राज ठाकरे की अयोध्या यात्रा के ऐलान के बाद आदित्य ठाकरे ने भी वहां जाने की घोषणा की है और शहर में पोस्टर वॉर छेड़ते हुए ‘नकली हिंदुत्ववादी’ से सावधान रहने को कहा है. वहीं, कैसरगंज से भाजपा के बाहुबली सांसद बृजभूषण शरण सिंह ने राज ठाकरे को ‘कालनेमि’ बताते हुए अयोध्या में न घुसने देने की धमकी दे डाली है. एक अन्य भाजपा सांसद लल्लू सिंह राज ठाकरे को ‘राम के साथ मोदी की शरण में आने’ की सीख दे रहे हैं.
अपने अतीत में सर्वधर्मसद्भाव या कि धर्मनिरपेक्षता के पैरोकारों और हिंदुत्ववादियों के बीच कई मुकाबले देख चुकी अयोध्या का इन दिनों एक अलग ही तरह के ‘गजब’ से सामना है क्योंकि देश के बड़े हिस्से में अपने विरोधियों को श्रीहीन करने में सफलता पा लेने के बावजूद हिंदुत्ववादियों को चैन नहीं आ रहा और वे राम जन्मभूमि बाबरी मस्जिद विवाद हल हो जाने के बावजूद अयोध्या का पीछा छोड़ने को तैयार नहीं हैं.
इसलिए उनकी नाना रूपधारी राजनीतिक जमातों को कुछ और नहीं सूझ रहा तो वे खुद को हिंदुत्व की ‘विचारधारा’ की सबसे बड़ी वारिस सिद्ध करने के लिए अयोध्या आकर आपस में ही भिड़ने और ‘तू बड़ी कि मैं’ का फैसला करने पर आमादा हैं.
खुद को असली और दूसरों को नकली, गांधारी, घंटाधारी, बिकी हुई और छद्म वगैरह कहने से भी परहेज नहीं कर रहीं. स्वाभाविक ही लोग याद कर रहे हैं कि अब अपने ही शिविर में लतिहाव में मगन ये जमातें कभी इसी तरह धर्मनिरपेक्षता के पवित्र संवैधानिक मूल्य को भी छद्म बताया करती थीं.
पाठकों को याद होगा, अभी थोड़े ही दिनों पहले भारतीय जनता पार्टी और शिवसेना किस तरह छह दिसंबर, 1992 को हुए बाबरी मस्जिद के ध्वंस का ‘श्रेय’ लूटने के चक्कर में एक दूजे की ‘बहादुरी’ दावों की पोल खोल रही थीं! जैसे कि सर्वोच्च न्यायालय तक द्वारा निंदित वह ध्वंस ही उनके खाते का सबसे बड़ा राजनीतिक ‘पुण्य’ हो!
अब उससे भी आगे बढ़कर उनकी कोशिश है कि महाराष्ट्र में, जहां उनकी फूट कई साल पुरानी हो चली है, उनके बीच जारी हिंदुत्व की विरासत की जंग का फैसला भी अयोध्या को युद्धभूमि बनाकर ही किया जाये.
इस सिलसिले में जो एक बात सबसे ज्यादा गौरतलब है, वह यह कि 2019 से कांग्रेस व राष्ट्रवादी कांग्रेस जैसी खुद को धर्मनिरपेक्ष कहने वाली पार्टियों के साथ गठबंधन करके सरकार चला रही शिवसेना को महाराष्ट्र के आगामी विधानसभा चुनाव में हिंदुत्व से इतर किसी बदली हुई छवि के साथ मतदाताओं के सामने जाना गवारा नहीं है.
इसलिए वह धान भी कूटने और कांख भी ढकने की शैली में कहें या निहुरे-निहुरे ऊंट चराने के अंदाज में हिंदुत्व की राजनीति पर अपने दावे को जस का तस बताते हुए बार-बार कह रही है कि उसे किसी और, खासकर भाजपा से हिंदुत्व की सीख लेने की जरूरत नहीं है.
