इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ चुनाव में समाजवादी छात्र सभा ने अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, सांस्कृतिक सचिव और उपमंत्री का पद जीता, एबीवीपी की केवल एक पद पर जीत.
इलाहाबाद विश्वविद्यालय के 2017-18 शैक्षिक सत्र के छात्र संघ चुनावों के परिणाम देर रात घोषित कर दिए गए हैं. समाजवादी पार्टी की छात्र इकाई समाजवादी छात्र सभा ने अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, सांस्कृतिक सचिव और उपमंत्री के पद पर जीत का परचम लहराया है.
भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की छात्र इकाई अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) केवल महामंत्री पद पर चुनाव जीत सकी है. छात्रसंघ के अध्यक्ष पद पर वह बढ़चढ़ कर दावा पेश कर रही थी. इसके लिए उसके पास पर्याप्त नैतिक और राजनैतिक आधार भी था. पिछले सत्र में वह अध्यक्ष पद पर चुनाव जीत चुकी थी. केंद्र और राज्य में उसकी सरकार है.
स्वयं इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्रसंघ के पिछले अध्यक्ष रोहित मिश्र ‘युवा भारत, नया भारत, उर्जावान राष्ट्र: संकल्प से सिद्धि की ओर’ नामक सम्मेलन में प्रधानमंत्री को अंगवस्त्रम भेंट करने का सम्मान प्राप्त कर चुके हैं.
यह इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्रसंघ चुनाव की राजनीतिक महत्ता को दर्शाता है. स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इलाहाबाद में अपनी जनसभाओं में इस विश्वविद्यालय के छात्रों को ध्यान में रखकर कुछ न कुछ अच्छी और आशाजनक बातें कही हैं.
ऐसे में इलाहाबाद विश्वविद्यालय में चुनाव हार जाना एबीवीपी और खासकर भाजपा के राजनीतिक भविष्य के लिए अच्छी बात नहीं कही जा सकती है. हालांकि हर विश्वविद्यालय अपने आप में स्वतंत्र बौद्धिक और सांस्कृतिक इकाई की तरह व्यवहार करता है लेकिन जेएनयू, दिल्ली विश्वविद्यालय, हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय के बाद इलाहाबाद विश्वविद्यालय में उसकी लगातार हार ने यह साफ़ कर दिया है कि युवाओं के बीच वह आधार गंवा रही है.
अध्यक्ष पद पर निकटतम प्रतिद्वंदी मृत्युंजय राव परमार रहे जिन्हें 2674 वोट मिले. उन्होंने स्वतंत्र प्रत्याशी के रूप में चुनाव लड़ा था. इसके बाद तीसरे स्थान पर एबीवीपी की प्रियंका सिंह रहीं जबकि एनएसयूआई के सूरज दूबे चौथे स्थान पर, भारतीय विद्यार्थी मोर्चा के विकास कुमार पांचवे स्थान पर, आइसा के शक्ति रजवार छठे स्थान पर, सातवें स्थान पर नोटा का विकल्प तथा इंकलाबी छात्र मोर्चा के सुजीत यादव आठवें स्थान पर रहे.
मृत्युंजय राव परमार की हार पर उनके साथी शोधछात्र धीरेंद्र सिंह का कहना था कि आम छात्रों ने परमार की शैक्षिक उपलब्धियों को महत्व दिया. यहां तक कि विज्ञान संकाय के छात्रों ने उनका आगे बढ़कर समर्थन दिया जबकि वह अंग्रेज़ी साहित्य के विद्यार्थी हैं. विभिन्न राजनीतिक दलों की छात्र इकाइयों से असंतुष्ट छात्रों ने मृत्युंजय में विश्वास किया. यह भी एक नये विकल्प की ओर इशारा है.
कांग्रेस पार्टी की छात्र इकाई एनएसयूआई, सीपीएम की छात्र इकाई एसएफआई, सीपीआई (एमएल) की छात्र इकाई आइसा एक भी पद न तो जीत पाई और न ही इस लड़ाई में बेहतर प्रदर्शन कर सकीं. इससे यह भी स्पष्ट है कि इन समूहों को अपनी रणनीति में बदलाव लाने की जरूरत है.
