बीते चार-पांच दिनों में जहांगीरपुरी में जो कुछ भी घटित हुआ, उसने इस देश की निकृष्टतम और श्रेष्ठतम, दोनों तस्वीरों को साफ़ कर दिया है. इस छोटी-सी अवधि में ही हम जान गए हैं कि भारत को पूरी तरह से तबाह कैसे किया जा सकता है. साथ ही यह भी कि अगर उसे बचाना है तो क्या करना होगा.
जहांगीरपुरी की घटनाओं ने भारत का निकृष्टतम और श्रेष्ठतम दिखला दिया है. दो दिनों में ही हमें मालूम हो गया कि भारत को पूरी तरह से तबाह कैसे किया जा सकता है. और यह भी कि अगर उसे बचाना है तो क्या करना होगा.
जो निकृष्टतम था वह भारतीय जनता पार्टी, प्रशासन और पुलिस के वक्तव्यों और कृत्यों में प्रकट हुआ. हिंदी टेलीविज़न चैनलों के ‘पत्रकारों’ में भी. आम आदमी पार्टी ने फिर साबित किया कि वह द्विअर्थी संवादों की कला पर इतनी मुग्ध है कि वह नहीं देख पा रही कि उसकी चतुराई भी उसकी अवसरवादिता और कायरता को नहीं छिपा सकती.
जहांगीरपुरी में हनुमान जयंती के दिन एक हिंसक भीड़ को उन गलियों से गुजरने दिया गया जिनमें ज़्यादातर मुसलमान रहते हैं. हाथों में तलवार, दूसरे धारदार हथियार, तमंचे लहराते हुए और मुसलमानों को गालियां देते हुए यह हिंसक भीड़ शाम की नमाज़ के वक़्त मस्जिद के सामने हंगामा करने लगी.
मुसलमानों ने इस भीड़ को पीछे धकेला. पत्थर चले. रिपोर्ट है कि गोलियां चलीं. पुलिस के सामने यह सब कुछ हुआ. पुलिस ने कहा कि यह जुलूस बिना उसकी इजाज़त के निकाला गया. ऐसे जुलूस को वह शोभायात्रा कहती है. गाली-गलौज, बंदूक़, तलवार के साथ हुड़दंग को अगर हम शोभायात्रा मानते हैं तो हम भी धन्य हैं.
पुलिसकर्मी घायल हुए. और लोग भी. लेकिन कैसे, यह पता करने के पहले मुसलमानों की गिरफ़्तारी शुरू हो गई. हिंसा के पीछे एक साज़िश की कहानी भी गढ़ ली गई. यह सब कुछ दिल्ली पुलिस के चरित्र और उसके इतिहास के अनुकूल ही था. फिर भी हमें कहना पड़ेगा कि कार्रवाई का यह तरीक़ा ग़लत था, निकृष्ट था.
पुलिस ने अपने धर्म का त्याग पूरी तरह कर दिया है. वह भारतीय जनता पार्टी की राजनीतिक परियोजना को लागू करने वाला दंडात्मक बल मात्र बनकर रह गई है. इसमें उसे आनंद भी आ रहा है. सारी प्रक्रियाओं को धता बताकर मुसलमानों के ख़िलाफ़ द्वेषपूर्ण हिंसा में भाग लेना बल्कि उसे क़ानूनी जामा पहनाना ही दिल्ली पुलिस का मुख्य काम रह गया मालूम पड़ता है.
पुलिस ने इस हिंसा के बाद एक बार बयान जारी किया कि बिना अनुमति जुलूस निकालने के लिए उसने विश्व हिंदू परिषद के नेता को नोटिस जारी की. यह भी कि शायद इस ‘अपराध’ के लिए एक जिम्मेदार नेता को गिरफ़्तार भी किया है.
पर तुरंत ही परिषद ने पुलिस को सार्वजनिक रूप से उसके ख़िलाफ़ युद्ध की धमकी दी. तुरंत पुलिस ने सफ़ाई दी कि नेता से सिर्फ़ तफ़्तीश के सिलसिले में बातचीत की गई थी. ऐसा करके उसने गुंडों के सामने अपना इक़बाल ख़त्म कर लिया, इसकी उसे परवाह नहीं. बल्कि उनके दल, भारतीय जनता पार्टी के प्रति अपनी वफ़ादारी साबित करने का उसे संतोष है.
भारतीय जनता पार्टी के नेताओं ने फ़ौरन प्रचार शुरू किया कि जहांगीरपुरी में बांग्लादेशी और रोहिंग्या अवैध रूप से अतिक्रमण करके रह रहे हैं और इस हिंसा में उनका हाथ है. यह मांग भी शुरू हो गई कि अतिक्रमण हटाया जाए.
और इस मांग का उत्तरी दिल्ली नगर निगम ने तुरंत दिया. हिंसा के अगले ही दिन उन गलियों के बाहर बुलडोज़र खड़े हो गए. गलियों को तालाबंद कर दिया गया और वहां के सारे रहने वालों को क़ैद करके उनकी दुकानों को ढहाना शुरू कर दिया.
शहर के वकील सक्रिय हुए. उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय के सामने अर्ज़ी लगाई गई कि इस अतिक्रमण विरोधी अभियान को फौरन रोका जाए. सर्वोच्च न्यायालय ने इस कार्रवाई को तत्काल रोकने का आदेश दिया. लेकिन मेयर और अधिकारियों ने ख़बर मिलने के बाद भी बुलडोज़र नहीं रोके.
इससे यह साफ़ हो गया कि वे मात्र अपना कर्तव्य नहीं निभा रहे थे और न क़ानूनी व्यवस्था लागू करने की बाध्यता के कारण वे दुकानों, घरों और मस्जिद को ढहाने का काम कर रहे थे जो कोई भी अपनी इच्छा से नहीं करना चाहेगा. लोग मजबूरी में यह करते हैं क्योंकि ऐसा उन्हें करना पड़ता है.
