झारखंड में संथाल परगना प्रमंडल के चार ज़िलों- साहिबगंज, पाकुड़, दुमका व गोड्डा की मुख्यतः ग्रामीण आबादी में परजीवी से होने वाले कालाजार रोग के मामले पाए जाते हैं. उनमें भी आदिवासियों की बहुलता है. जानकारों का कहना है कि अशिक्षा, बुनियादी सुविधाओं का अभाव, कुपोषण, खनन क्षेत्र में प्रदूषण, अंधविश्वास जैसी वजहें इसके उन्मूलन अभियान के लिए प्रतिकूल स्थितियां बनाती हैं.
रांची: झारखंड के पाकुड़ जिले के कालिदासपुर गांव की तालामनी टुडू को यह पता नहीं है कि कालाजार क्यों और कैसे होता है. उन्हें सिर्फ यह मालूम है कि साल भर पहले वे कालाजार से पीड़ित हुई थीं. उनकी 11 साल की बेटी बाहामुनी टुडू को भी कालाजार हुआ था. ये लोग बीमारी से तो ठीक हो चुके हैं लेकिन स्वास्थ्य बहुत ठीक नहीं है, कमजोरी और कुपोषण साफ दिखता है. इनके रिश्तेदार 29 साल के संजला टुडू को भी कालाजार हुआ था.
ये लोग राज्य में एमपीएचडब्ल्यू (मल्टी पर्पस हेल्थ वर्कर) की निगरानी में हैं. ये कर्मचारी समय-समय पर गांव जाकर मरीजों के स्वास्थ्य के बारे में पता करते रहते हैं
तालामनी टुडू हिंदी बोलने में भी सहज नहीं हैं. संथाली में उन्होंने बताया कि बीमार होने पर वे ठीक से खाना-पीना भी नहीं खा पाती थीं पर अभी ठीक हैं. वे ज्यादा कुछ बोलने से संकोच करती हैं.
देश के चार राज्यों- बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल, उत्तरप्रदेश को कालाजार प्रभावित राज्य के रूप में चिह्नित किया गया है. पहले केरल में भी इसके कुछेक मामले मिलते थे लेकिन विश्व स्वास्थ संगठन की सूची में अब इसका उल्लेख नहीं है.
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की वेबसाइट पर इस बीमारी को लेकर उपलब्ध जानकारी के अनुसार, बिहार के 33 जिले के 458 प्रखंड, झारखंड के चार जिले के 33 प्रखंड, पश्चिम बंगाल के 11 जिले के 120 प्रखंड, उत्तरप्रदेश के छह जिलों के 22 प्रखंड में इसके मामले मिलते हैं. इन चार राज्यों में बिहार और झारखंड वर्तमान में कालाजार से अधिक प्रभावित हैं.
झारखंड में संथाल परगना प्रमंडल के चार जिले साहिबगंज, पाकुड़, दुमका व गोड्डा की मुख्यतः ग्रामीण आबादी में इस बीमारी के मामले पाए जाते हैं. उनमें भी आदिवासियों की बहुलता है.
वेक्टर बॉर्न डिजीज डिपार्टमेंट की वेबसाइट पर उपलब्ध ब्यौरा के अनुसार, देश में छह बीमारियां वेक्टर जनित बीमारी के रूप में सूचीबद्ध हैं. सूची में शामिल हैं, इनमें कालाजार के अलावा मलेरिया, डेंगू, फाइलेरिया, जापानी इंसेफेलाइटिस, चिकुनगुनिया शामिल हैं.
राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के तहत नेशनल सेंटर फॉर वेक्टर बॉर्न डिजीज कंट्रोल नाम से एक प्रभाग चलाया जाता है, जिसकी जिम्मेदारी इस बीमारियों के उन्मूलन के लिए काम करना है.
कालाजार क्या है
कालाजार बीमारी लीशमैनिया जीनस के प्रोटोजोआ परजीवी के कारण होती है. इसका संक्रमण बालू पर पनपने वाली मक्खियों के काटने से होता है. वहीं, पोस्ट कालाजार लीशमैनियासिस की वह स्थिति है, जिसमें परजीवी त्वचा की कोशिकाओं में पहुंच जाता है और उभरकर घाव के रूप में दिखाई देता है.
