आंबेडकर ने हिंदू धर्म क्यों छोड़ा

14 अक्टूबर 1956 को आंबेडकर ने बौद्ध धर्म अपनाया था. वे देवताओं के संजाल को तोड़कर एक ऐसे मुक्त मनुष्य की कल्पना कर रहे थे जो धार्मिक तो हो लेकिन ग़ैर-बराबरी को जीवन मूल्य न माने.

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(यह लेख मूल रूप से 14 अप्रैल 2017 को प्रकाशित हुआ था.)

‘यदि नई दुनिया पुरानी दुनिया से भिन्न है तो नई दुनिया को पुरानी दुनिया से अधिक धर्म की जरूरत है.’  डॉक्टर आंबेडकर ने यह बात 1950 में ‘बुद्ध और उनके धर्म का भविष्य’ नामक एक लेख में कही थी. वे कई बरस पहले से ही मन बना चुके थे कि वे उस धर्म में अपना प्राण नहीं त्यागेंगे जिस धर्म में उन्होंने अपनी पहली सांस ली है.

14 अक्टूबर 1956 को उन्होंने बौद्ध धर्म अपना लिया. आज उनके इस निर्णय को याद करने का दिन है. यह उनका कोई आवेगपूर्ण निर्णय नहीं था, बल्कि इसके लिए उन्होंने पर्याप्त तैयारी की थी.

उन्होंने भारत की सभ्यतागत समीक्षा की. उसके सामाजिक-आर्थिक ढांचे की बनावट को विश्लेषित किया था और सबसे बढ़कर हिंदू धर्म को देखने का विवेक विकसित किया.

आजादी की लड़ाई और न्याय का सवाल

जब अंग्रेजों से भारत की आजादी की लड़ाई लड़ी जा रही थी तो यह बात महसूस की गई थी कि भारत को अपनी अंदरूनी दुनिया में समतापूर्ण और न्यायपूर्ण होना है. अगर भारत एक आजाद मुल्क बनेगा तो उसे सबको समान रूप से समानता देनी होगी. केवल सामाजिक समानता और सदिच्छा से काम नहीं चलने वाला है.

सबको इस देश के शासन में भागीदार बनाना होगा. डाक्टर आंबेडकर इस विचार के अगुवा थे. 1930 का दशक आते-आते भारत की आजादी की लड़ाई का सामाजिक आधार पर्याप्त विकसित हो चुका था. इसमें विभिन्न समूहों की आवाजें शामिल हो रही थीं.

अब आजादी की लड़ाई केवल औपनिवेशिक सत्ता से लड़ाई मात्र तक सीमित न रहकर इतिहास में छूट गए लोगों के जीवन को इसमें समाहित करने की लड़ाई के रूप में तब्दील हो रही थी. जिनके हाथ में पुस्तकें और उन्हें सृजित करने की क्षमता थी, उन्होंने बहुत से समुदायों के जीवन को मुख्यधारा से स्थगित सा कर दिया था.

शोषण के सांस्कृतिक, आर्थिक एवं राजनीतिक दासत्व के प्रकट-अप्रकट तन्तुओं को रेशा-रेशा अलग करके और इनसे मुक्ति पाने की कोशिशें शुरू हुईं.

आंबेडकर आजादी की लड़ाई के राजनीतिक और ज्ञानमीमांसीय स्पेस में दलितों को ले आने में सफल हुए. उन्होंने कहा कि दलितों के साथ न्याय होना चाहिए. 1932 में पूना समझौते से पहले किए गए उनके प्रयासों को हम इस दिशा में देख-समझ सकते हैं.

यद्यपि इस समय दलितों को पृथक निर्वाचक-मंडल नहीं मिल सका लेकिन अब उन्हें उपेक्षित नही किया जा सकता था. जब भारत आजाद हुआ तो देश का संविधान बना. सबको चुनाव लड़ने और अपने मनपसंद व्यक्ति को अपना नेता चुनने की आजादी मिली.

आज दलित अपना नेता चुन रहे हैं, वे नेता के रूप में चुने जा रहे हैं. भारत के संविधान में आंबेडकर की इन अनवरत लड़ाइयों की खुशबू फैली है.

धर्म, समाज और राजनीति

गेल ओमवेट ने आंबेडकर की एक जीवनी लिखी है. उसका नाम है – डॉक्टर आंबेडकर: प्रबुद्ध भारत की ओर. यह प्रबुद्धता आंबेडकर के सामाजिक-आर्थिक चिंतन में तो दिखती ही है, वे धर्म के बिना मनुष्य की कल्पना भी नही करते हैं.

