वाराणसी ज़िले में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा संरक्षित 18 ऐतिहासिक स्मारक हैं. संस्कृति मंत्रालय के अनुसार, 18 में से दो लापता हैं. हालांकि शहर में खोजने पर पांच स्मारकों का कोई ठिकाना नहीं मिलता और अन्य सात भी प्रशासनिक अनदेखी का शिकार हैं.
वाराणसी: दिसंबर में जब काशी विश्वनाथ धाम परियोजना का शिलान्यास हुआ तो प्रधानमंत्री ने इसे ऐतिहासिक करार दिया. प्रधानमंत्री ने कहा, ‘आज का भारत अपनी खोई हुई विरासत को फिर से संजो रहा है.’ पर क्या ऐसा असल में हो रहा है?
प्रधानमंत्री ने अपने भाषण के दौरान बनारस के गौरव की कुछ कहानियां भी सुनाई. इनमें से एक 1781 के बनारस विद्रोह और वारेन हेस्टिंग्स से जुड़ी हुई थी. प्रधानमंत्री ने कहा कि, ‘अंग्रेजों के दौर में भी वारेन हेस्टिंग का क्या हश्र काशी के लोगों ने किया था, ये तो काशी के लोग जानते ही हैं.’ लेकिन इस गौरव गाथा की याद आज जीर्ण-शीर्ण अवस्था में हैं.
1781 बनारस विद्रोह के साक्षी के रूप में संयुक्त प्रांत सरकार ने लेफ्टिनेंट स्टॉकर, स्कॉट और साइक्स की कब्र को चेत सिंह किले के पीछे संरक्षित किया था. यह क्रब भले ही अंग्रेजी हुकूमत द्वारा सैनिकों की याद में बनाई गई थी पर यह बनारसियों के शौर्य की याद भी संजोए हुए है.
आजादी के बाद भारत सरकार ने इन कब्रों को भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) के अधीन एक स्मारक के तौर पर संरक्षित किया. यह बनारस की उन 18 ऐतिहासिक धरोहरों में से एक है जो भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा जिले में संरक्षित है.
एएसआई की सूची में ग्रेव्स ऑफ यूरोपियन सोल्जर्स नाम से अंकित यह धरोहर आज खस्ताहाल है. कभी यहां तीन कब्र हुआ करती थीं, आज केवल एक ही कब्र दिखाई देती है. अन्य दो टूट चुकी हैं.
कब्र के आस-पास गंदगी का अंबार है, सामने एक खराब रिक्शा खड़ा है और कब्र के चारों तरफ कंकड़, पत्थर और घरेलू कचरा दिखता है.
स्मारक से सटे मकान में रहने वाले सलीम मिर्जा बताते है कि वह बचपन से इस कब्र को देख रहे हैं. सलीम मिर्जा ने बताया, ‘अधिकारी कभी-कभी आते हैं मुआयना करने, पर यहां की हालत हमेशा से खराब रही है. आखिरी बार यहां 4-5 साल पहले कोई मुआयना करने आया था. हम लोग साफ-सफाई करते रहते है तो यह बचा हुआ है,’
वाराणसी जिले में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा संरक्षित 18 ऐतिहासिक स्मारक हैं. इनमें से 9 अंग्रेजों के कालखंड में बनाई गई थीं. अन्य नौ स्मारकों में सारनाथ स्थित बौद्ध स्तूप, लाल खां का मकबरा, मान महल वेधशाला, धरहरा मस्जिद, एंशिएंट मड और रिमेंस ऑफ फाइन ब्रिक फोर्ट शामिल हैं.
इन ऐतिहासिक धरोहरों के संरक्षण की जिम्मेदारी एएसआई सब-सर्किल, सारनाथ की है, लेकिन आज इनकी स्थिति देख कर ऐसा नहीं लगता की संरक्षण के लिए कोई कदम उठाया जा रहा है.
संस्कृति मंत्रालय के अनुसार, 18 में से 2 स्मारक लापता हैं, लेकिन शहर में खोजने पर 5 स्मारकों का कोई ठिकाना नहीं मिलता और 7 अन्य अनदेखी की मार झेल रहे हैं.
अनट्रेसेबल स्मारक: सरकारी सूची और जमीनी हकीकत
वर्ष 2015 में सांस्कृतिक मंत्रालय ने संसद को बताया था कि एएसआई द्वारा संरक्षित धरोहरों में 24 धरोहरों का ‘पता नहीं लगाया जा सका है.’ इस सूची में वाराणसी की केवल दो धरोहरें शामिल थीं- ट्रेजरी बिल्डिंग पर लगा टेबलेट और तेलिया नाला के बौद्ध भग्नावशेष.
हालांकि धरातल पर स्थिति कुछ और ही कहती है. हमने सूची में दिए पते और सार्वजनिक दस्तावेजों के माध्यम से इन धरोहरों को खोजने का प्रयास किया. वाराणसी की 18 संरक्षित धरोहरों में से 5 ऐसी हैं जिन्हें शहर में खोजना मुश्किल है.