डब्ल्यूएचओ के अनुसार, अगर बिना इलाज के छोड़ दिया जाए तो 95 प्रतिशत से अधिक मामलों में यह घातक हो सकता है. इस बीमारी से संक्रमित लोग को अनियमित बुखार आना, वजन घटना, प्लीहा और यकृत बढ़ने जैसे लक्षण व एनीमिया की शिकायत होती है.
विश्व में इस बीमारी के अधिक मामले ब्राजील, पूर्वी अफ्रीका और भारत में पाए जाते हैं. अनुमानतः दुनिया भर में सालाना 50 हजार से 90 हजार मामले सामने आते हैं, जिसमें मात्र 25 प्रतिशत से 45 प्रतिशत मामले डब्ल्यूएचओ को सूचित किए जाते हैं.
कालाजार मौत के मामले के हिसाब से शीर्ष परजीवी रोगों में से एक है. 2019 में डब्ल्यूएचओ को रिपोर्ट किए गए 90 प्रतिशत से अधिक नए मामले 10 देशों – ब्राजील, इरिट्रिया, इथियोपिया, भारत, इराक, केन्या, नेपाल, सोमालिया और दक्षिण सूडान और सूडान में दर्ज किए गए.
डब्ल्यूएचओ के अनुसार, गरीबी, आवास और घरेलू स्वच्छता की कमी, जैसे- अपशिष्ट प्रबंधन की कमी या खुले सीवरेज इस बीमारी के खतरे को बढ़ा देता है. झारखंड में इस बीमारी के प्रसार पर ये तीनों वजहें लागू होती हैं.
कालीदासपुर में कालाजार के मामले
2011 की जनगणना के अनुसार, 558 परिवार वाले कालिदासपुर गांव की आबादी 2,669 है और साक्षरता दर 27.8 प्रतिशत है.
2020-21 में चारों ओर से पत्थर क्रशर से घिरे कालिदासपुर में कालाजार के नौ मामले मिले और बगल के गांव सूजरपुर में एक मामला मिला. इनमें वयस्क के साथ बच्चे भी शामिल हैं.
इसी गांव के सुंदर मुर्मू एवं तालामुई हांसदा के नौ वर्षीय बेटे जोसेफ मुर्मू को 2021 में कालाजार हुआ.
सरकारी आंकड़े के अनुसार, उसे 20 सितंबर 2021 को कालाजार मरीज के रूप में चिह्नित किया गया और इलाज कराया गया. उससे पहले 17 नवंबर 2020 को उसके छोटे भाई तीन साल के सूरज मुर्मू को कालाजार मरीज के रूप में चिह्नित किया गया था.
कालिदासपुर गांव में प्रवेश करने पर वहां के पेड़-पौधे व सड़कें पत्थर क्रशर से उड़ने वाली धूल से ढके दिखते हैं. हर कुछ देर पर स्टोन चिप्स से लदे डंफर गुजरते दिखते हैं, जिससे कच्ची-पक्की सड़क पर धूल का गुबार उड़ता रहता है.
ऐसे हालात किसी स्वस्थ व्यक्ति को भी बीमार बना सकते हैं, फिर उनके बारे में सहज अंदाज लगाया जा सकता है जो पहले से बीमार हैं और शरीर की प्रतिरोधक क्षमता कम है.
झारखंड में पाकुड़ राज्य का कालाजार से सर्वाधिक प्रभावित जिला है और तालामनी जिस गांव में रहती हैं, वहां की आबोहवा पत्थर की धूल के कारण इतनी खराब है कि बीमारी का खतरा बढ़ जाता है और बीमार के ठीक होने की संभावना धीमी हो जाती है.
एमपीएचडब्ल्यू के रूप में काम करने वाले स्वास्थ्य कार्यकर्ता उज्ज्वल मंडल ने बताया कि कालिदासपुर के बगल में स्थित कसिला गांव में टीबी के बहुत मामले मिलते हैं. कसिला गांव मुख्य मार्ग पर है और वहां से होकर कालिदासपुर का रास्ता जाता है, जो बमुश्किल पौन किमी की दूरी पर है. सिर्फ कालिदासपुर हेल्थ सब सेंटर के दायरे में टीबी के दस केस हैं.
