सरकार न सिर्फ़ शाह का गवाह बनकर कूद पड़ी, बल्कि न्यायिक मदद का पूर्वानुमान लगाते हुए स्टोरी छपने के पहले ही इसके लिए एडिशनल साॅलिसिटर जनरल को इजाज़त भी दे दी.
8 अक्टूबर को ‘द वायर’ में छपी रोहिणी सिंह की स्टोरी पहले से मौजूद तथ्यों की पुनर्प्रस्तुति थी. कम समय के भीतर जय शाह की कंपनी टेंपल एंटरप्राइज़ के टर्नओवर में चकित कर देने वाली बढ़ोत्तरी वास्तव में आंकड़ों की एक ऐसी कहानी है जिसकी व्याख्या या तो शानदार प्रबंधन या भगवान द्वारा दिए गए वित्तीय वरदान के रूप में की जा सकती है. इस बारे में अब तक कोई सफाई पेश नहीं की गई, सिवाय सरकार के इस दावे के कि यह एक वैध तरीक़े से किए गए निजी व्यापार का मामला है.
एक मानहानि का मुक़दमा, भले इसमें कोई दम हो या न हो, अपने आप में जनता के मन में उठने वालों सवालों का जवाब नहीं हो सकता है. यह कभी भी लोकतांत्रिक जवाबदेही की जगह ले भी नहीं सकता. बिना कोई समय गंवाए सरकार इस मामले में कूद चुकी है. वह न सिर्फ़ अमित शाह के व्यापारिक लेन-देन को जायज़ साबित करने के लिए गवाह बनकर सामने आ गई है, बल्कि उसने अमित शाह को न्यायिक मदद की ज़रूरत का पूर्वानुमान लगाते हुए एडिशनल साॅलिसिटर जनरल को उनकी तरफ से गदा उठाने की इजाज़त भी दे दी है.
दिलचस्प यह है कि यह इजाज़त स्टोरी के छपने से पहले ही दी जा चुकी थी. ऐसे में यह एक शासन का भी मसला है, इसलिए भी जनता इन सवालों का जवाब जानने की हक़दार है. और कुछ नहीं तो, कॉरपोरेट शासन का मसला ही सार्वजनिक जवाबदेही की मांग करता है.
भारत एक लोकतंत्र है और जनता के हित राजनीतिक और कॉरपोरेट प्रशासन, दोनों से जुड़े हुए हैं. इसलिए स्पष्टीकरण की मांग को बस यूं ही ख़ारिज नहीं किया जा सकता है. उदाहरण के लिए भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के बेटे जय शाह द्वारा कारोबारी कंपनियां खोलने और बंद करने का तरीक़ा कई गंभीर सवाल खड़े करता है जिसके बारे में कोई जवाब नहीं आया है.
भले ही रेल मंत्री पीयूष गोयल ने यह दावा किया हो कि ये जय शाह द्वारा चलाए और बंद किए गए कारोबार वैध थे, फिर भी कुछ सवाल हैं जिनका जवाब मांगा जाना ज़रूरी है. मसलन, क्या जिस तरह से इन कारोबारों को चलाया गया, उनमें विनियामक और कॉरपोरेट शासन के नियमों का उचित तरीक़े से पालन किया गया?
इन सवालों का जवाब रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया/सिक्यूरिटीज़ एंड एक्सचेंज बोर्ड ऑफ इंडिया (सेबी) या ख़ुद वित्त मंत्रालय द्वारा दिया जा सकता है, जो इन विनियामक संस्थाओं के साथ संवाद करता है.
पहला सवाल जिसका स्पष्टीकरण दिया जाना ज़रूरी है, वह जय शाह और केआईएफएस फाइनेंशियल सर्विसेज़ के मालिक राजेश खंडवाला के बीच रिश्ते की प्रकृति को लेकर है. खंडवाला की कंपनी ने ही शाह की कंपनी टेंपल एंटरप्राइज़ प्राइवेट लिमिटेड को 15.78 करोड़ रुपये असुरक्षित क़र्ज़ के तौर पर दिए.
जय शाह और राजेश खंडवाला के बीच रिश्ता कोई साधारण मसला नहीं है, क्योंकि असुरक्षित क़र्ज़ देने वाले राजेश खंडवाला, लिमिटेड लायबिलिटी कंपनी सत्व ट्रेडलिंक में शाह के पार्टनर थे, जिसे उसी साल यानी 2015 में खोला गया और बंद कर दिया गया.
