हिमाचल प्रदेश के स्पिति में प्रस्तावित 880 मेगावॉट का सोलर पार्क विश्व बैंक द्वारा वित्तपोषित परियोजना है, जो इस संवेदनशील इलाके की जनजातीय जनता और दुर्लभ वन्य जीवों के लिए जोखिमभरा साबित हो सकता है.
‘मेरे याक दुम्बाचेन धार में चर रहे हैं’, नवंबर की एक दोपहर में रिनचेन तोब्गे अपने दो कमरे के होम स्टे की पुताई से ब्रेक लेकर चाय की चुस्की लेते हुए बताते हैं. सर्दियों में शेन या बर्फीले तेंदुए को देखने के लिए पर्यटकों की होड़ मचेगी, जिसकी तैयारी वो कर रहे हैं.
स्थानीय भाषा में पहाड़ की चोटियों को धार कहते हैं. हिमाचल प्रदेश में धार दुम्बाचेन समुद्र तल से 5,100 मीटर की ऊंचाई पर स्थित एक विशाल चरागाह है. यहां ताशिगंग, गेटे, किब्बर और चीचम गांव के निवासी गर्मियों में अपने पशु चराते हैं.
जनवरी तक तोब्गे के दो याक वापस किब्बर पहुंच चुके थे और मार्च के आखिरी हफ्ते में वे इनकी मदद से अपने छोटे खेत को जोत लेंगे. उन्होंने मार्च महीने के आखिरी दिनों में फोन पर बातचीत के दौरान बताया, ‘हमें एक या दो दिन में खेती का काम शुरू करना होगा. इस साल गर्मी जल्दी शुरू हो गई है.’
इससे और ग्रामीण परिदृश्य क्या हो सकता है. लेकिन ऐसा सिर्फ बाहर से है.
हिमाचल प्रदेश सरकार सौर ऊर्जा और नई व पुरानी जल विद्युत परियोजनाओं का निर्माण तेजी से आगे बढ़ाने की चाह में है. खासकर 2016 के बाद जब भारत के नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक (कैग) ने राज्य को अपनी अक्षय ऊर्जा का पूर्ण दोहन न कर पाने के लिए फटकार लगाई, जिसके बाद कई परियोजनाओं पर कार्य को तेज़ी से बढ़ाया गया.
इनमें से एक है केंद्र और राज्य की सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी सतलुज जल विद्युत् निगम (एसजेवीएन) द्वारा स्पिति में प्रस्तावित 880 मेगावॉट का सोलर पार्क. सूचना के अधिकार आवेदन के जवाब से मिली जानकारी के अनुसार, विश्व बैंक की आर्थिक मदद से बनाई जाने वाली यह परियोजना छह गांव में फैली 3,104 हेक्टेयर भूमि पर स्थापित की जाएगी. इस भूमि में वो धारें भी शामिल है जिसका ज़िक्र तोब्गे ने किया.
सर्दियों में बर्फ से ढकी इन धारों पर स्थित चरागाहों में स्थानीय लोग भेड़, बकरी, याक और घोड़े चराते हैं. लेकिन राज्य सरकार ने इस भूमि को ‘वेस्टलैंड’ (या चरागाह-बिला-दराख्तान) की श्रेणी में डाला है, इसके चलते इन चरागाहों पर स्थानीय लोगों के अधिकार आज संकट में हैं.
तोब्गे और गांव के अन्य निवासियों का मानना है कि सोलर पार्क उनकी आजीविका के लिए घातक होगा. वैज्ञानिकों ने अपनी तरफ से यह चेतावनी दी है कि इस पार्क से बर्फीले तेंदुए के आवास का विनाश हो जाएगा जो विलुप्त होने की दृष्टि से ‘संवेदनशील’ घोषित किया गया है.
सूचना के अधिकार से मिली जानकारी बताती है कि इस परियोजना के पर्यावरण प्रभाव आकलन पर सरकार ने कोई कार्य नहीं किया क्योंकि अक्षय ऊर्जा परियोजनाओं को इस प्रक्रिया से छूट मिली है क्योंकि भूमि की श्रेणी जंगलात या वन भूमि है तो वन हस्तांतरण की प्रक्रिया का आवेदन एसजेवीएन द्वारा किया जाएगा. फिलहाल विस्तृत परियोजना रिपोर्ट (डीपीआर) का मसौदा तैयार किया जा रहा है.
