनाओं और विचारकों को बेझिझक समाहित किया जा रहा था.
किसी कालविशेष के सांस्कृतिक उत्पाद के अपने ही समय के अन्य उत्पादों और राजनीतिक प्रक्रियाओं से जटिल संबंधों की पड़ताल का प्रश्न इन नव-सिद्धांतकारों की प्राथमिकता में कहीं भी नहीं था.
एजाज़ ने ठीक ही लक्ष्य किया कि ये सिद्धांतकार ख़ुद अपनी वर्गीय स्थिति और सिद्धांत-रचना की प्रक्रिया को प्रभावित करने वाले कारकों के बारे में चुप्पी साधे हुए थे. इसीलिए एजाज़ ने इन सिद्धांतकारों पर विचार करते हुए उनके लोकेशन और संस्थागत संबद्धता के प्रश्न को प्रमुखता से उठाया. इसमें ‘तीसरी दुनिया’, ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ जैसी धारणाओं पर सवाल उठाना भी शामिल था.
साम्राज्यवाद, विऔपनिवेशीकरण और समाजवाद के लिए संघर्ष की द्वंद्वात्मकता किस तरह हमारे अपने समय के अंतर्विरोधों को रचती है, इसे समझना एजाज़ अहमद की प्राथमिकता में रहा. जब यूरोप और अमेरिका की अकादमिक दुनिया में उत्तर-संरचनावाद, उत्तर-आधुनिकता जैसी विचारधाराओं का विस्फोट हो रहा था, उसी दौरान पूंजीवादी शक्तियों ने अपना मायावी जाल फेंका, जिसने एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के नव-स्वाधीन देशों को अपने नियंत्रण में ले लिया.
एजाज़ अहमद ने उत्तर-संरचनावाद, विखंडन की उस सैद्धांतिकी आलोचना की, जो उपनिवेश और साम्राज्य से जुड़े साहित्य की व्याख्या करते हुए भी उस दुनिया की बात करने से कतराती है, जिस दुनिया से सीधे तौर पर यह साहित्य और सैद्धांतिकी जुड़ी हुई है.
उत्तर-संरचनावाद के उदय को एजाज़ ने वैश्विक पूंजी के आक्रामक विस्तार और उसकी निर्णायक सफलता, विश्व स्तर पर घटित हुए राजनीतिक-आर्थिक बदलावों के परिप्रेक्ष्य में रखकर देखा.
युद्धोत्तर काल में जहां अमेरिका प्रभुत्वशाली पूंजीवादी सत्ता के रूप में उभरा, वहीं पूंजी संचय की प्रवृत्ति भी अभूतपूर्व रूप से बढ़ी. पूंजीवाद की यह उन्नत अवस्था एक ओर तो साम्राज्यवाद व उसकी सैन्य मशीनरी की कारस्तानियों के रूप में दिखाई दी.
दूसरी ओर, वैश्विक स्तर पर कॉरपोरेट अर्थव्यवस्था का वर्चस्व स्थापित हो जाने के रूप में भी यह प्रकट हुई. इस साम्राज्यवादी-पूंजीवादी तंत्र ने समाजवादी नीति को अपनाने वाले नव-स्वाधीन राष्ट्रों में योजना निर्माण और उसके प्रभावी क्रियान्वयन को हर स्तर पर विफल बना देने के लिए एड़ी-चोटी का ज़ोर लगाया. इसका नतीजा यह हुआ कि उपनिवेशवादविरोधी आंदोलन के लंबे दौर से निकले और प्रायः उजाड़ और आर्थिक रूप से विपन्न बन चुके इन देशों को संसाधनों के अभाव की गंभीर समस्या से जूझना पड़ा.
जब-जब इन नव-स्वाधीन देशों के समाजवादी झुकाव से साम्राज्यवादी-पूंजीवादी शक्तियों को ख़तरा महसूस हुआ, तब-तब इन देशों में तख्तापलट जैसी कार्यवाहियों को अंजाम देने, अराजकता फैलाने, जनप्रिय किंतु साम्राज्यवादविरोधी राष्ट्राध्यक्षों और राजनेताओं की हत्या कराने, यहां तक कि सीधे सैन्य हस्तक्षेप करने में भी अमेरिका और दूसरे साम्राज्यवादी देशों ने तनिक भी गुरेज़ नहीं किया.