राजनीतिकरण और लोकतंत्र
वाम आंदोलन विश्वविद्यालय परिसर को एक ऐसे राजनीतिक स्पेस के रूप में देखता है जहां समाज के गैर बराबरी आधारित ढांचे को चुनौती देकर एक समतापूर्ण समाज बनाया जा सकता है. इसके लिए वह इस प्रक्रिया में विश्वविद्यालय के प्रत्येक हितधारक को शामिल करता है और उससे चंदा मांगने से लेकर अपनी विचारधारा से परिचित कराने का प्रयास करता है.
इलाहाबाद विश्वविद्यालय को ही लें, यहां कई वर्षों से वाम दलों के प्रत्याशी अपना नजरिया छात्रसंघ की प्राचीर से रखने में सफलता प्राप्त कर रहे हैं. दूसरी तरफ कई अन्य प्रत्याशी छात्रसंघ का चुनाव जीतकर मुख्यधारा की राजनीति में शामिल होने की जल्दबाजी भी करते हैं. छात्रसंघ का चुनाव एक रणनीतिक जगह बन जाती है जहां पर कोई दल अपने विचार और राजनीतिक मूल्यों का प्रसार करता है. इस उर्वर जमीन पर सभी दलों की निगाह इसीलिए गड़ी रहती है.
आइसा से जुड़े शोधछात्र अंकित पाठक कई प्रतिप्रश्न करते हैं- ‘क्या वाम छात्र संगठनों से जुड़े छात्रों को बड़ी-बड़ी गाड़ियों में बैठकर चुनाव प्रचार करना चाहिए जैसा समाजवादी छात्र सभा के छात्र कर रहे थे या अविवेकपूर्ण तरीके से यूनिवर्सिटी रोड, कटरा, और युनिवर्सिटी कैंपस को कागज के ढेर में बदल देना चाहिए? आपने क्या ‘समाजवादियों की कारें’ देखी हैं? उन्होंने कितना पैसा खर्च किया है, इसका हिसाब उनके पास होगा?’
उनके सवालों में ही उनका जवाब निहित है. एसएफआई से जुड़े और 2014 में छात्रसंघ में अध्यक्ष पद का चुनाव हार चुके विकास स्वरूप कहते हैं, ‘रणनीति तो छात्रों के सामाजिक राजनीतिकरण करने की होनी चाहिए. हम इस पर लगातार काम कर रहे हैं. केवल चुनाव जीतना ही महत्वपूर्ण नहीं है, छात्रों को राजनीतिक बनाना जरूरी बात है. नये सामाजिक और आर्थिक परिदृश्य ने हमें भले ही पीछे किया है लेकिन यह ज्यादा दिन चलेगा नहीं. हम यहां मजबूत जमीन बना रहे हैं.’
विकास की बात को एक नए संदर्भ में विनीत सिंह विश्लेषित करते हैं. विनीत नई धार्मिकता, जाति और युवा राजनीति पर शोध कर रहे हैं. उनका मानना है कि छात्र राजनीति से युवाओं का राजनीतिक सामाजिकीकरण तेजी से होता है. कोई छात्र चाहे या न चाहे, उसे छात्र राजनीति में शामिल होना ही पड़ता है. वह इससे बच नहीं सकता है.
वास्तव में वे तबके जो भारतीय राजनीति में अभी तक हाशिये पर हैं, उनमें से जो विश्वविद्यालय परिसरों तक पहुंचने में सफल हो पाते हैं, उन्हें इसका सबसे पहला एहसास विश्वविद्यालय ही कराता है. जातिवाद और अंग्रेजी भाषा की गुलामी से ग्रस्त परिसरों में ग्रामीण छात्रों को एक बेगानगी का अनुभव होता है.
