नई बात यह है कि इस बार वे ‘मंदिर वहीं बनाएंगे’ के नारे लगाते अयोध्या नहीं लौटे हैं. सरयू तट पर भगवान राम की भव्य प्रतिमा लगाने और भव्य देव दीपावली मनाने आए हैं.
वे फिर अयोध्या लौट रहे हैं. कहना चाहिए, लौट आये हैंः ‘हिन्दुत्व’ पर! करें भी क्या, 2014 के लोकसभा चुनाव में इस्तेमाल किए गए विकास के भांडे की तीन सालों में ही न सिर्फ कलई उतर गई बल्कि पेंदी तक में छेद हो गये हैं!
कहां तो उन्हें महत्वाकांक्षी नोटबंदी से ऐसा जादू जागने की उम्मीद थी कि कालाधन तो पूरी तरह खत्म हो ही, आतंकवाद की भी कमर टूट जाये और कहां जीएसटी के साथ मिलकर उसके कुफल इस कदर सिर चढ़कर बोलने लगे हैं कि विश्वबैंक तक को देश की जीडीपी वृद्धि दर खतरे में लगने लगी है.
अभी इसी साल देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में उसकी जनता को दिखाया गया ‘जंगल राज’ और कब्रिस्तान व श्मशान में कथित भेदभाव के खात्मे का सपना छह महीनों में ही इस तल्ख हकीकत के हाथों चकनाचूर हो गया है कि उसका मुख्यमंत्री छिपाता तक नहीं कि वह पूर्णकालिक राजनेता नहीं है और उसे हर महीने पांच दिन पूजा-पाठ से ही छुट्टी नहीं रहती!
महीने के बाकी दिनों में भी उसके भगवा चोले को अपनी कार की आंतरिक साज-सज्जा से लेकर तौलियों, स्कूली बस्तों, बिजली के खंभों और बसों तक का भगवा छोड़ कोई और रंग नहीं रुचता.
कोई लाख समझाये, अपनी आक्रामकता के सुरूर में वह समझ ही नहीं पाता कि चमन में इख़्तिलात-ए-रंग-ओ-बू से बात बनती है, हम ही हम हैं तो क्या हम हैं तुम ही तुम हो तो क्या तुम हो.
तिस पर ‘देश में मोदी, प्रदेश में योगी’ के जतन से रचे गए तिलिस्म के बेपरदा हो चले अंतर्विरोधों ने ऐसी जटिल उलझनें खड़ी कर दी हैं, जो सुलझने को ही नहीं आ रहीं. उनके कारण सुब्रमण्यम स्वामी तो सुब्रमण्यम स्वामी, यशवंत सिन्हा, अरुण शौरी और शत्रुघ्न सिन्हा तक बेगाने और ‘आउट आफ कंट्रोल’ हुए जा रहे हैं!
ऐसे में ‘पुनर्मूषको भव’ की गति को प्राप्त हो जाने की विवशता सामने खड़ी है तो आप ही बताइए कि क्यों वे इस बात से लज्जित महसूस करने में ही सारा वक्त गंवा दें कि उनके अयोध्या लौटने को लोग बुद्धू के घर लौट आने या ‘हारे को हरिनाम’ की तरह ले लेंगे?
इतने ही लजाधुर होते वे, तो छह दिसम्बर, 1992 को हुआ बाबरी मस्जिद का ध्वंस चुल्लू भर पानी में डूबने के लिए कुछ कम था क्या?
आखिरकार ‘हिंदुत्व’ के पुराने ‘अग्रदूत’ हैं वे और देश की सत्ता तक की अपनी उतार-चढ़ाव भरी यात्राओं के अनुभवों से जानते हैं कि उनके लिए धर्म के नाम पर लोगों को बहकाना, बांटना और वोट हथियाना हमेशा सबसे आसान रहा है.