मुंबई के मिल मजदूरों, झुग्गी बस्तियों, गरीब महिलाओं के बीच भाषण देते हुए आंबेडकर समझ रहे थे कि भारतीय मन धर्म के बिना रह नही सकता लेकिन क्या यह वही धर्म होगा जिसने उस जीवन का अनुमोदन किया था जिसके कारण दलितों को सदियों से संतप्त रहना पड़ा है. वे इस धर्म को त्याग देना चाहते थे.

जैसाकि आंबेडकर के एक अन्य जीवनीकार वसंत मून ने लिखा है कि वे अपने समय में प्रचलित अन्य दूसरे धर्मों की संरचना पर विचार करने के पश्चात ही बौद्ध धर्म को अपनाने की ओर अग्रसर हुए थे. गेल ओमवेट ने लिखा भी है कि अंबेडकर द्वारा बौद्ध धर्म को एक उचित धर्म मानने के पीछे इस धर्म में छिपी नैतिकता तथा विवेकशीलता है.

यह विवेकशीलता उसके लोकतांत्रिक स्वरूप में निहित थी. अपने प्रसिद्द लेख बुद्ध अथवा कार्ल मार्क्स में आंबेडकर कहते हैं कि ‘भिक्षु संघ का संविधान लोकतंत्रात्मक संविधान था. बुद्ध केवल इन भिक्षुकों में से एक भिक्षु थे. अधिक से अधिक वह मंत्रिमंडल के सदस्यों के बीच एक प्रधानमंत्री के समान थे. वह तानाशाह कभी नहीं थे. उनकी मृत्यु से पहले उनसे दो बार कहा गया कि वह संघ पर अपना नियंत्रण रखने के लिए किसी व्यक्ति को संघ का प्रमुख नियुक्त कर दें. लेकिन हर बार उन्होंने यह कहकर इंकार कर दिया कि धम्म संघ का सर्वोच्च सेनापति है. उन्होंने तानाशाह बनने और नियुक्त करने से इंकार कर दिया.’

भारत की संविधान सभा में बहस करते हुए, अपने साथी राजनेताओं की बातों में कुछ जोड़ते-घटाते आंबेडकर को सुनिए तो लगेगा कि कोई सहजज्ञानी राजनीतिक भिक्षु बोल रहा है. आप चाहें तो कांस्टीट्यूशनल असेंबली डिबेट्स को पढ़ सकते हैं. यह कोई अनायास नहीं है कि हमारे समय के महत्वपूर्ण इतिहासकार रामचंद्र गुहा अपनी किताब ‘मेकर्स आफ माडर्न इंडिया’ में आंबेडकर को ‘वाइज डेमोक्रेट’ कहते हैं.
आंबेडकर क्रांति के लिए तीन कारकों को जिम्मेदार मानते थे- इसके लिए व्यक्ति में न्यायविरुद्ध अहसास की उपस्थिति होनी चाहिए, उसे यह पता हो कि उसके साथ अनुचित व्यवहार किया जा रहा है और हथियार की उपलब्धता.

वे बताते हैं कि शिक्षा तक पहुंच को रोक दिया जाता है जिससे लोग विश्वास करने लगते हैं कि उनकी दुर्दशा पूर्व निर्धारित है. यह उनकी आर्थिक दशा को भी गिरा देती है. लोग शिकायत करना बंद कर देते हैं. अगर उनके पास शिकायत भी है तो उसे कार्य रूप में परिणत करने के किए हथियार नही उठा सकते हैं.

यहां आंबेडकर का नजरिया मार्क्सवादी लगता है लेकिन हमें नहीं भूलना चाहिए कि वे एक प्रशिक्षित अर्थशास्त्री थे जो राजनीति विज्ञान के सैद्धांतिक और व्यवहारिक धुरंधर भी. वर्ण व्यवस्था द्वारा संचालित समाज की हिंसा को उस आंबेडकर ने बहुत शिद्दत से सहा था जिसके पास देश और दुनिया का, अर्थव्यवस्था और राजनीति का गहन ज्ञान था, जिसके पास अपने समय के बेहतरीन विश्वविद्यालयों की सबसे ऊंची उपाधियां थीं.