सीमांत समूहों के छात्रों के साथ भाषा, जाति, पहनावे, उच्चारण के आधार पर भेदभाव होता है. इसमें अध्यापक और सीनियर छात्र शामिल हो सकते हैं. रैगिंग ख़त्म कर दी गई है लेकिन भेदभाव के कई-कई स्तर परिसरों में कायम रहते हैं. छात्र राजनीति के माध्यम से छात्र इससे पार पाने की एक जुगत भी खोजते हैं. छात्र राजनीति उनके अंदर के भय को निकाल देती है. यह उनके व्यक्तित्व को सक्षम बनाती है.
यह अनायास नहीं है कि देश के जिन विश्वविद्यालय परिसरों में चुनाव हो रहे हैं, वहां पर अन्य पिछड़ा वर्ग, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अल्संख्यक वर्गों के छात्र सामाजिक सांस्कृतिक रूप से मुखर हो रहे हैं.
क्या छात्रसंघ चुनाव बंद कर देना चाहिए?
कुछ शिक्षा प्रशासकों का मानना है कि गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और अनुशासन बनाए रखने के लिए छात्रसंघ चुनाव बंद कर देना चाहिए. इससे परिसरों में राजनीतिक दलों का दखल बढ़ता है और पढ़ाई-लिखाई पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है लेकिन उनकी इस बात से राजनीति विज्ञान के शोधछात्र प्रशांत सहमत नहीं दिखाई पड़ते हैं.
प्रशांत का कहना है कि परिसर में लोकतंत्र का माहौल होना चाहिए. छात्र चुनाव क्यों नही लड़ सकता है? उसे राजनीति का व्यवहारिक ज्ञान तब मिलेगा, जब वह पढ़ लिखकर परिसर से बाहर चला जाएगा? एक आधारभूत नागरिकबोध के लिए, अच्छे-बुरे में फर्क करने के लिए छात्रसंघ चुनाव जरूरी हैं.
छात्रसंघ चुनावों के खिलाफ यह भी कहा जाता है कि यह अगंभीर छात्रों की पनाहगाह है. ऐसा नहीं है. इलाहाबाद विश्वविद्यालय में हिंदी के अध्यापक और वाम छात्र राजनीति से लंबे समय तक जुड़े रहे डॉक्टर सूर्य नारायण बताते हैं कि राजनीति और अध्ययन एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. उन्होंने कहा कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय के कुछ बेहतरीन छात्र बेहतरीन छात्र नेता बनकर उभरे. 1989 में अध्यक्ष बने कमल कृष्ण राय एलएलबी के टॉपर थे. इसी प्रकार 1993 में अध्यक्ष चुने गए लालबहादुर सिंह काफी मेधावी छात्र थे.
समकालीन राजनीति का विस्तार
वास्तव में छात्रसंघ चुनाव न केवल छात्र राजनीति बल्कि समूची भारतीय राजनीति का एक अनिवार्य तत्व हैं. आज़ादी की लड़ाई में लाला लाजपत राय, भगत सिंह, सुभाषचंद्र बोस, जवाहरलाल नेहरू ने छात्र राजनीति को काफी तवज्जो दी थी.
महात्मा गांधी ने 1919 में सत्याग्रह, 1931 में सविनय अवज्ञा और 1942 में जब अंग्रेजों से भारत छोड़ने की बात की तो उनके पास विद्यार्थियों के लिए हमेशा एक राजनीतिक संदेश था. गुजरात विद्यापीठ, काशी विद्यापीठ और जामिया मिलिया इस्लामिया जैसे शिक्षा केंद्र विद्यार्थी आंदोलनों की उपज थे. गांधी के अनुयायियों ने आजाद भारत में विद्यार्थी आंदोलनों पर भरोसा किया. जयप्रकाश नारायण का आंदोलन इसकी मिसाल है. मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू होने और इसके खिलाफ वातावरण बनाने में भी विद्यार्थी आंदोलनों का हाथ था.
विद्यार्थी आंदोलन वास्तव में हमारी समकालीन राजनीति का विस्तार हैं. उसे रोका नहीं जाना चाहिए और रोका भी नहीं जा सकता है. राजनीतिक चिंतकों का यह मानना रहा है कि लोकतंत्र की सफलता के लिए शिक्षा एक अनिवार्य शर्त है. ऐसे में यदि उच्च शिक्षण संस्थानों में भी लोकतंत्र सफल नहीं हो पाएगा तो भारत में लोकतंत्र कहां सफल होगा?