अक्टूबर 2021 में एसजेवीएन के अधिकारियों ने प्रभावित जनता को परियोजना के बारे में अवगत करने के लिए क्षेत्र का दौरा किया. जनजातीय बहुल क्षेत्र होने के कारण स्पिति संविधान की पांचवी सूची में जनजातीय क्षेत्र घोषित है. ऐसे क्षेत्रों में किसी भी तरह की विकास परियोजना के निर्माण के लिए स्थानीय ग्राम सभाओं से एनओसी या मंज़ूरी लेना कानूनी रूप से अनिवार्य है.
सोलर पार्क के लिए यह मंज़ूरी मिलना कठिन है क्योंकि स्थानीय लोग परियोजना के पक्ष में नहीं हैं. किब्बर गांव के कुछ पुरुषों और महिलाओं के समूह ने बताया, ‘हमारे ग्राम प्रधान ने बैठक में भाग लिया और हमें परियोजना के बारे में बताया. हमने साफ तौर पर कहा कि हम एनओसी नहीं देंगे.’
लेकिन इससे राज्य सरकार या एसजेवीएन के अधिकारियों का इस परियोजना को लेकर उत्साह कम नहीं हुआ. सरकार ने अपने लिए जो महत्वकांक्षी लक्ष्य रखा है उसे वो किसी न किसी तरह से हासिल करने की फिराक में है. इसके नकारात्मक प्रभाव आने वाले समय में स्पिति तथा देश के अन्य हिस्सों में, जहां ऐसी विशाल सौर ऊर्जा परियोजनाएं प्रस्तावित हैं, में दिखेंगे.स्रोत: सूचना का अधिकार से एसजेवीएन से प्राप्त जानकारी
महत्वाकांक्षी लक्ष्य
पिछले साल नवंबर में स्कॉटलैंड में आयोजित विश्व जलवायु सम्मेलन मे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने साल 2030 तक देश की अक्षय ऊर्जा क्षमता को 500 गीगावॉट तक पहुंचाने की घोषणा की. हिमाचल प्रदेश सरकार ने अपनी स्वर्ण जयंती नीति के अंतर्गत साल 2030 तक 10 गीगावॉट अक्षय ऊर्जा जोड़ने की योजना बनाई है. इसमें से लगभग 6 गीगावॉट की अक्षय ऊर्जा परियोजनाएं स्पिति तथा चिनाब नदी घाटी में प्रस्तावित हैं.
मार्च में मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने राज्य की ऊर्जा की ज़रूरतों को 100 प्रतिशत अक्षय स्रोतों से तैयार कर हिमाचल को ‘ग्रीन’ स्टेट बनाने की प्रतिबद्धतता जताई. विश्व बैंक ने इस लक्ष्य को प्राप्त करने में अपना समर्थन देने का प्रस्ताव रखा है. स्पिति में प्रस्तावित सोलर पार्क के निर्माण को इस संदर्भ में देखना ज़रूरी है.
दिसंबर 2014 में केंद्रीय नवीन और नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय ने अल्ट्रा मेगा सोलर पार्क परियोजनाओं को बढ़ावा देने के लिए स्कीम निकाली थी. इसके अंतर्गत 500 मेगावॉट की 25 परियोजनाओं को अगले 5 वर्षों में स्थापित किया जाना था. स्पिति वाली परियोजना भी इनमें से एक थी.
शुरूआती दौर में यह परियोजना लटकी रही क्योंकि बिजली का ट्रांसमिशन मंहगा पड़ रहा था. उत्तर क्षेत्रीय बिजली समिति के अनुसार, ट्रांसमिशन की कीमत 2.5 करोड़ प्रति मेगावॉट पड़ रही थी. 2017 में विश्व बैंक के समर्थन ने परियोजना में फिर से जान फूंकी.
सितंबर 2020 में नवीन और नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय ने इस परियोजना का काम एसजेवीएन को सौंपा. अप्रैल 2021 में विश्व बैंक ने सौर ऊर्जा स्थापित करने के लिए अध्ययन के बाद इस परियोजना के निर्माण के लिए हामी भरी.
ट्रांसमिशन की लागत को कम करने के लिए सरकार से धनराशि इकट्ठा करने का फैसला लिया. साथ ही बिजली ट्रांसमिशन के जाल का अधिकतम फायदा उठाने के लिए ज्यादा क्षमता की लाइनों को बिछाने की योजना बनाई गई है ताकि भविष्य में और भी ऊर्जा परियोजनाओं के लिए इनका इस्तेमाल हो सके.