कालिदासपुर के 18 साल के युवा सुभाष टुडू (जो क्रशर में काम करते हैं) ने इस संवाददाता को बताया कि कालाजार से पीड़ित होने के बाद उसे कमजोरी, बुखार और खांसी की समस्या थी और अब भी वह कमजोरी महसूस करता है. उसकी 26 साल की बहन बिटिया टुडू को पीकेडीएल (पोस्ट कालाजार डरमल लीशमनियासिस) की समस्या रही है जो कालाजार के कुछ सालों बाद होने वाली एक बीमारी है.
वर्तमान में प्रभावित क्षेत्र में किसी कालाजार मरीज के चिह्नित होने पर उसे प्रखंड मुख्यालय स्थिति सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र या जिला अस्पताल ले जाया जाता है और वहां एक ही दिन में दवा की खुराक पूरी की जाती है.
हाल ही में वेक्टर बॉर्न डिजीज के स्टेट प्रोग्राम हेड पद से रिटायर हुए डॉ. शेष नारायण झा ने बताया कि यह दवा काफी महंगी होती है, जिसके लिए सरकार की ओर से मरीजों को आर्थिक सहायता भी मुहैया करवाई जाती है.
उन्होंने दावा किया कि सरकार द्वारा मरीज को 6,600 रुपये पौष्टिक आहार व अन्य जरूरी चीजों के लिए डीबीटी के माध्यम से दिया जाता है. यह श्रम क्षतिपूर्ति भत्ता होता है, इसमें 500 रुपये केंद्र का अंशदान होता है, बाकी पैसे राज्य सरकार के मद से दिया जाता है. साथ ही 5,500 भत्ता, 500 रुपये इलाज कराने के लिए साथ जाने वाले व्यक्ति और 100 रुपये आने-जाने के खर्च के लिए दिया जाता है.
उन्होंने आगे बताया कि पीकेडीएल के मामले में 28-28 दिन की दवा की खुराक तीन बार में 84 दिन के लिए दी जाती है और पौष्टिक आहार के लिए 4,000 रुपये दिए जाते हैं. पीकेडीएल के लिए दी जाने वाली राशि केंद्र सरकार के मद से आती है. सिर्फ सहिया को पीकेडीएल का केस ढूंढ कर लाने पर प्रोत्साहन राशि के रूप में 100 रुपये दिया जाता है, अन्य स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं को इसके लिए भुगतान नहीं होता.
धात्री माताओं और गर्भवती महिलाओं को नहीं दी जाती दवा
पाकुड़ जिले के हिरणपुर प्रखंड के मुर्गाडंगा गांव की तालामई मुर्मू को पीकेडीएल है. तालामई मुर्मू ने बताया ने बताया कि उन्हें 15-16 साल की उम्र में कालाजार हुआ था, लेकिन इतने सालों बाद पीकेडीएल की समस्या उनके शरीर में उभरकर आई है.
डब्ल्यूएचओके झारखंड स्टेट को-आर्डिनेटर एनटीडी (नेग्लक्टेड टॉपिकल डिजीज) डॉ. अभिषेक पॉल के अनुसार, ‘सामान्यतः पीकेडीएल की समस्या कालाजार के बाद दो से तीन साल साल में दिखने की संभावना रहती है.’
बहरहाल, तालामई के शरीर में इसके लक्षण देर से दिखे. उनको 84 दिन के लिए 28-28 दिन की खुराक दी जा रही है, जिसे तीन खेप में दिया जाता है.
मुर्गाडंगा गांव की ही आठ महीने के बच्चे की मां 30 वर्षीया ममता हेंब्रम को भी पीकेडीएल की समस्या है. वे बताती हैं कि उन्हें 10-12 साल पहले कालाजार हुआ था और अब पीकेडीएल हो गया है. उनका आठ महीने का बच्चा अभी मां की दूध पीता है, इसलिए पीकेडीएल के लिए दी जाने वाली 84 दिन की उनकी खुराक शुरू नहीं हुई है.