ऐसे मामले में, जिनमें कोई क़र्ज़दाता किसी दूसरे व्यापार में क़र्ज़ लेने वाले का पार्टनर बन जाता है, कारोबारी संबंध का नियमन करने के लिए कठोर एनबीएफसी (नॉन बैंकिंग फाइनेंशियल कंपनी) नियम हैं. ऐसे एक नियम के अनुसार, इसके लिए आरबीआई की विशेष इजाज़त की दरकार होती है जिससे यह सुनिश्चित किया जाता है कि ऐसी स्थिति में, यानी जब कोई कर्जदाता, क़र्ज़ लेने वाली कंपनी के प्रमोटरों के साथ हिस्सेदार बन जाता है, हितों का कोई टकराव पैदा न हो.
यह एक बेहद जटिल कारोबारी रिश्ता बनता है और इसी जोख़िम के कारण आरबीआई कई तरह के कारोबारों में संलग्न कॉरपोरेट समूहों को किसी बैंक का स्वामित्व लेने से हतोत्साहित करता है. इस बात का ख़तरा हमेशा बना रहता है कि ऐसे कॉरपोरेट समूहों के प्रमोटर फंड को किसी ऐसे दूसरे कारोबार में न लगा दें, जिनसे उनका हित जुड़ा हो.
इसलिए सवाल है कि क्या राजेश खंडवाला की एनबीएफसी- केआईएफएस फाइनेंशियल सर्विसेज़ ने उस समय आरबीआई से इजाज़त ली, जब उन्होंने जय शाह के साथ साझेदारी में सत्व ट्रेड लिंक नाम की लिमिटेड लायबिलिटी कंपनी बनाई? ये विनियमन संबंधी मसले हैं, जिनका जवाब दिए जाने की ज़रूरत है.
दूसरा सवाल ये है कि आख़िर जय शाह की कंपनी को दिए गए 15.78 करोड़ रुपये के असुरक्षित क़र्ज़ को केआईएफएस की बैलेंस शीट में सही तरीक़े से क्यों नहीं दिखाया गया? नियमों के अनुसार असुरक्षित क़र्ज़ को बैलेंस शीट में अलग से दिखाया जाना होता है.
इसलिए जय शाह और खंडवाला के बीच कारोबारी लेन-देन की प्रकृति ख़ास क़िस्म के रिश्ते की ओर इशारा करती है. इस संदर्भ में खंडवाला के परिवार की पृष्ठभूमि का मुआयना करना दिलचस्प होगा, जो दो दशकों से ज़्यादा समय से शेयर ब्रोकिंग और वित्तीय सेवाओं के कारोबार में है. अगर उनके रिकॉर्ड को देखें, तो सेबी के साथ उनका लगातार विनियमन संबंधी विवाद दिखाई देता है.
सेबी ने इन पर समय-समय पर ज़ुर्माना लगाया है और इनके कारोबार को प्रतिबंधित किया है. राजेश खंडवाला और उनके भाई जयेश खंडवाला केआईएफएस के बैनर तले 1995 से एक फैमिली एंटरप्राइज़ के तौर पर कारोबार कर रहे हैं.
मई, 2013 में अपनी पब्लिक लिस्टिंग के वक्त केआईएफएस फाइनेंशियल सर्विसेज़ द्वारा बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज (बीएसई) में जमा किए गए इंफॉर्मेशन मेमोरेंडम (सूचना विज्ञप्ति) के मुताबिक कंपनी के मैनेजिंग डायरेक्टर के भाई और पारिवारिक कंपनी के प्रमोटर जयेश पी. खंडवाला के ख़िलाफ़ सेबी ने 2006 में निषेधात्मक आदेश जारी किया था.
हालांकि, सिक्यूरिटीज़ अपीलेट ट्रिब्यूनल ने सेबी के आदेश को अप्रैल, 2012 में पलट दिया और इसे आगे और सुनवाई के लिए वापस भेज दिया था. इस बिंदु पर कार्यवाही के रिकॉर्ड में यह स्पष्टीकरण भी दिया गया था कि जयेश खंडवाला आवेदनकर्ता कंपनी के न तो निदेशक हैं और न ही उसमें हिस्सेदार हैं. और इस तरह से आवेदनकर्ता कंपनी की संपत्ति से उनका कोई हित नहीं जुड़ा है. सिर्फ़ राजेश खंडवाला ही प्रस्तावित सूचीबद्ध (लिस्टेड) कंपनी के प्रमोटर थे, क्योंकि अपने पिछले अवतार में काम कर रही पारिवारिक फर्म द्वारा बाजार नियमों का उल्लंघन करने के आरोपों ने उनके बड़े भाई की साख़ पर पहले ही बट्टा लगा दिया था.
पोर्टफोलियो मैनेजर केआईएफएस सिक्यूरिटीज, जिसका केआईएफएस फाइनेंशियल सर्विसेज पर भी नियंत्रण है, का सेबी के साथ कई मसलों पर विवाद रहा है और भारत की कई अदालतों में इसके ख़िलाफ़ कई आपराधिक मामले भी चल रहे हैं.
