राजद्रोह पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश का हवाला देते हुए शरजील ने अंतरिम ज़मानत की अर्ज़ी दाख़िल की

इस साल जनवरी में दिल्ली की एक अदालत ने साल 2019 में सीएए और एनआरसी के खिलाफ प्रदर्शन के दौरान कथित भड़काऊ भाषण देने के मामले में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के छात्र शरजील इमाम के ख़िलाफ़ राजद्रोह का अभियोग तय किया था. इसी महीने सुप्रीम कोर्ट ने राजद्रोह क़ानून पर विचार होने तक इससे संबंधित सभी कार्यवाहियों पर रोक लगाने का आदेश दिया था.

शरजील इमाम. (फोटो साभार: फेसबुक)

इस साल जनवरी में दिल्ली की एक अदालत ने साल 2019 में सीएए और एनआरसी के खिलाफ प्रदर्शन के दौरान कथित भड़काऊ भाषण देने के मामले में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के छात्र शरजील इमाम के ख़िलाफ़ राजद्रोह का अभियोग तय किया था. इसी महीने सुप्रीम कोर्ट ने राजद्रोह क़ानून पर विचार होने तक इससे संबंधित सभी कार्यवाहियों पर रोक लगाने का आदेश दिया था.

शरजील इमाम. (फोटो साभार: फेसबुक)

नई दिल्ली: जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के छात्र शरजील इमाम ने देश में राजद्रोह की सभी कार्यवाहियों पर रोक लगाने के सुप्रीम कोर्ट के आदेश का हवाला देते हुए अपने खिलाफ लगे राजद्रोह के आरोप मामले में अंतरिम जमानत के लिए दिल्ली हाईकोर्ट का रुख किया है

इमाम ने अपनी याचिका में अदालत से अपने खिलाफ देशद्रोह के आरोपों को खत्म करने का आग्रह किया है. दिल्ली हाईकोर्ट शरजील इमाम की इस अंतरिम जमानत याचिका पर 26 मई को सुनवाई करेगा.

जस्टिस सिद्धार्थ मृदुल और जस्टिस रजनीश भटनागर की पीठ ने मंगलवार को शरजील की याचिका पर सुनवाई नहीं की. उन्होंने इसे अगले सप्ताह के लिए सूचीबद्ध कर दिया. शरजील ने पहले से लंबित अपनी जमानत याचिका में अंतरिम जमानत के लिए एक अन्य अर्जी दाखिल की है.

इमाम को 2019 में नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) और राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) के खिलाफ विरोध प्रदर्शन के दौरान कथित तौर पर भड़काऊ भाषण देने के मामले में गिरफ्तार किया गया था.

अधिवक्ता तालिब मुस्तफा, अहमद इब्राहिम और कार्तिक वेणु के माध्यम से अर्जी दायर की गई है.

अर्जी में कहा गया है कि इमाम की जमानत खारिज करने का अदालत का आदेश मुख्य रूप से इस पर आधारित है कि उसके खिलाफ मामला राजद्रोह के आरोप के तहत उपयुक्त पाए जाने के मद्देनजर विशेष अदालत के पास दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 437 के अनुसार वर्णित सीमाओं में जमानत देने की कोई अधिकार नहीं है.

अर्जी के मुताबिक, सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के मद्देनजर विशेष अदालत के आदेश में वर्णित अड़चनें खत्म हो जाती हैं.

अर्जी में कहा गया है कि सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के मद्देनजर, विशेष अदालत के आदेश में वर्णित अड़चनें खत्म हो जाती हैं और भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 124ए (राजद्रोह) के तहत अपराध के लिए टिप्पणियों को अपीलकर्ता (इमाम) के खिलाफ कार्यवाही में ध्यान में नहीं रखा जा सकता है.

अर्जी में कहा गया कि इमाम लगभग 28 महीने से जेल में है, जबकि अपराधों के लिए अधिकतम सजा, जिसमें 124ए शामिल नहीं है, सात साल कैद है. अर्जी में कहा गया है कि इमाम की निरंतर कैद न्यायसंगत नहीं है और इस अदालत का हस्तक्षेप अपेक्षित है.