गरीबी, बहिष्करण, लांछन से भरा बचपन मन के एक कोने में दबाये हुए आंबेडकर ने देखा था कि उनके जैसे करोड़ों लोग भारत में किस प्रकार का जीवन जी रहे हैं. उनके जीवन और आत्मा में प्रकाश शिक्षा ही ला सकती है. यही उन्हें उस दासता से मुक्त करेगी जिसे समाज, धर्म और दर्शन ने उनके नस-नस में आरोपित कर दिया है.

इस दासता को दलितों को अपनी नियति मान लेने को कहा गया था. आंबेडकर इसे तोड़ देना चाहते थे. वे देवताओं के संजाल को तोड़कर एक ऐसे मुक्त मनुष्य की कल्पना कर रहे थे जो धार्मिक तो हो लेकिन गैर-बराबरी को जीवन मूल्य न माने. इसलिए जब अक्टूबर 1956 में उन्होंने हिंदू धर्म से अपना विलगाव किया तो उन्होंने स्वयं और अपने अनुयायियों को बाइस प्रतिज्ञाएं करवाईं.

यह प्रतिज्ञाएं हिंदू धर्म की त्रिमूर्ति में अविश्वास, अवतारवाद के खंडन, श्राद्ध-तर्पण, पिंडदान के परित्याग, बुद्ध के सिद्धांतों और उपदेशों में विश्वास, ब्राह्मणों द्वारा निष्पादित होने वाले किसी भी समारोह न भाग लेने, मनुष्य की समानता में विश्वास, बुद्ध के आष्टांगिक मार्ग के अनुसरण, प्राणियों के प्रति दयालुता, चोरी न करने, झूठ न बोलने, शराब के सेवन न करने, असमानता पर आधारित हिंदू धर्म का त्याग करने और बौद्ध धर्म को अपनाने से संबंधित थीं.

बुद्ध और आंबेडकर की स्त्रियां

राहुल सांकृत्यायन ने हालांकि कभी ऐसा दावा नहीं किया लेकिन वे बुद्ध के सबसे बेहतरीन जीवनीकार माने जा सकते हैं. उनकी लिखी बुद्धचर्या- तथागत बुद्ध: जीवनी और उपदेश को दलित साहित्य के प्रकाशक गौतम बुक सेंटर ने छापा है. इस जीवनी से पता चलता है कि महात्मा बुद्ध स्त्रियों के प्रति उदार थे.

उनकी करुणा की व्याप्ति उन्हें खीर खिलाने वाली सुजाता से लेकर महाप्रजापति गौतमी तक विस्तृत थी. उनके धर्म का लक्ष्य मानव को मुक्ति या निर्वाण का मार्ग दिलाना था. इसमें स्त्रियां भी थी. उन्हें बौद्ध धर्म में कुछ राहत तो मिली थी किंतु ऐसी राहत किंतु-परतुं के साथ थी. इसके लिए आप राहुल सांकृत्यायन की किताब में प्रजापति-सुत्त पढ़ सकते हैं जहाँ संघ में प्रवेश देते समय बुद्ध स्त्रियों पर निश्चित प्रतिबंध लगाते दीख रहे हैं.

आंबेडकर आधुनिकता, लोकतंत्र और न्याय की संतान थे. वे पेशे से वकील भी थे. मनुष्य की गरिमा को बराबरी दिए बिना वे आधुनिकता, लोकतंत्र और न्याय की कल्पना भी नहीं कर सकते थे.

उन्होंने भारतीय समाज में घर और बाहर-दोनों जगह स्त्रियों की बराबरी के लिए संघर्ष किए. जब वे जवाहरलाल नेहरू की सरकार में विधिमंत्री बने तो उन्होंने स्त्रियों को न केवल घरेलू दुनिया में बल्कि उन्हें आर्थिक और लैंगिक रूप से मजबूत बनाने के लिए हिंदू कोड बिल प्रस्तुत किया.

यह बिल पास नहीं होने दिया गया. आंबेडकर ने इस्तीफा दे दिया. हमें इसे जानना चाहिए कि यह बिल क्यों पास नही होने दिया गया? यदि हम यह जान सकें तो अपने आपको न्याय की उस भावना के प्रति समर्पित कर पाएंगे जिसका सपना डाक्टर भीमराव आंबेडकर ने देखा था.

(रमाशंकर सिंह स्वतंत्र शोधकर्ता हैं.)