ये बात कंपनी द्वारा अक्टूबर, 2015 में स्टॉक मार्केट के निगरानीकर्ता को जमा कि गए घोषणा-पत्र से सामने आती है. यहां यह ध्यान रखना चाहिए कि यह जानकारी किसी और के द्वारा नहीं, ख़ुद कंपनी द्वारा अपने घोषणा दस्तावेज़ में दी गई है, जिसकी ज़रूरत कंपनी को सूचीबद्ध करने के समय पड़ती है.
केआईएफएस सिक्यूरिटीज को पहले खंडवाला इंटीग्रेटेड फाइनेंशियल सर्विसेज के नाम से जाना जाता था. इसका नाम मई, 2010 में बदला गया और जब इसे प्राइवेट लिमिटेड कंपनी से पब्लिक लिमिटेड कंपनी में बदला गया.
नवंबर, 2006 में सेबी ने अपने एक वसूली आदेश (डिसगॉर्जमेंट ऑर्डर) में केआईएफएस को उसी साल के एक आईपीओ घोटाले में भूमिका के लिए दोषी क़रार दिया था. जब सिक्यूरिटी बाज़ार का कोई व्यक्ति या इकाई धोखाधड़ी से लाभ कमाती है, तो उसके ख़िलाफ़ ऐसा आदेश जारी किया जाता है, जिसमें उसे कमाए गए लाभ को ब्याज के साथ निवेशकर्ता को लौटाने के लिए कहा जाता है. यह मामला एक सहमति आदेश (कंसेंट ऑर्डर) द्वारा सुलझाया गया, जिसमें केआईएफएस ने न तो अपनी ग़लती को स्वीकार किया, न ही उससे इनकार किया.
मई, 2007 में विनियामक द्वारा एनएसई-एफएंडओ (एनएसई-फ्यूचर्स एंड ऑप्शन्स) लेन-देन के संबंध में एक अंतरिम निषेध आदेश पारित किया गया. इस मसले को भी एक सहमति आदेश (कंसेंट ऑर्डर) के सहारे सुलझाया गया.
उसी साल सेबी ने रैनबैक्सी लैबोरेटरीज के शेयरों की ख़रीद-फ़रोख़्त को लेकर हुए विवाद में केआईएफएस समूह के ख़िलाफ़ एक जांच बैठाई. 2010 में सेबी ने डब्ल्यूडब्ल्यूडब्ल्यूवैल्यूनोट्स.कॉम (www.valuenotes.com) के मामले में चल रही जांच को लेकर केआईएफएस को चेतावनी दी.
हालांकि केआईएफएस ने यह दावा किया कि उसके ख़िलाफ़ कोई ‘ठोस’ मुक़दमा या क़ानूनी कार्रवाई विचाराधीन नहीं है. केआईएफएस ने यह भी कहा कि इसके ख़िलाफ़ कोई ठोस सिविल मामला भी नहीं चल रहा है, लेकिन उसने ब्रोकरिंग और डिपॉजिटरी सहभागी सेवाओं को लेकर विवाद की बात स्वीकार की. इस तरह से केआईएफएस ने यह दावा किया कि ऊपर वर्णित आपराधिक और विनियामक कार्रवाइयों का उसके कारोबारी भविष्य के हिसाब से कोई ज़्यादा महत्व नहीं है.
केआईएफएस ने औपचारिक तौर पर यह भी स्वीकार किया था कि ऐसे कई मामले थे जिनमें इस पर कारोबार के सामान्य सिलसिले में सिक्यूरिटीज क़ानूनों का उल्लंघन करने के लिए एक्सचेंजों, डिपॉजिटरी और सेबी द्वारा ज़ुर्माना लगाया गया था, जिसके बारे में इसका कहना था कि ये इसके वित्तीय सेहत और कामकाज पर कोई ‘ठोस’ प्रभाव डालने वाले नहीं हैं.
केआईएफएस के ख़िलाफ़ भावनगर के चीफ़ जुडिशियल मजिस्ट्रेट की अदालत में ठगी का एक आपराधिक मामला भी दायर किया गया था. जिस समय कंपनी ने सेबी में अपना घोषणा दस्तावेज़ जमा कराया, उस समय यह मामला भी विचाराधीन था.
कुल मिलाकर, खंडवाला और केआईएफएस का इतिहास ही अपने आप में कई ऐसे सवाल खड़े करता है, जिसे राजेश खंडवाला और जय शाह की साझेदारी की प्रकृति को प्रभावित करने वाला कहा जा सकता है.