यह वैसे ही है, जैसे अटल बिहारी वाजपेयी के राज में हिंदुत्व के एजेंडा को ठंडे बस्ते में डाल देने के बावजूद धर्मनिरपेक्ष न स्वीकारी जाने वाली भाजपा बार-बार कहती थी कि उसे किसी से भी धर्मनिरपेक्षता का पाठ पढ़ने की जरूरत नहीं है.
लेकिन अब उसकी आंखों का पानी इस कदर मर गया है कि देश व उत्तर प्रदेश दोनों में अपनी सत्ता का लाभ उठाकर अयोध्या को हिंदुत्व के ऐसे किले में बदल देना चाहती है, जो किसी के भी तोड़े न टूटे और जिसमें धर्मनिरपेक्षता की कोई जगह भी न हो.
रही होगी शिवसेना कभी उसकी सबसे भरोसेसेमंद सहयोगी, लेकिन अब वह अपने इस किले में उसको कतई कोई जगह नहीं देना चाहती. इसलिए उसने उसकी राह में कांटे बिछाने के लिए विरासत की उसकी अंदरूनी कलह से मार्च, 2006 में जन्मी राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना को अपनी सी-टीम, इसलिए कि बी-टीम तो असदउद्दीन ओवैसी का एआईएमआईउम है, के तौर पर आगे करके उम्मीद कर रही है कि जो राज ठाकरे इस दौरान अपनी महत्वाकांक्षाओं के लिए कुछ नहीं कर पाए, वे जहां तहां हनुमान चालीसा का पाठ कराकर न सिर्फ उसके भविष्य के भय के भूत को भगा देंगे, उसकी मुरादें पूरी करने में भी सहायक सिद्ध होंगे.
यह भी अकारण नहीं कि भाजपा अपनी सुविधा के अनुसार शिवसेना के पहले के इतिहास में गए बगैर उसको उसके संस्थापक बाला साहेब ठाकरे का बहुचर्चित कथन याद दिला रही है कि कभी कांग्रेस के साथ जाने की नौबत आई तो वे शिवसेना को खत्म ही कर देंगे और राज ठाकरे ने ‘अपने’ हिंदुत्व को नई धार देने के लिए आगामी पांच जून को तीन हजार समर्थकों के साथ अयोध्या आने का ऐलान कर डाला है.
कई प्रेक्षक कह रहे हैं कि राज ठाकरे की इस यात्रा को परदे के पीछे से भाजपा ही प्रायोजित कर रही है और इस अर्थ में सफल हो गई है कि शिवसेना उसके ट्रैप में आ गई हैं. उसने भी बिना देर किए मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के पुत्र आदित्य ठाकरे की, जो ठाकरे सरकार में मंत्री भी हैं, अयोध्या यात्रा का कार्यक्रम बना डाला और पोस्टर वॉर छेड़ दिया है.
एक पोस्टर में राज ठाकरे को नकली हिंदुत्ववादी बताते हुए उसने लिखा है: असली आ रहा है नकली से सावधान! शिवसेना का कहना है कि आदित्य महाराष्ट्र में रामराज्य के लिए भगवान राम का आशीर्वाद प्राप्त करने अयोध्या जा रहे हैं.
इससे पहले सात मार्च, 2020 को अपनी सरकार के सौ दिन पूरे होने पर उद्धव ठाकरे अयोध्या आए थे. तब उन्होंने राम मंदिर निर्माण के लिए एक करोड़ रुपये देने की घोषणा करते हुए कहा था कि वे भाजपा से अलग हुए हैं हिंदुत्व से नहीं.
इससे भी पहले 2018 में, जब शिवसेना भाजपा के साथ महाराष्ट्र की सरकार में थी, उद्धव राम मंदिर निर्माण के प्रयत्नों में कथित ढिलाई को लेकर भाजपा को घेरने और मंदिर निर्माण की तारीख पूछने के लिए अयोध्या आए थे.
लेकिन अब बदले हुए हालात में उनकी महाराष्ट्र सरकार और उसके नेताओं को हलकान करने में कुछ भी उठा न रख रही भाजपा इस मायने में मुश्किल में है कि राज ठाकरे से अन्दरखाने मिलीभगत के बावजूद उसे उनसे रिश्तों को खुलकर स्वीकारने में असुविधा हो रही है.