सरकारी सूची में शामिल ट्रेज़री बिल्डिंग पर लगा टेबलेट और तेलिया नाला के बौद्ध भग्नावशेष के अलावा- सिमेट्री (चेतगंज), म्युटिनी मेमोरियल और क्लोस्ड सिमेट्री (राजघाट) शहर से लापता हैं.
सूची में म्युटिनी मेमोरियल का पता (लोकेशन) मात्र ‘वाराणसी’ लिखा हुआ है. 82 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले हुए वाराणसी में इन धरोहरों को किस गली या स्थान पर ढूंढ़ा जाए.
क्लोस्ड सिमेट्री (राजघाट) आरएस फाउंडेशन के स्कूल परिसर में स्थित है. यह स्थान लाल खां का मकबरा से कुछ ही दूरी पर है. स्कूल प्रशासन के अनुसार कुछ वर्ष पहले तक एक-दो कब्र दिखती थीं पर आज उस स्थान पर केवल जंगल है.
बनारस के चेतगंज क्षेत्र में कई कब्रगाह हैं. पर इनमें से कोई भी एएसआई के अधीन हो इसके कोई साक्ष्य नहीं मिले. स्थानीय निवासियों को भी सैनिकों को कब्र के विषय में जानकारी नहीं है.
गंदगी और अव्यवस्था की मार
ग्रेव्स ऑफ यूरोपियन सोल्जर्स के हालत बदहाल है. औपनिवेशिक काल में बनारस में बने अन्य कई ऐसे स्मारकों की स्थिति भी अलग नहीं है.
सम्पूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय में स्थित मोनोलिथ पिलर के आस-पास गंदगी का अंबार है. पास ही में लगी रवींद्रनाथ टैगोर और महात्मा गांधी की प्रतिमाएं भी बुरे हाल में हैं.
एएसआई सूची में शामिल एक और धरोहर विक्टोरिया मेमोरियल बेनियाबाग पार्क में स्थित है. हाल ही में बेनियाबाग पार्क का रिनोवेशन शुरू हुआ था, जो अभी पूर्ण नहीं हुआ है.
नीचे दी गई फोटो 1 दिसंबर 2021 की है. फोटो में साफ देखा जा सकता है कि एएसआई द्वारा संरक्षित स्मारक के पास कैसे कंकड़-पत्थर, बांस-बल्ली और कंस्ट्रकशन से जुड़े समान बिखरे हुए है. इन सभी के बीच एक हरी चादर से विक्टोरिया मेमोरियल को ढका गया है.
स्मार्ट सिटी वाराणसी के जनसंपर्क अधिकारी ने इस बाबत पूछने पर कहा, ‘बेनियाबाग पार्क में कार्य शुरू करने से पहले एएसआई प्रशासन की अनुमति ली गई थी. साथ ही कार्य के दौरान एएसआई द्वारा निर्धारित मानकों का ध्यान रखा गया है. विक्टोरिया मेमोरियल के आसपास लैंडस्केप भी की जाएगी.’
एएसआई धरोहरों में शामिल एंशियंट मड (तिलमपुर) और रिमेंस ऑफ फाइन ब्रिक फोर्ट (चंद्रवती) दो ऐसी धरोहर हैं जिनके बारे में ज्यादा जानकारी उपलब्ध नहीं है. इनके विषय में सार्वजनिक जागरूकता बढ़ाने का प्रयास भी नहीं किया गया.
कुछ इतिहासकारों के अनुसार, सारनाथ के पास स्थित तिलमपुर तीर्थयात्रियों के लिए एक सराय के समान था. एएसआई द्वारा संरक्षित यह एंशियंट मड इसी स्थान के ऐतिहासिकता का प्रमाण है.
आज तिलमपुर में इस टीले के पास केवल कुछ बोर्ड लगे हैं जो यह तो बताते है कि यह एएसआई के संरक्षण में है. हालांकि यहां ऐसा कोई बोर्ड या संकेतक नहीं जो इसके ऐतिहासिक महत्व को समझा सके.
इसके अभाव में पास ही स्थित मजार ने टीले पर एक हरे रंग की चादर डालकर इसे धार्मिक स्थान बना दिया है. टीले के पास ही एक विशेष रूप से सक्षम युवक ने अपनी दुकान लगाई हुई है.
नाम न लिखने की शर्त पर युवक ने बताया, ‘कुछ वर्ष पहले अधिकारी निरीक्षण के लिए आए था. मेरी गुमटी पर आपत्ति की… फिर सारनाथ थाने में एफआईआर लिखवाया गया. दरोगाजी आए थे. दरोगाजी कागज फाड़कर फेंककर चले गए. बोले जब बनने लगेगा तो तुम हटा ही लोगे.’