इस संबंध में कालाजार प्रभावित क्षेत्र दुमका जिले के मसलिया प्रखंड के प्रभारी चिकित्सक डॉ. प्रवीण कुमार ने बताया, ‘कालाजार को लेकर जारी गाइडलाइन के अनुसार, दूध पिलाने वाली महिलाओं को पीकेडीएल की दवा नहीं दी जाती क्योंकि उसमें एंटी कंसर्ट ड्रग होता है जो बच्चे के लिए हानिकारक हो सकता है.’
इसी तरह गर्भवती महिलाओं को भी पीकेडीएल की दवा नहीं दी जाती है. डॉ. शेष नारायण झा ने बताया, ‘पीकेडीएल की दवा जिन महिलाओं की शुरू की जाती है, उन्हें यह सलाह दी जाती है कि वे दवा अवधि तक गर्भवती होने से बचें.’
कालाजार उन्मूलन और मौजूदा स्थिति
कालाजार उन्मूलन की तय परिभाषा यह है कि जब प्रति दस हजार की आबादी पर इस बीमारी के एक या उससे कम मामले दर्ज किए जाते हैं तो यह मान लिया जाता है कि इसका उन्मूलन हो गया है.
झारखंड के दो जिलों पाकुड़ व दुमका में वर्तमान में कुल चार प्रखंड ऐसे हैं जहां कालाजार के प्रति दस हजार की आबादी पर एक या उससे अधिक मामले हैं. ये संख्या नवंबर 2021 तक के उपलब्ध आंकड़े पर आधारित है.
पाकुड़ के आमड़ापाड़ा, लिट्टीपाड़ा व हिरणपुर प्रखंड क्षेत्र और दुमका जिले के जामा प्रखंड क्षेत्र में अभी भी प्रति दस हजार की आबादी पर एक या एक से अधिक कालाजार के मामले हैं. एक अधिकारी ने बताया कि झारखंड में 2019 में ऐसे 16 ब्लॉक और 2020 में 12 ब्लॉक थे.
कैलेंडर वर्ष 2021 (01 जनवरी से 31 दिसंबर 2021) में झारखंड में कालाजार के 279 केस दर्ज किए गए. 30 नंवबर 2021 तक के प्राप्त आकड़े के अनुसार, 2021 में कालाजार के 246 मामले दर्ज किए गए, जिसमें दुमका जिले में कालाजार के 76 मामले, पाकुड़ में 98, गोड्डा में 46 और साहिबगंज में 26 मामले हैं.
वहीं, पीकेडीएल के वर्ष 2021 में 30 नवंबर तक 143 मामले दर्ज किए गए. इसमें दुमका में 21, गोड्डा में 39, पाकुड़ में 41, साहिबगंज में 42 मामले हैं.
जबकि इस अवधि में (वर्ष 2021 में 30 नवंबर) पूरे देश में कालाजार के 1231 और पीकेडीएल के 653 मामले दर्ज किए गए. इस बीमारी के उन्मूलन अभियान से जुड़े अधिकारियों का दावा है कि 2020 की तुलना में 2021 में कालाजार के मामलों में 38 प्रतिशत की कमी आई है.
डॉ. अभिषेक पॉल राज्य में आए इस बीमारी के मामलों को लेकर कहते हैं, ‘आदिवासी, संथाल, आदिम जनजाति पहाड़िया में ही इस बीमारी के 80 प्रतिशत मामले देखे जाते हैं. झारखंड में कई चीजें इसके अनुकूल हैं तो कई प्रतिकूल. आदिवासी समाज की महिलाएं सशक्त हैं, वहां लैंगिक समानता है, उनका संस्कृति एवं व्यवस्था में मजबूत विश्वास है, ये अच्छी बातें हैं, लेकिन कई चुनौतियां भी हैं.’
वे आगे बताते हैं, ‘खानपान की आदतों, जीवन पद्धति से चीजें प्रभावित होती हैं. गांव में लोग सुबह भूखे पेट रह जाते हैं, नाश्ता नहीं करते, झाड़-फूंक, जड़ी-बूटी और झोलाछाप डॉक्टरों पर अधिक भरोसा करते हैं, ऐसे में संक्रमण ज्यादा दिन तक रह जाता है.