दरअसल, राज ठाकरे की महाराष्ट्र में उत्तर भारतीयों को मारने-काटने, सताने और भगाने वाले नेता की छवि है और भाजपा उनकी पीठ पर हाथ रखकर उत्तर भारत के राज्यों में अपनी राजनीतिक बढ़त गंवाने का जोखिम उठाने को तैयार नहीं है.
यही कारण है कि उनकी अयोध्या यात्रा को लेकर भाजपा के दो सांसदों के परस्पर विरोधी बयान चर्चा का विषय बनकर उसकी जगहंसाई करा रहे हैं. उसके कैसरगंज के बाहुबली सांसद बृजभूषण शरण सिंह ने राज ठाकरे को ‘कालनेमि’ बताते हुए अयोध्या में न घुसने देने की धमकी दे डाली है.
साथ ही यह मांग भी की है कि वे अयोध्या में घुसने से पहले महाराष्ट्र में उत्तर भारतीयों के उत्पीड़न के लिए माफी मांगें. उन्होंने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से भी अनुरोध किया है कि जब तक राज ठाकरे यह माफी नहीं मांगते, वे उनसे न मिलें.
लेकिन फैजाबाद के भाजपा सांसद लल्लू सिंह कह रहे हैं कि वे अयोध्या में ‘प्रभु श्रीराम की शरण में आए राज ठाकरे का स्वागत करेंगे, उनसे यह अपेक्षा भी कि इसी तरह मोदी की शरण भी बह लें.’
लल्लू के ही शब्दों में, ‘भगवान राज ठाकरे को सद्बुद्धि दें कि वे पीएम नरेंद्र मोदी के मार्गदर्शन में काम करें, जिससे उनका व महाराष्ट्र का कल्याण हो सके. हम रामभक्तों के सेवक होने के नाते उनका स्वागत कर रहे हैं. भगवान श्रीराम व अयोध्या का स्वभाव है कि हम लोग शरण में आने वाले का कभी अपमान नहीं करते हैं.’
बृजभूषण और लल्लू के इन बयानों के राजनीतिक गलियारों में तरह-तरह के अर्थ निकाले जा रहे हैं और उनके परस्पर विरोध को लेकर भाजपा से कोई जवाब देते नहीं बन रहा.
निस्संदेह, हिंदुत्ववादी जमातों की इन भिड़ंतों के बीच कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस को भी इस सवाल का जवाब देना है कि भाजपा को रोकने के नाम पर महाराष्ट्र में ‘सबसे बड़ी हिंदुत्ववादी’ शिवसेना के साथ महाराष्ट्र विकास अघाड़ी और सरकार बनाने से उन्हें क्या हासिल हुआ और इस सरकार के सत्ताकाल में शिवसेना ने उन्हें बदला है या उन्होंने शिवसेना को?
और जब शिवसेना, भाजपा व महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना हिंदुत्व की विरासत को लेकर भिड़ी हुई हैं, कांग्रेस व राकांपा गैरहाजिर या कि बाहर खड़ी धर्मनिरपेक्षता का अलम हाथ में लेंगी या हमेशा की तरह सॉफ्ट व हार्ड हिंदुत्व की लड़ाई लड़ेंगी और खेत रहेंगी? देश के लोकतांत्रिक इतिहास की इस गवाही से कुछ सीखेंगी या नहीं कि जब भी किसी चुनावी लड़ाई से धर्मनिरपेक्षता को मुकाबले से बाहर कर हिंदुत्व के सॉफ्ट व हार्ड रूपों में कुश्ती कराई जाती है, उसका हार्ड रूप ही जीतता है.
प्रसंगवश, अभी तक एक लालू प्रसाद यादव को छोड़ दें, जिन्होंने सांप्रदायिक हिंसा व हनुमान चालीसा विवाद को लेकर हिंदुत्ववादियों की आलोचना में पूरी तरह स्पष्ट दृष्टिकोण अपनाया है, तो इन्हें लेकर धर्मनिरपेक्ष खेमे को सांप ही सूंघा हुआ है. सवाल है कि क्या देश की धर्मनिरपेक्षता एकदम से लावारिस होकर रह गई है?
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)