मालूम हो कि इस साल जनवरी में दिल्ली की एक अदालत ने वर्ष 2019 में सीएए और एनआरसी के खिलाफ प्रदर्शन के दौरान कथित भड़काऊ भाषण देने के मामले में शरजील इमाम के खिलाफ राजद्रोह का अभियोग तय किया था.

अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश अमिताभ रावत ने अपने आदेश में कहा था, ‘मामले में भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 124 (राजद्रोह), 153ए (दो अलग-अलग समूहों में धर्म के आधार पर विद्वेष को बढ़ावा देना), 153बी (राष्ट्रीय एकता के खिलाफ अभिकथन), 505 (सार्वजनिक अशांति के लिए बयान), गैरकानूनी गतिविधि (निषेध) अधिनियम (यूएपीए) की धारा 13 (गैरकानूनी गतिविधि के लिए सजा) के तहत आरोप तय किए जाते हैं.’

अभियोजन पक्ष के मुताबिक, शरजील इमाम ने 13 दिसंबर 2019 को जामिया मिलिया इस्लामिया में और 16 दिसंबर 2019 को अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में दिए भाषणों में कथित तौर पर असम और बाकी पूर्वोत्तर को भारत से अलग करने की धमकी दी थी.

इन कथित भाषणों के लिए इमाम को यूएपीए और राजद्रोह के तहत एक अन्य मामले में भी गिरफ्तार किया गया था.

बीते दिसंबर महीने में जामिया हिंसा मामले में शरजील को जमानत मिली थी. इसके अलावा इमाम को जनवरी 2020 में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में दिए गए एक भाषण के लिए उनके खिलाफ दर्ज राजद्रोह के मामले में जमानत मिल चुकी है.

गौरतलब है कि बीते 11 मई को सुप्रीम कोर्ट ने राजद्रोह के मामलों में सभी कार्यवाहियों पर रोक लगा दी और केंद्र एवं राज्यों को निर्देश दिया कि जब तक सरकार औपनिवेशिक युग के कानून पर फिर से गौर नहीं कर लेती, तब तक राजद्रोह के आरोप में कोई नई एफआईआर दर्ज न की जाए.

इससे पहले केंद्र की मोदी सरकार ने बीते सात मई को सुप्रीम कोर्ट में राजद्रोह से संबंधित दंडात्मक कानून (आईपीसी की धारा 124ए) और इसकी वैधता बरकरार रखने के संविधान पीठ के 1962 के एक निर्णय का बचाव किया था. केंद्र ने यह कहते हुए कि लगभग छह दशकों से यह कानून बना हुआ है और इसके दुरुपयोग के उदाहरण कभी भी इसके पुनर्विचार का कारण नहीं हो सकते हैं.

शीर्ष अदालत राजद्रोह संबंधी कानून की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली विभिन्न याचिकाओं पर सुनवाई कर रही है. राजद्रोह कानून उन आरोपों के बीच विवाद के केंद्र में रहा है, जिसमें कहा गया है कि विभिन्न सरकारों द्वारा राजनीतिक दुश्मनी निपटाने के लिए इसका हथियार की तरह इस्तेमाल​ किया जा रहा है.

इन आरोपों ने सीजेआई को यह पूछने के लिए प्रेरित किया था कि क्या स्वतंत्रता सेनानियों को दबाने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले इस औपनिवेशिक युग के कानून की आजादी के 75 साल बाद भी जरूरत है.

एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया, पूर्व मेजर जनरल एसजी वोम्बटकेरे और तृणमूल कांग्रेस सांसद महुआ मोइत्रा द्वारा आईपीसी की धारा 124ए (राजद्रोह) की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली याचिकाओं की जांच करने के लिए सहमत होते हुए शीर्ष अदालत ने कहा था कि इसकी मुख्य चिंता ‘दुरुपयोग’ है, जिससे मामलों की संख्या में वृद्धि हो रही है.

(समाचार एजेंसी भाषा से इनपुट के साथ)