डॉ. पॉल कहते हैं, ‘हालत ये है कि हम लोग भी कई बार उन तक झोलाछाप इलाज करने वालों के माध्यम से ही पहुंचते हैं.’
25 से 45 प्रतिशत मामले ही होते हैं दर्ज
विभिन्न स्वास्थ्य अधिकारियों, मध्यम व जमीनी स्तर पर काम करने वाले स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं, स्वास्थ्यकर्मियों से विभिन्न स्तरों पर की गई बातचीत बताती है कि कालाजार के मामलों की जानकारी प्रखंड स्तर पर स्वास्थ्य विभाग को मिलना मुश्किल भरा होता है. सामान्यतः लोग इसे सामान्य बुखार या अन्य बीमारी मानकर इसका अन्य इलाज करवाते रहते हैं.
जनजातीय परिवारों का मुखर न होना, अशिक्षा, भाषाई दिक्कतें भी अवरोध का काम करती हैं. जमीनी स्तर पर संथाली जानने वाले स्वास्थ्य कार्यकर्ता अधिक आसानी से पीड़ितों से संवाद स्थापित कर पाते हैं और उन्हें समझा लेते हैं.
झारखंड में कालाजार के मामले को चिह्नित करने में समस्या आती है और उसकी सूचना कई बार बहुत देर से मिल पाती है. ऐसे में ग्रामीणों को प्रोत्साहित करने के लिए कालाजार मरीज खोजने व सूचना देने वाले को एक हजार रुपये इनाम देने जैसे कार्यक्रम चलाया जा रहा है.
डॉ. शेष नारायण झा कहते हैं, ‘अगर कल्याणकारी योजनाएं अधिक प्रभावी ढंग से गरीबों तक पहुंचेंगी, उनके लिए पक्के मकान, स्वच्छता का प्रबंध होगा तो बीमारी का खतरा कम होगा. गरीब लोग के घरों के आसपास गंदगी होती है, बांस-फूंस का घर होता है, बालू मक्खी चूहे के बिल में भी रहते-पनपते हैं, ये सब चीजें ठीक हो जाएं तो बीमारी खत्म हो जाएगी.’
बीमारियों और शिक्षा, पोषण और जागरूकता का नाता
संथाल परगना में कालाजार के अलावा टीबी, मलेरिया, कुपोषण सहित कई अन्य बीमारियों की गंभीर समस्या है. इन बीमारियों के कारण इस क्षेत्र में जीवन प्रत्याशा भी कम है.
2013 से 2017 के आंकड़े के अनुसार, भारत की जीवन प्रत्याशा 69 साल थी, वहीं झारखंड की 68.6 प्रतिशत. पुरुषों की जीवन प्रत्याशा 68.8 और महिलाओं 68.4 साल दर्ज की गई. आदिवासी वर्ग की जीवन प्रत्याशा इससे भी कम होने का अनुमान है.
पाकुड़ के सिविल सर्जन (जिला चिकित्सा पदाधिकारी) डॉ. रामदेव पासवान बताते हैं, ‘हम पाकुड़ में सघन जांच अभियान चलाकर सबसे अधिक मरीज खोज पाए. हमारे जिले की तीन ब्लॉक पाकुड़ सदर, महेशपुर एवं पाकुड़िया में कालाजार का उन्मूलन हो गया है, लेकिन हिरणपुर, लिट्टीपाड़ा और आमड़ापाड़ा में अभी समस्या है.’
गौरतलब है कि उन्मूलन से उनका तात्पर्य वह सरकारी मानदंड है, जिसके तहत प्रति दस हजार की आबादी पर एक केस होना चाहिए. जबकि पाकुड़ सदर प्रखंड के कालीदासपुर गांव में ही पिछले दो सालों में इस बीमारी से पीड़ितों के कई मामले सामने आए.
गोड्डा का परिदृश्य
गोड्डा जिले के बोआरीजोर प्रखंड की दलदली गोपालपुर पंचायत का रामकोल गांव कालाजर से अधिक प्रभावित गांव रहा है. हालांकि वर्ष 2021 में यहां कालाजार का कोई मामला नहीं मिला, लेकिन गांव की सहिया उषा किस्कू के अनुसार, पीकेडीएल के दो मामले हैं.