वर्तमान की गुत्थियों पर अतीत की रोशनी
वर्ष 1996 में प्रकाशित हुई अपनी पुस्तक ‘लीनिएजेज़ ऑफ द प्रेजेंट’ में एजाज़ ने दक्षिण एशिया में राजनीति और विचारधारा से जुड़े ज्वलंत प्रश्नों की गहन पड़ताल की.
एजाज़ हमारे राजनीतिक-सामाजिक वर्तमान की गुत्थियों को समझने-सुलझाने के क्रम में वर्तमान की निर्मिति में अतीत की भूमिका की पड़ताल करते हैं. वे इतिहास को ऐसी प्रक्रिया के रूप में देखते हैं, जो वर्तमान को अतीत से जोड़ती है.
इसी पुस्तक में जॉक देरिदा द्वारा लिखी गई पुस्तक ‘स्पेक्टर्स ऑफ मार्क्स’ के बारे में एजाज़ अपना मत प्रकट करते हैं कि वे देरिदा द्वारा नवउदारवाद को नकारने और ऐसे समय में जब मार्क्सवाद के अंत की घोषणाएं की जा रही हों, मार्क्सवाद पर उनके द्वारा विश्वास जताने के साहस का स्वागत करते हैं.
लेकिन वे देरिदा द्वारा मार्क्सवाद एवं विखंडनवाद के बीच समायोजन स्थापित करने के प्रयासों और इस क्रम में देरिदा के विमर्श के अधूरेपन और उनकी असंगत धारणाओं की आलोचना करते हैं.
इसके साथ ही एजाज़ ने इस पुस्तक के अन्य लेखों में फासीवाद और सांप्रदायिकता, साम्राज्यवादी विचारधारा, पाकिस्तान में लोकतंत्र और तानाशाही, उर्दू की दशा, संस्कृति और राष्ट्रवाद जैसे प्रश्नों पर भी सविस्तार लिखा.
मौलाना अबुल कलाम आज़ाद पर लिखते हुए एजाज़ राष्ट्रवादी मुस्लिमों की उपलब्धियों के साथ-साथ उनकी विफलताओं और सीमाओं को भी रेखांकित करते हैं. दिसम्बर 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस की घटना के संदर्भ में लिखते हुए एजाज़ भारत में सांप्रदायिक और फासीवादी शक्तियों, संगठनों के उभार की परिघटना और उनकी विचारधारा का भी गहन विश्लेषण करते हैं.
आगे चलकर एजाज़ अहमद ने ‘फ्रंटलाइन’ जैसे पत्रों में समसामयिक मुद्दों पर लगातार लेख लिखे और विश्व राजनीति और अंतरराष्ट्रीय संबंधों के बारे में वेब न्यूज़ पोर्टल को साक्षात्कार भी दिए. भाऊ समर्थ व्याख्यानमाला के अंतर्गत एजाज़ अहमद द्वारा दिया गया विचारोत्तेजक व्याख्यान ‘आज के जमाने में मार्क्सवाद का महत्त्व’ भी हिंदी के पाठकों के बीच अत्यंत चर्चित रहा.
एजाज़ की संवादी प्रवृत्ति की बानगी इतिहासकार विजय प्रसाद के साथ उनके लंबे साक्षात्कार में भी मिलती है, जो पुस्तक रूप में ‘नथिंग ह्यूमन इज़ एलियन टु मी’ शीर्षक से प्रकाशित है.
एजाज़ ने कार्ल मार्क्स, फ्रेडरिक एंगेल्स और मार्क्सवादी अर्थशास्त्री समीर अमीन के चुनिंदा लेखों का संकलन भी तैयार किया, जो ‘लेफ्टवर्ड’ द्वारा प्रकाशित हैं. एजाज़ अहमद की कुछ अन्य प्रमुख पुस्तकें हैं : ‘ईराक़, अफग़ानिस्तान एंड द इंपीरियलिज़्म ऑफ ऑवर टाइम’, ‘ऑन कम्युनलिज़्म एंड ग्लोबलाइज़ेशन’, ‘इंडिया: लिबरल डेमोक्रेसी एंड द एक्स्ट्रीम राइट’.
एजाज़ अहमद को उनकी प्रतिबद्धता, वैचारिक साहस और प्रबुद्ध तार्किकता के लिए हमेशा याद रखा जाएगा.
(लेखक बलिया के सतीश चंद्र कॉलेज में पढ़ाते हैं.)