यदि उच्च शिक्षण संस्थानों में पढ़ने वाला एक विद्यार्थी यह तय नहीं कर सकता कि उसका सही प्रतिनिधि कौन होगा तो उससे यह उम्मीद कैसे की जाए कि वह एक अच्छा नागरिक बन पाएगा और समाज में न्याय, समता और आधुनिक मूल्यों के पक्ष में खड़ा हो पाएगा.
समाज में यह बात भी फैलाई जाती है कि छात्र-छात्राओं को राजनीति नहीं करनी चाहिए, मज़दूर आंदोलन, किसान आंदोलनों के समय भी यही समझाया जाता है कि मज़दूरों और किसानों को राजनीति नहीं करनी चाहिए. आम धारणा बना दी गई है कि शरीफ लोगों को राजनीति नहीं करनी चाहिए. फिर सवाल यह उठता है कि राजनीति किसको करनी चाहिए?
यदि आप एक अ-राजनीतिक समाज बनाएंगे तो एक अ-सामाजिक और अन्यायपूर्ण समाज भी बना डालेंगे.
ज्ञान और लोकतंत्र का रिश्ता
राज्य एवं केंद्रीय विश्वविद्यालय और उससे जुड़े कालेजों में छात्रसंघ के चुनाव होते हैं. उसमें भी सभी विश्वविद्यालयों में छात्रसंघ के चुनाव नहीं होते हैं. काशी हिंदू विश्वविद्यालय में 1997 से छात्रसंघ का चुनाव नहीं हुआ है. लखनऊ विश्वविद्यालय में चुनाव बंद है लेकिन अभी हाल में वहां नाम मात्र की छात्र परिषद गठित की गई है.
21 जुलाई 2015 की स्थिति के अनुसार, भारत में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा मान्यता प्राप्त कुल 727 विश्वविद्यालय हैं जिनमें 46 केंद्रीय विश्वविद्यालय, 332 राज्य विश्वविद्यालय, 127 डीम्ड विश्वविद्यालय और 222 निजी विश्वविद्यालय हैं. निजी विश्वविद्यालयों में छात्रसंघ के चुनाव बिल्कुल नहीं होते हैं. मेडिकल, प्रबंधन और इंजीनियरिंग के कॉलेज भी छात्रसंघ चुनाव नहीं करवाते हैं. इस प्रकार एक छोटे से विद्यार्थी संसार तक यह चुनाव सीमित है.
राष्ट्रीय ज्ञान आयोग ने 50 नये ‘राष्ट्रीय विश्वविद्यालयों’ की स्थापना करने पर जोर दिया था. उसने यह भी जोर दिया था कि 2015 तक 15 प्रतिशत का ग्रास इनरोलमेंट रेशियो को प्राप्त करने के लिए भारत में वर्ष 1500 विश्वविद्यालयों की आवश्यकता पड़ेगी. यह वर्ष 2017 है.
ऐसे में जो आधारभूत चिंता की बात है कि भारत को यदि आगे जाना है, उसे ज्ञान के क्षेत्र में अमेरिका, यूरोप और चीन की बराबरी करनी है या उससे आगे निकलना है तो उसे सार्वजानिक वित्त के द्वारा विश्वविद्यालयों की स्थापना करनी होगी. उसे पीछे छूट गए लोगों को इन विश्वविद्यालयों के परिसरों में प्रवेश देना होगा. और इसमें किसी विशेष अर्थशास्त्रीय समझ की जरूरत नहीं है कि निजी विश्वविद्यालयों में शिक्षा महंगी होगी और वह सामाजिक और ज्ञानात्मक विषमता को जन देगी. इतने भर से काम नहीं चल जाएगा. भारत के लोकतंत्र को विस्तृत करना है, उसे गहराना है, उसमें सबको भागीदार बनाना है. यह काम विश्वविद्यालयों से शुरू किया जाना है.
(रमाशंकर सिंह स्वतंत्र शोधकर्ता हैं.)