हाल ही में मंत्रालय ने किन्नौर में एक 400 मेगावॉट क्षमता के सोलर पार्क को मंज़ूरी दी जो इसी ट्रांसमिशन कॉरिडोर का इस्तेमाल करेगा.
हिमाचल प्रदेश अक्षय ऊर्जा निर्माण विभाग की सीईओ रुपाली ठाकुर, जो राज्य में सौर ऊर्जा निर्माण और ख़ासकर स्पिति परियोजना का काम देखती हैं, ने बताया, ‘किब्बर में प्रस्तावित सौर परियोजना की क्षमता को 1,000 मेगावॉट से घटाकर 880 मेगावॉट किया गया क्योंकि ट्रांसमिशन लाइनें संरक्षित क्षेत्र से गुज़र रही हैं तो हमें परियोजना की क्षमता को घटाना पड़ा.’
इस साल जनवरी में भारत के पावर ग्रिड कारपोरेशन ने काजा से बिजली संचार करने की योजना के रास्ते के व्यापक अध्ययन और मिट्टी की जांच आदि के लिए एक टेंडर जारी किया था. 180 किलोमीटर लंबी इस ट्रांसमिशन लाइन की लागत लगभग 2,000 करोड़ होगी.
ठाकुर ने बताया, ‘विश्व बैंक ने इस संचार व्यवस्था के लिए मंज़ूरी तो दे दी पर अभी भी लागत से निपटने का काम संबंधित अथॉरिटी को करना है.’
पर इसके अलावा स्थानीय प्रभावों की कीमत को भी देखना ज़रूरी है.
प्रभावों की कोई पड़ताल नहीं
स्पिति के अधिकतर गांव 3,000 से 4,000 मीटर की ऊंचाई पर स्थित हैं. आधे वर्ष यह क्षेत्र बर्फ से ढका रहता है. बाकी के आधे वर्ष में यहां खेती और भेड़ पालन का काम होता है. यानी कि ज़मीन का पूर्ण रूप से इस्तेमाल किया जाता है.
अधिकतर ज़मीन परंपरागत रूप से चरागाह की तरह उपयोग होती रही है. सरकारी दस्तावेजों में अंग्रेजों के समय से यह ‘वेस्टलैंड’ की श्रेणी में दर्ज है क्यों कि यह निजी उपयोग में नहीं आती. कई विशेषज्ञों का मानना है कि इसमें स्थानीय सामूहिक उपयोगों- जैसे पशु चराई और घास- पत्ती, लकड़ी चारे के अधिकार की अनदेखी होती आई है.
हिमाचल प्रदेश की सौर ऊर्जा नीति 2016 कहती है कि राज्य के पास इसके 3% ‘वेस्टलैंड’ तथा छतों का इस्तेमाल कर 34 गीगावॉट सोलर बिजली उत्पादन करने की क्षमता है. भारतीय अक्षय ऊर्जा विकास प्राधिकरण (इरेडा) ने 53 गीगावॉट बिजली क्षमता के लिए राज्य के 5% ‘वेस्टलैंड’ का इस्तेमाल करने की बात कही है. ये सारे लक्ष्य अधिकतर लाहौल, स्पिति और किन्नौर की भूमि पर किए जाएंगे.
भारत की 2011 की वेस्टलैंड एटलस के अनुसार, लाहौल और स्पिति जिले में 76% भूमि (10,526 वर्ग किलोमीटर) और किन्नौर में 51% (3,272 वर्ग किलोमीटर) बतौर ‘वेस्टलैंड’ सीमांकित है.
अल्ट्रा मेगा सोलर पार्क स्कीम के दस्तावेज़ के अनुसार, हर 15 दिन में सोलर पैनल की सफाई के लिए पानी की आवश्यकता होती है. एक सौर ऊर्जा प्लांट में एक मेगावॉट के लिए एक बार पैनलों की धुलाई में लगभग 7,000 से 20,000 लीटर पानी की खपत होती है. स्थानीय लोगों के लिए यही गंभीर चिंता का विषय है.
