दिल्ली, पंजाब, राजस्थान, पश्चिम बंगाल और चंडीगढ़ के बाल अधिकार संरक्षण आयोगों ने महिला एवं बाल विकास मंत्रालय से जेजे एक्ट में हुए संशोधन को अधिसूचित न करने का आग्रह किया है. संशोधन में बाल शोषण संबंधी मामलों में कुछ अपराधों को ग़ैर संज्ञेय के रूप में वर्गीकृत किया गया है.
नई दिल्लीः किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम 2015 (जेजे एक्ट) में मामूली, लेकिन संभावित रूप से प्रभावशाली संशोधन पर चार राज्यों एवं एक केंद्रशासित प्रदेश के बाल अधिकार निकायों ने आपत्ति जताई है.
दिल्ली, पंजाब, राजस्थान, पश्चिम बंगाल और चंडीगढ़ के बाल अधिकार संरक्षण आयोगों ने केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्रालय से संशोधन अधिनियम 2021 को अधिसूचित करने से परहेज करने का आग्रह किया, जो, आयोगों के हिसाब से, बाल शोषण के मामलों में कुछ गंभीर अपराधों को गैर संज्ञेय के रूप में वर्गीकृत करता है.
जेजे एक्ट 2015 में कई बदलाव करने के लिए 2021 में संशोधन किया गया था. इन संशोधनों को राष्ट्रपति की सहमति मिल गई और इसे अधिसूचित भी किया गया. हालांकि, अभी इसके क्रियान्वयन का आदेश नहीं दिया गया.
बाल अधिकार निकायों ने जेजे अधिनियम 2015 की धारा 86 (2) में हुए एक संशोधन का उल्लेख किया, जिसने गंभीर प्रकृति के अपराधों को संज्ञेय से गैर संज्ञेय बना दिया गया. यह संशोधन पुलिस को बिना वॉरंट आरोपी को गिरफ्तार करने और अदालत की मंजूरी के बिना जांच शुरू करने से रोकेगा.
बाल अधिकार आयोगों ने महिला एवं बाल विकास मंत्रालय के सचिव इंदेवर पांडेय को लिखे संयुक्त पत्र में कहा कि यदि इन संशोधन को लागू कर लिया गया तो अनाथालय में बच्चों के प्रति क्रूरता, बच्चों से भीख मंगवाना, शराब और नशीले पदार्थों की तस्करी और यहां तक कि बच्चों की खरीद और बिक्री जैसे अपराध गैर संज्ञेय अपराधों के दायरे में आ जाएंगे.
Letter to Union Secretary GOI by The Wire
आयोगों ने कहा, संक्षेप में समझें तो बच्चों के खिलाफ जो अपराध जेजे एक्ट 2015 के ‘बच्चों के खिलाफ अन्य अपराध’ से जुड़े अध्याय में उल्लिखित हैं, उसमें तीन से सात साल की कैद का प्रावधान है, अब उन्हें गैर संज्ञेय माना जाएगा.
आयोगों ने कहा कि भारत में बाल शोषण के विभिन्न स्वरूपों को ध्यान में रखते हुए ये अपराध जेजे एक्ट के प्रगतिशील अध्यायों में शामिल किए गए थे. हालांकि, ऐसे मामलों में पुलिस को स्वतंत्र रूप से कार्रवाई करने से रोकने से न सिर्फ अपराधियों को बल मिलेगा बल्कि आपराधिक रैकेट का भी हौसला बुलंद होगा. साथ ही पहले से काम के बोझ तले दबी अदालतों का काम भी बढ़ेगा.
आयोगों ने इस संयुक्त पत्र में एक बच्चे के भीख मांगने के संभावित मामले का उल्लेख करते हुए कहा:
भारत में अनुमानित रूप से 3,00,000 बच्चे भीख मांगते हैं.’ हालांकि, कुछ संगठनों का दावा है कि यह संख्या अधिक है. अनुपमा कौशिक ने ‘बच्चों के अधिकारः भारत में सार्वजनिक स्थानों पर बाल भिखारियों की केस स्टडी’ शीर्षक से 2014 के एक शोध में कहा कि वार्षिक तौर पर लगभग 44,000 बच्चे गैंग के हत्थे चढ़ जाते हैं. हालांकि, इन संशोधनों के बाद मजिस्ट्रेट के आदेश के बिना भीख मंगवाने के मकसद से बच्चों के इस्तेमाल को लेकर एफआईआर या जांच नहीं हो पाएगी.’
पत्र में कहा गया कि भारतीय विधि आयोग के हस्तक्षेप (146वीं रिपोर्ट) और 2013 के केरल हाईकोर्ट के फैसले के बाद इन अपराधों को जेजे एक्ट 2015 में संज्ञेय अपराध के तौर पर शामिल किया गया था.
पत्र में कहा गया, ‘जांच शुरू करने में देरी से आरोपियों को साक्ष्यों को प्रभावित करने और जांच को असफल करने का समय मिल जाता है. जिन बच्चों पर आसानी से दबाव बनाया जा सकता है, वे समय बीतने के साथ उतनी सक्षम तरीके से गवाही नहीं दे सकते.’
केंद्र सरकार ने दावा किया था कि उन्होंने इस तरह के मामलों में बच्चों को गिरफ्तारी से बचाने के लिए संशोधित अधिनियम में अपराधों को दोबारा वर्गीकृत किया था. हालांकि, बाल अधिकार आयोगों का तर्क है कि इस तरह के मामलों में पहले ही बच्चों को जेजे एक्ट 2015 के तहत अधिसूचित मॉडल नियमों के नियम आठ के जरिये संरक्षित किया जा सकता है.
संदेह को दूर करने के लिए आयोगों ने सुझाव दिया कि कानून स्पष्ट तौर पर वयस्कों और बच्चों के बीच अंतर कर सकता है लेकिन इसमें ऐसा नहीं किया गया. हालांकि मौजूदा स्वरूप में यह कानून स्पष्ट तौर पर ‘अपराधियों को संरक्षण’ दे रहा है, जिसमें से लगभग सभी वयस्क हैं.
आयोगों ने यह भी तर्क दिया कि भारत ने बाल अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन पर हस्ताक्षर किए हैं, जिसकी वजह से 2015 अधिनियम में संशोधन इसका उल्लंघन है. आयोगों ने कहा कि भले ही कानून के तहत गिरफ्तारी से बचने के लिए एक ऊपरी सीमा तय हो, लेकिन इसे जांच जल्द शुरू करने में बाधा नहीं बनना चाहिए.
आयोगों ने बच्चों के खिलाफ बढ़ रहे अपराधों का हवाला देते हुए कहा कि 2015 अधिनियम में उल्लिखित गंभीर अपराधों को दोबारा वर्गीकृत करने का ‘कोई औचित्य नहीं है’ और यह भी सिफारिश की कि अधिनियम को मूल रूप में वापस लाने के लिए संसद में एक विधेयक दोबारा पेश किया जाए.
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