इस ‘आसानी’ के बावजूद, किसी को गलतफहमी है कि वे 2019 के लोकसभा चुनाव में, उससे पहले गुजरात व हिमाचल आदि की विधानसभाओं के चुनाव में या गोरखपुर व फूलपुर लोकसभा सीटों के उपचुनाव में ही ‘पगला गये विकास’ की बलि चढ़ जायेंगे, खुशी-खुशी और हिंदुत्व की नावों पर बैठकर वैतरणी पार करने से साफ मनाकर देंगे, तो उसे दिन में सपने देखने की आदत छोड़कर इस सीधे सवाल का सामना करना चाहिए कि उनकी इस आसानी को कठिनाई में बदला जा सकता है या नहीं?
आखिरकार आज की दुनिया में जनता द्वारा की गई सत्ताधीशों की अनेक बेदखलियों के बीच किसी सत्ताधीश के भलमनसी से सत्ता छोड़ देने की एक भी नजीर क्यों नहीं है?
इस सवाल का सामना किए बिना कोई कैसे समझ सकता है कि गुजरात व हिमाचल से लेकर केरल व बंगाल तक के वोटरों को खास हिन्दुत्ववादी संदेश देने के लिए वे अयोध्या में ही नहीं अमेठी में भी अचानक क्यों सक्रिय हो उठे हैं और क्यों योगी को मोदी से बड़ा करने लगे हैं?
बहरहाल, नई बात यह है कि इस बार वे ‘मंदिर वहीं बनायेंगे’ के नारे लगाते अयोध्या नहीं लौटे हैं. सरयू तट पर भगवान राम की भव्य प्रतिमा लगाने और भव्य देव दीपावली मनाने आये हैं.
हां, सत्ता में आने के बाद से उनके निकट ‘भव्य’ से कम कुछ होता ही नहीं, इसलिए इस सबको लेकर ‘गिनीज बुक आफ वर्ल्ड रिकार्ड्स’ में अपना नाम लिखाने का उनका मंसूबा भी है ही.
इनमें भगवान राम की प्रतिमा की बात करें तो उसका उनकी उक्त ‘आसानी’ से सीधा जुडाव है. एक कार्टूनिस्ट की मानें तो उसकी जैसी प्रतिमाओं के साथ सुविधा यह है कि उन्हें न अस्पताल की जरूरत होती है, न आक्सीजन की और इनकी कितनी भी कमी हो जाये, वे बदनामी कराने पर नहीं उतरतीं.
फिर इस प्रतिमा को तो ‘वहीं’ राममंदिर की जब-तब उठती रहने वाली मांग की ओर से ध्यान हटाने के लिए भी इस्तेमाल किया जा सकता है, राम का नाम लेकर बोले गये अनगिनत झूठों पर परदे के रूप में भी.
तभी तो उसे लेकर तत्परता का हाल यह है कि प्रदेश सरकार ने प्रस्ताव भेजा नहीं कि राज्यपाल राम नाईक ने कह दिया कि लोग उसे देखने को लेकर बेसब्र हैं.
इस बेसब्री का सच यह है कि अयोध्या, उसके आसपास या दूर-दराज के भगवान राम में श्रद्धा रखने का दावा करने वाले किसी एक व्यक्ति ने भी कभी इस संबंधी कोई औपचारिक तो क्या अनौपचारिक मांग या प्रयास भी नहीं किया.
ऐसी उन्मादी रामधुन के बीच उनसे यह उम्मीद तो फिजूल ही है कि वे जो कुछ भी करेंगे, उसमें हमारे लोकतांत्रिक संविधान के धर्मनिरपेक्षता जैसे पवित्र मूल्य की किंचित भी गमक होगी या कि वे याद रख पायेंगे कि उसके तहत मिले राज्य के प्रतिनिधित्व में वे उससे परे जाकर कोई धर्म नहीं अपना सकते, लेकिन हैरत है कि वे यह भी नहीं समझ पा रहे कि भगवान राम के साथ दीपावली जैसे प्रकाश व उल्लास के पर्व तक का, अपनी स्वार्थी राजनीति को चमकाने के उद्देश्य से सरकारीकरण करके वे अपना जितना भी भला कर रहे हों, इस दोनों का तो नहीं ही कर रहे.