स्पिति जैसे शीत मरुस्थल क्षेत्र में पहले ही जल संकट बढ़ता जा रहा है चाहे पर्यटकों के बोझ से या फिर घटते हिमपात और हिमखंडों के पिघलने से. हालांकि सोलर पैनल को साफ करने के और भी उपचार हैं, जैसे उच्च दबाव से हवाई धारों को छोड़ना (एयर जेट).
पर जब विश्व बैंक और एसजेवीएन से इस बारे में पूछा गया, तब एसजेवीएन ने कोई जवाब नहीं दिया, वहीं विश्व बैंक ने एक अध्ययन साझा किया जिसमें बर्फीले इलाकों में सौर ऊर्जा निर्माण के बारे में बताया गया था. इसमें ‘सेल्फ क्लीनिंग’ पैनल का ज़िक्र था पर पैनलों पर जमा होने वाली धूल पर कोई बात नहीं थी.
पहले से चल रही परियोजनाओं के बारे में मीडिया रिपोर्ट्स से यह मालूम पड़ता है कि इस तरह के विकास का स्पिति में सामूहिक चरागाह भूमि और पानी के स्रोतों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा.
इसीलिए यह बेहद आवश्यक है कि बड़े पैमाने पर सौर ऊर्जा परियोजना का निर्माण करने से पहले एक विस्तृत प्रभाव आकलन की प्रक्रिया और दस्तावेजीकरण किया जाए. लेकिन केंद्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने सौर ऊर्जा परियोजनाओं को पर्यावरण प्रभाव आकलन की प्रक्रिया से छूट दी हुई है.
अधिकारों से वंचित
परंपरागत रूप से चल रहे रिवाज़ में परिवार की भूमि सबसे बड़े पुत्र के नाम की जाती थी तो आज के दिन स्पिति में ऐसे कई परिवार हैं जिनके पास अपने नाम पर ज़मीन नहीं है और इन्होने गुजर-बसर के लिए सरकारी वन भूमि पर कब्ज़े किए हैं.
सरकारी दस्तावेजों में ये नाजायज़ कब्जों के नाम से अंकित है. जबसे सरकार ने खेतों में सिंचाई योजनाएं चलाईं तबसे अधिक सरकारी भूमि पर खेती होने लगी.
काजा स्थित स्पिति सिविल सोसाइटी के अध्यक्ष ताक्पा तेंजिन का कहना है, ‘बंदोबस्त’ के समय से लोगों के भूमि अधिकार के मामले लंबित हैं’ बंदोबस्त का अर्थ है भूमि की नपाई और कानूनी सीमांकन जिसमें निजी उपयोग के लिए भूमि को भी रेखांकित किया जाता है.
हिमाचल में आज़ादी के बाद यह प्रक्रिया 1970 के दशक में की गई थी. स्पिति तहसील में यह प्रक्रिया 1975 और 1989 के बीच में हुई जिस दौरान कई घरों और खेतों को नाजायज़ करार दिया गया.
आंबेडकर विश्वविद्यालय की रश्मि सिंह का कहना है, ‘स्पिति के कृषि और भेड़पालन आधारित समुदायों के परंपरागत अधिकार इन चरागाहों पर हैं.’ हिमालयी क्षेत्रों में पशुपालन की विशेषज्ञ सिंह बताती हैं कि इन अधिकारों को ध्यान में रखते हुए ही इस तरह की हरित परियोजनाओं पर काम होना चाहिए. स्पिति के संदर्भ में उनका सुझाव है कि इस तरह की संवेदनशील जलवायु में यह अतिआवश्यक है कि समुदायों के साथ जन परामर्श हो और उनके परंपरागत अधिकारों और चरागाहों की सुरक्षा भी.
स्नो लेपर्ड ट्रस्ट के सह-निर्देशक कौस्तुभ शर्मा का कहना है, ‘छोटी, विकेंद्रित परियोजनाएं जो समुदाय की भागीदारी और उनके नेतृत्व में बनाई जाएं तो यह एक अच्छा विकल्प हो सकता है.’
पांच साल पहले काजा के पास में स्थित रांगरिक में 2.5 मेगावॉट क्षमता सोलर वायु ऊर्जा परियोजना घोषित की गई थी. रांगरिक के प्रधान देचन अंगमे बताते हैं, ‘हम तो तैयार थे इसके लिए ज़मीन देने के लिए. इससे हमारी ऊर्जा की ज़रूरत भी पूरी हो सकती थी पर इस परियोजना पर कोई कार्रवाई नहीं हुई.’