गांव की 10 साल की हेमाती सोरेन और 14 साल के रोशन मुर्मू में पिछले साल पीकेडीएल के लक्षण मिले. गांव में संथाल आदिवासी, पहाड़िया, मुसलिम व पिछड़ी जाति के परिवार हैं. गांव के 27 वर्षीय अकबर अंसारी ने बताया कि उनके बड़े भाई सफीक अंसारी को चार साल पहले कालाजार हुआ था, लेकिन अब वे ठीक हो चुके हैं.
दलदली गोपालपुर की मुखिया भागो मरांडी ने बताया कि उनकी पंचायत में 12 राजस्व गांव हैं, लेकिन एक भी स्वस्थ्य केंद्र का अपना भवन नहीं है, उसका संचालन स्कूलों में होता है.
बोआरीजोर प्रखंड की ही बाघमारा ग्राम पंचायत कभी कालाजार से प्रभावित रहा था, लेकिन वहां उन्मूलन लक्ष्य को पा लिया गया है.
यहां की सहिया रंजीता हांसदा ने बताया कि 2020 में एक 16 साल के लड़के में पीकेडीएल मिला था, लेकिन 2021 में एक भी केस नहीं मिला.
यहां की मुखिया मीना मुर्मू ने कालाजार उन्मूलन को लेकर कहा कि वे लोगों को इसके लिए जागरूक करते हैं. उन्होंने भी स्वास्थ्य केंद्र का भवन नहीं होने की बात दोहराई.
उनका कहना है कि उनकी ग्राम पंचायत राजमहल कोल परियोजना के क्षेत्र में आती है और ऐसे में डीएमएफटी से यहां काम करवाया जा सकता है, उन्होंने बैठकों में यह मुद्दा उठाया लेकिन कुछ हुआ नहीं. इस गांव में टीबी के केस भी पूर्व में मिलते रहे हैं.
डॉ. शेष नारायण झा कहते हैं कि कालाजार के उन्मूलन की परिभाषा के अनुसार इस बीमारी का उन्मूलन अबतक नहीं हो सका, लेकिन 2022 में इस लक्ष्य को पाया जा सकता है, हालांकि केंद्र ने इसके उन्मूलन का लक्ष्य वर्ष 2023 तय किया है.’
उन्होंने यह भी कहा, ‘केंद्र सरकार ने फिलहाल इसके उन्मूलन (elimination) पर बात कर रही है, इसके संपूर्ण समापन (eradication) की नहीं. उसके लिए पहले उन्मूलन के लक्ष्य को हासिल करना होगा.’
कोरोना संक्रमण से प्रभावित हुआ उन्मूलन अभियान
कालाजार से निबटने में कोरोना संक्रमण एक चुनौती के रूप में सामने आया. इस महामारी ने कालाजार से निबटने की रफ्तार को धीमा किया. खास कर 2021 की गर्मियों में आई कोरोना की दूसरी लहर का असर अधिक हुआ. जब दूसरी लहर आरंभ हुई थी तो उस दौरान ही कोविड टीकाकरण अभियान तेजी से शुरू ही हुआ था.
उस समय ग्रामीणों, स्वास्थ्य कार्यकर्ता का यह कहना था कि लोगों में यह गलत धारणा भी फैली कि कोविड के टीका के बाद ही लोगों की मौत हो रही है. स्वाभाविक है कि इसका असर दूसरी बीमारियों से निबटने पर भी पड़ा.
इसके साथ ही कोरोना को लेकर स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं पर बढ़े काम के बोझ ने भी उन्मूलन अभियान को प्रभावित किया. पाकुड़ के एक स्वास्थ्य कर्मी ने इस साल के आरंभ में बताया कि कोविड में ही उनकी पूरी ऊर्जा लग जाती है और इससे दूसरे काम प्रभावित होते हैं.
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)
नोट: यह रिपोर्ट स्वतंत्र पत्रकारों के लिए नेशनल फाउंडेशन ऑफ इंडिया की मीडिया फेलोशिप के तहत की गई है.