लेकिन जब सर्वोच्च न्यायालय ने उन्हें रोक दिया तब भी उन्होंने ध्वंस जारी रखा. बल्कि आदेश दिखाने के बाद भी कहा कि जब तक उनके हाथ काग़ज़ आधिकारिक तरीक़े से नहीं आता, वे नहीं रुकेंगे.
इससे साफ़ हो गया कि यह मात्र मुसलमानों को प्रताड़ित करने का बहाना था. इससे इस राजनीतिक दल का ही नहीं बल्कि प्रशासकों के भीतर के निकृष्ट मुसलमान विरोध का भी एक और प्रमाण मिला. चूंकि अभी भी उन्हें प्रक्रिया की आड़ लेनी है तो इस विध्वंस में हिंदू भी चपेट में आ गए. लेकिन इरादा साफ़ था.
इस बीच हिंदी जन संचार माध्यमों ने अपने भीतर के निकृष्ट मुसलमान विरोध का अश्लील प्रदर्शन हुआ. मुसलमानों के घर टूट रहे हैं, उनकी रोज़ी-रोटी के साधन नष्ट किए जा रहे हैं, यह देखकर जो उछल रहा है, नाच रहा है, चीख रहा है, वह क्या इंसान भी है, पत्रकार होने की बात तो छोड़ ही दीजिए? यह निकृष्टता टेलीविज़न के पर्दे से हमारे घरों में गलाज़त फैला रही है. लेकिन इसमें हमें मज़ा आ रहा है.
इस घटियापन के बिना वह क्रूरता संभव नहीं थी जो भारतीय जनता पार्टी की राजनीति का स्वभाव है. घटियापन आम आदमी पार्टी के नेताओं के बयानों में था. जब उन सबने कहा कि बांग्लादेशी और रोहिंग्या लोगों को भाजपा बसा रही है ताकि वह दंगा करा सके.
यह भी उन्होंने कहा कि भाजपा गुंडों और लफ़ंगों की पार्टी है लेकिन इससे उनकी चतुराई छिपाए नहीं छिपती. उनके बयान में बांग्लादेशी और रोहिंग्या के बहाने मुसलमानों के ख़िलाफ़ घृणा प्रचार प्रच्छन्न है लेकिन वह समझने वाले सब समझ रहे हैं.
आम आदमी पार्टी की यह चतुराई इसलिए और भी क्रूरतापूर्ण है कि वह जिन्हें बाहरी कह रही है, वे उसके मतदाता रहे हैं. उनके बल पर वह सत्ता में आई है. और अब उसका इस्तेमाल करके वह मुसलमानों के ख़िलाफ़ पूर्वाग्रह और घृणा को और गाढ़ा कर रही है.
उसके समर्थक यह कहकर उसकी वकालत करते रहे हैं कि वह हिंदू भले दिखे, मुसलमान विरोधी नहीं. लेकिन उसके हर बयान से ज़ाहिर होता है कि वह मुसलमानों के ख़िलाफ़ घृणा का खुलकर इस्तेमाल करती है. यानी, बिना मुसलमान विरोधी घृणा के हिंदूपन संभव नहीं, यह साबित किया जा रहा है. और भले आपके समर्थक हों, मुसलमानों की बलि चढ़ाने में उसे संकोच नहीं.
ताकतवर लोगों के इस तमाम घटियापन और क्रूरता के बीच हमें इंसानी भलाई और श्रेष्ठता के सबूत मिले. जिन गलियों में हिंसा हुई थी, उसमें रहनेवाले हिंदुओं और मुसलमानों ने एक दूसरे का एक दूसरे का साथ नहीं छोड़ा. हिंदू औरतों और मर्दों ने खुल कर कहा कि यह हिंसा उस लफ़ंगों की भीड़ ने भड़काई थी जिसे पुलिस शोभायात्रा कह रही है. हिंदुओं ने अपने पड़ोसी मुसलमानों को दोषी मानने से इनकार कर दिया.
मुसलमानों ने भी अपनी नागरिकता का दावा इस हिंसा के बावजूद बरकरार रखा. राजकीय हिंसा के सामने ऐसा करने के लिए ख़ासी हिम्मत चाहिए. वह हिम्मत असाधारण नहीं है, यह जहांगीरपुरी के निवासियों ने बतला दिया है.
इस निकृष्टता के बीच ऐसे वामपंथी कार्यकर्ता थे जो इन गलियों में मौजूद रहे. पहले दिन से. अगले दिन जब बुलडोज़र रुक नहीं रहे थे तो मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के बृंदा करात और हन्नान मोल्लाह वहां पहुंचे और बुलडोजर के सामने खड़े हुए.
कोई कारण न था कि वे वहां जाते. संसदीय राजनीति के घटिया तर्क से. उनके वोटर यहां नहीं है. अगर कोई यह आरोप लगाए कि वे बंगाल को ध्यान में रखकर ऐसा कर रहे हैं, तो इससे उसका घटियापन ज़ाहिर होता है. बंगाल में चुनाव हो चुके और इस अच्छाई की स्मृति बंगाल की व्यावहारिक बाध्यता के आगे याद रखी जाएगी, उसमें शक है. निश्चय ही माकपा के नेता किसी फ़ायदे के लिए यह नहीं कर रहे थे.
और उन वकीलों को याद रखिए जिन्होंने अदालतों दरवाज़े खटखटाए. यह सब कुछ वह है जिसके सहारे हम उस निकृष्ट क्रूरता से लड़ सकते हैं जो हमें दलदल में घसीट रही है.
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)