तेन्ज़िन अपना डर ज़ाहिर करते हुए कहते हैं, ‘अभी वो सोलर पार्क की बात कर रहे हैं फिर वो ट्रांसमिशन लाइन लाएंगे. फिर जब ट्रांसमिशन का काम हो जाएगा तो और परियोजनाएं आएंगी और देखते ही देखते ये खूबसूरत इलाका बर्बाद हो जाएगा. फिर टूरिस्ट भी क्या देखने आएंगे. केवल सोलर पैनल दिखेंगे यहां!’
स्पिति की शान, शेन का क्या होगा?
4,205 मीटर की ऊंचाई वाले किब्बर गांव के साथ जुड़ा है उसी नाम से एक वन्य जीव अभ्यारण्य. 1,200 वर्ग मीटर में हिमाचल और लद्दाख में फैला यह संरक्षित क्षेत्र एक शीत मरुस्थल बायोस्फीयर रिज़र्व घोषित है.यह शेन (स्नो लेपर्ड), आइबेक्स (बड़े सींगों वाली एक प्रकार की जंगली बकरी) और ब्लू शीप जैसे विलुप्त वन्य जीवों का मुख्य ठिकाना है.
अंतरराष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण यूनियन के रेड लिस्ट में उच्च हिमालयी क्षेत्रों में पाए जाने वाले स्नो लेपर्ड को ‘संवेदनशील’ श्रेणी में डाला गया है. हाल के आंकड़ों के अनुसार, भारत में बर्फीले तेंदुए की जनसंख्या 450 से 500 है और इनके कुल आवास क्षेत्र में से केवल 6% को संरक्षित घोषित किया गया है. पर हिमाचल के वन विभाग ने 2008 में स्नो लेपर्ड संरक्षण के कार्यों को सुधारने के उद्देश्य से पूरे स्पिति को वन्य जीव डिवीज़न बनाया.
स्नो लेपर्ड ट्रस्ट की भारत में सहयोगी संस्था नेचर कंज़र्वेशन फाउंडेशन की मदद से किब्बर के निवासियों ने यहां 20 वर्ग किलोमीटर का संरक्षित क्षेत्र बनाया है. यहां किब्बर वासियों ने बर्फीले तेंदुए के भोजन आइबेक्स और ब्लू शीप को बचाने के लिए चराई को नियंत्रित किया है.
तोब्गे अपने गांव की उस 800 हेक्टेयर भूमि, जहां सोलर पार्क प्रस्तावित है, के संदर्भ में बताते हैं, ‘जब हमने खुद के इस्तेमाल को रोक के बर्फीले तेंदुए को बचाया है तो फिर सरकार इतनी बड़ी परियोजना ऐसे कैसे यहां लगा सकती है. फिर इस संरक्षित क्षेत्र का क्या होगा?’
शेन के लिए केवल तोब्गे ही चिंतित नहीं है. स्नो लेपर्ड ट्रस्ट के कौस्तुभ शर्मा का कहना है कि हाल में किए उनके अध्ययन के अनुसार ऐसे 13 अलग-अलग प्रस्तावित सौर ऊर्जा पार्क, सारे ही स्नो लेपर्ड के आवास क्षेत्र हैं. उनका कहना है, ‘संरक्षण के नजरिये से ये इलाके बहुत बहुमूल्य हैं.’
कुल मिलाकर, स्पिति में सोलर पार्क का निर्माण बड़ी कीमत चुका के ही हो पाएगा, केवल इसलिए नहीं कि यह क्षेत्र सीमांत है, बल्कि इसलिए भी कि स्थानीय लोगों की आजीविका व खास वन्यजीवों के लिए यह भू-भाग अहम भी है. अक्षय ऊर्जा उत्पादन की दौड़ में अव्वल होने के चक्कर में हिमाचल प्रदेश सरकार को इस बात को नजरंदाज नहीं कर सकती.
मीनाक्षी कपूर स्वतंत्र शोधकर्ता हैं. इस लेख के लिए उन्हें ‘इंटर न्यूज़ अर्थ जर्नलिज़्म नेटवर्क’ से वित्तीय सहायता मिली है.
(मूल रूप से द मॉर्निंग कॉन्टेक्स्ट द्वारा अंग्रेज़ी में प्रकाशित इस लेख को लेखक की अनुमति से पुनर्प्रकाशित किया गया है. मांशी आशर द्वारा अनूदित)