इस बार तो, जब मुख्यमंत्री के गृहनगर तक में सरकार की आपराधिक लापरवाही के कारण हम अब तक मासूमों की मौतों का सिलसिला नहीं रोक पाये है, अपने हृदय को अंधेरे का अभयारण्य बनाकर बाकी लोगों की आंखों को चकाचौंध से अंधी कर देने के ऐसे इरादे के लिए छप्पन इंच का सीना ही नहीं, पत्थर का कलेजा भी चाहिए.
ऐसे में बेहतर रास्ता यह था कि कम से कम इस बार आॅक्सीजन की कमी के कारण अकाल कवलित हो गये हजारों मासूमों के शोक में यह पर्व तड़क-भड़क के बजाय बेहद सादगी और शालीनता से मनाया जाता, ताकि उन परिवारों को अपने जख्मों पर नमक पड़ता न महसूस हो जिन्होंने सरकारी काहिली के कारण अपने नौनिहालों को खोया है.
इस बार तो इस पश्चाताप की भी जरूरत थी कि प्रदेश में अभी भी एक हजार की जनसंख्या पर एक भी डॉक्टर नहीं है. भूख के सूचकांक में देश की हालत उत्तर कोरिया, म्यांमार, श्रीलंका और बंगलादेश से भी खराब है, तो एक साल तक के बच्चों की मौतों के मामले में उत्तर प्रदेश पूरे देश में टॉप पर.
बिहार के बाद देश में सबसे ठिगने बच्चे भी उत्तर प्रदेश में ही हैं-पांच साल तक के 46.3 फीसदी बच्चे ठिगने हैं, 39.5 प्रतिशत कम वजन के तो पांच साल तक के 46.3 प्रतिशत बच्चे कुपोषित.
प्रदेश के ग्रामीण और शहरी इलाकों को मिलाकर 6 से 23 महीने के 5.3 फीसदी बच्चों को ही संतुलित आहार मिल पाता है. प्रदेश में सरकारी आंकड़ों के ही अनुसार हर रोज 650 बच्चे कुपोषण के कारण मर जाते हैं और 50 फीसदी माताएं खून की कमी झेल रही हैं.
बेशक, वे चाहते तो, अपनी आदत के अनुसार, इस पश्चाताप का ठीकरा उन पुरानी सरकारों पर भी फोड़ सकते थे, जिन्होंने अपने समय में कर्तव्यपालन में उनकी जैसी ही अकर्मण्यता बरतकर ये हालात पैदा होने दिए.
लेकिन यह क्या कि अपनी दीपावली के चक्कर में वे प्रेत और छाया से रति और समूची मानवीय संवेदनशीलता का गला घोंटकर गायों के लिए एम्बुलेंस की व्यवस्था कर रहे हैं और हर रोज डायरिया व कुपोषण से मरने वाले 3,700 बच्चों को उनके हाल पर छोड़ दिये हैं.
लेकिन वे ऐसा कैसे करते? प्रदेश के पर्यटन व डेयरी विकास मंत्री लक्ष्मी नारायण चौधरी तो ऐलानिया कह रहे हैं कि योगी सरकार धर्मनीति की राह पर चल रही है और वे अगले नवरात्र से प्रदेश के मथुरा, अयोध्या, विंध्याचल और काशी जैसे धार्मिक स्थलों पर गाय के दूध से बनी मिठाइयों का प्रसाद उपलब्ध कराने पर भी विचार कर रहे हैं.
लेकिन यह धर्मनीति है या अधर्मनीति और उचित है या अनुचित, फैसला उन्हें नहीं लोगों को करना है और उन्हें हमेशा के लिए भरमाकर नहीं रखा जा सकता.
(लेखक फैजाबाद स्थित वरिष्ठ पत्रकार हैं)