रिमेंस ऑफ फाइन ब्रिक फोर्ट (चंद्रवती) के हालात इससे भी बुरे है. गंगा किनारे बसे चंद्रवती ( प्राचीन नाम चंद्रपुरी) को 8वें जैन तीर्थांकर चंद्रप्रभु के जन्म स्थान के रूप में जाना जाता है.
एएसआई संरक्षित धरोहर रिमेंस ऑफ फाइन ब्रिक फोर्ट गंगा किनारे स्थित श्री चंद्रावती तीर्थ जिनालय के पास है. लेकिन पहाड़ और झाड़ियों के बीच कोई बोर्ड या संकेतक नहीं है जो यह बता सके कि यह एएसआई द्वारा संरक्षित धरोहर है. पहाड़ पर जिन स्थानों पर फाइन ब्रिक्स दिखते हैं वह स्थान गंदगी से घिरा हुआ है.
बनारस के एएसआई धरोहरों के अनदेखी की कहानी में अगला नाम है लेफ्टिनेंट कर्नल पोगसंस टूंब (गुंबद) का है. इस गुंबद का पता साल 2013 की कैग रिपोर्ट के माध्यम से मिलता है. यह लहरतारा रेलवे क्रॉसिंग (गेट नं-4) के पास स्थित है. यह क्रॉसिंग वाराणसी केंटोमेंट परिसर के पास है.
पहली नजर में यह एक मजार के समान लगता है. हरे रंग से पुता हुआ छज्जा और कब्र, कब्र पर हरी चादर और कब्र के एक ओर अगरबत्ती, धूप और फूल चढ़ाया गया है. आस-पास के दुकानदारों से बातचीत करने पर पता चला कि इस स्थान को ‘कर्नल बाबा’ की समाधि के नाम से जाना जाता है.
स्मारक की देखरेख करने वाले छन्नु यादव बताते है, ‘हम ही लोग यहां झाडू लगाते है. सरकारी अधिकारी कुछ समय पहले आए थे. अपना लिख-पढ़ कर ले गए. लेकिन आप 25 दिसंबर को आइए यहां समारोह होता है. सुबह से शाम तक लगभग दो हजार लोग आते है. मन्नत मांगते हैं और मन्नत पूरी होने पर चादर चढ़ाते हैं.’
25 दिसंबर यानी क्रिसमस के दिन स्थानीय लोग समाधि को सजाते हैं. हालांकि, किसी को नहीं पता कि यह मान्यता कैसे शुरू हुई पर श्रद्धा और विश्वास के कारण लोग आते हैं. आस-पास एएसआई का कोई बोर्ड नहीं लगा जो बता सके कि यह स्मारक सरकार द्वारा संरक्षित है.
इस सरकारी लापरवाही का परिणाम है कि लोग एक अंग्रेज सैनिक की समाधि को कर्नल बाबा मान बैठे हैं.
टू ग्रेव्स एट ओल्ड आर्टलरी लाइन की कहानी भी काफी रोचक है. इसरो द्वारा विकसित भुवन मानचित्र की मदद से हमने इस स्मारक को वाराणसी कैंटोनमेंट परिसर में पाया. लेकिन इस स्थान पर केवल दो नहीं सौ से भी ज्यादा सैनिकों की कब्रें हैं.
यह कब्रिस्तान जिस परिसर में स्थित है यहां कुछ ईसाई परिवार भी रहते हैं. इनमें से बात करने पर पता चला कि यह कब्रिस्तान सेंट मैरी चर्च कैंटोनमेंट द्वारा संचालित किया जाता है और यहां आज भी शवों को दफनाया जाता है.
औपनिवेशिक काल की जिन स्मारकों को खोजना आज बेहद मुश्किल है, उनमें अधिकतर 1781 के बलवे में मारे गए सैनिकों की कब्र हैं. कंपनी शासन को जड़ों से हिला देने वाले इस विद्रोह की याद में आजादी के बाद की सरकारों द्वारा कोई स्मारक नहीं बनाया गया. सिर्फ अंग्रेजों द्वारा संरक्षित कुछ कब्र ही 1781 के विद्रोह के साक्ष्य के रूप में उपस्थित हैं.
आज के हालात को देखकर लगता है कि अगर इन स्मारकों के संरक्षण के लिए कुछ किया नहीं गया तो यह जल्द ही समाप्त हो जाएगा.
बनारस में एएसआई के यह स्मारक शहर के इतिहास के विभिन्न कालखंडों के साक्षी हैं. स्मारकों की यह दशा शहर की ऐतिहासिकता को भी खतरे में डालता है.
काशी के स्मारकों की ऐसी दुर्दशा को लेकर एएसआई सब-सर्किल, सारनाथ से कई ईमेल के माध्यम से जवाब मांगने का प्रयास किया गया, जिन पर अभी तक कोई जवाब नहीं मिला है.
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)
नोट: यह रिपोर्ट स्वतंत्र पत्रकारों के लिए नेशनल फाउंडेशन ऑफ इंडिया की मीडिया फेलोशिप के तहत की गई है.