मोदी सरकार के व्यापार प्रतिबंधों के पीछे आर्थिक तर्क की जगह राजनीतिक नुकसान का डर है

अप्रैल में केंद्रीय वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के 'निर्यात केंद्रित अर्थव्यवस्था' के निर्माण के सपने की बात की थी, लेकिन एक महीने के भीतर ही केंद्र सरकार ने गेहूं, कपास, चीनी और स्टील पर निर्यात प्रतिबंध लगा दिए हैं.

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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी. (फोटो साभार: पीआईबी)

अप्रैल में केंद्रीय वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ‘निर्यात केंद्रित अर्थव्यवस्था’ के निर्माण के सपने की बात की थी, लेकिन एक महीने के भीतर ही केंद्र सरकार ने गेहूं, कपास, चीनी और स्टील पर निर्यात प्रतिबंध लगा दिए हैं.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी. (फोटो साभार: पीआईबी)

यह एक मानी हुई बात है कि आर्थिक नीति को सुसंगत और अनुमान लगाने लायक होना चाहिए. नीतिगत चंचलता व्यापक आर्थिक विकास के लिहाज से अच्छा संकेत नहीं होती है.

अप्रैल के मध्य में, जब भारत ने 2021-22 में वस्तु और सेवाओं में 670 अरब डॉलर का निर्यात दर्ज किया था तब केंद्रीय वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ‘निर्यात केंद्रित अर्थव्यवस्था’ के निर्माण के सपने की बात की थी, लेकिन एक महीने के भीतर ही केंद्र सरकार ने गेहूं, कपास, चीनी और स्टील पर निर्यात प्रतिबंध लगा दिए हैं.

चावल के निर्यात की भी सीमा तय की जा सकती है. सरकार मुद्रास्फीति में अचानक वृद्धि से घबरा हुई लगती है और इसके राजनीतिक नतीजों की कल्पना ने मोदी को चिंतित कर दिया है.

लेकिन आलोचकों का सवाल है कि जब भारत की मुद्रास्फीति की दर अमेरिका या यूरोप के आसपास भी नहीं है, तब ऐसी अतिरंजित प्रतिक्रिया की क्या जरूरत थी?

स्टील निर्यात पर बगैर किसी पूर्व सूचना के अचानक निर्यात शुल्क लगाने का फैसला बेहद चौंकाने वाला था. टाटा स्टील और जेएसडब्ल्यू जैसे स्टील दिग्गजों ने हाल ही में निर्यात को ध्यान में रखते हुए एक ट्रिलियन रुपये के बराबर क्षमता बढ़ोतरी की योजना का ऐलान किया था, लेकिन निर्यात शुल्क इन इरादों पर पानी फेरने वाला था.

स्टील क्षमता में बढ़ोतरी योजना को अर्थव्यवस्था के लिए महत्वपूर्ण नए निवेश के तौर पर देखा गया था. यह इसलिए भी अहम था क्योंकि आठ साल के मोदी राज में अर्थव्यवस्था में निजी निवेश का अकाल-सा रहा है.

स्टील उद्योग निर्यात को बढ़ावा देने के लिए नई क्षमता के निर्माण की घोषणा करने वाले शुरुआती उद्योगों में से था. इसका कारण यह है कि कई सालों से घरेलू मांग में कमी होने के कारण क्षमता इस्तेमाल काफी कम 75 फीसदी के आसपास है. लेकिन निर्यात पर शुल्क लगाने ने (क्षमता विकास के) फैसले की समीक्षा के लिए प्रेरित किया है.

इसी तरह से, भारत हाल के वर्षों में कृषि का एक मजबूत निर्यातक रहा है. 2021-22 में कृषि क्षेत्र का कुल निर्यात 50 अरब अमेरिकी डॉलर रहा. भारत चावल (10 अरब डॉलर) और चीनी (4.5 अरब डॉलर), कपास (6 अरब डॉलर) और गेहूं (2.5 अरब डॉलर) के सबसे बड़े निर्यातकों में से एक था.

सरकार ने महंगाई को काबू में करने के लिए इनमें से ज्यादातर वस्तुओं पर निर्यात प्रतिबंध लगा दिया है. सरकार के हिसाब से ये प्रतिबंध अस्थायी हैं, लेकिन निर्यातकों का कहना है कि बगैर किसी सूचना के इस तरह अचानक प्रतिबंध लगाने से अंतरराष्ट्रीय बाजार में भारत की साख को चोट पहुंचती है क्योंकि आयातक देश आपूर्ति की निरंतरता चाहते हैं.

चावल के एक बड़े निर्यातक कोहिनूर फूड्स के मैनेजिंग डायरेक्टर गुरनाम अरोड़ा का कहना है, ‘अगर आपूर्ति की निरंतरता को लेकर उनका आप पर से भरोसा उठ जाता है, तो वे किसी और जगह जा सकते हैं.’ सरकार द्वारा 13 मई को अचानक निर्यात प्रतिबंध लगाने से इस विश्वसनीयता को धक्का लगा है.

ऐसे में सवाल है कि निर्यात केंद्रित अर्थव्यवस्था के निर्माण का प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का सपना, महंगाई नियंत्रण के नाम पर निर्यातों पर पाबंदी लगाने के फैसले से कैसे मेल खाता है? भारत का कुल व्यापार (वस्तुओं और सेवाओं का आयात और निर्यात) अब जीडीपी का करीब 50 प्रतिशत है, और इसलिए यह विकास का एक महत्वपूर्ण तत्व है. यह हमारे विदेश से रिश्तों और रुपये के मूल्य को भी गंभीर रूप से प्रभावित करता है.

आश्चर्यजनक ढंग से यह निर्यात प्रतिबंध उस समय लापरवाह किस्म से लगाए गए, जब रुपया भी भारी दबाव में है. ये प्रतिबंध मुख्य तौर पर कृषि उत्पादों पर केंद्रित हैं, जिससे कृषि आय बढ़ाने के सरकार की प्रतिबद्धता को लेकर सवाल उठता है. किसानों के लिए हर 5-6 सालों में कीमतों में बढ़ोतरी होती है और उन्हें उसका लाभ लेने से वंचित करना एक बेहद खराब नीति है.

अगर सरकार सार्वजनिक तौर पर यह दावा करती है कि भारत की बढ़ी हुई मुद्रास्फीति की हालत अमेरिका या यूरोप की तुलना में आधी भी खराब नहीं है, तो यह ऐसे निर्यात प्रतिबंधों को किस तरह से जायज ठहरा सकती है?

अमेरिका और यूरोपीय संघ ने इतनी बड़ी संख्या में वस्तुओं पर प्रतिबंध नहीं लगाया है. यहां तक कि नीति आयोग के पूर्व अध्यक्ष अरविंद पनगढ़िया, जो व्यापार क्षेत्र के एक ख्याति प्राप्त अर्थशास्त्री हैं, भी यह स्वीकार करते हैं कि सरकार सालों से व्यापार नीति सुधार को लेकर अपने पांव पीछे खींचती रही है. निर्यात प्रतिबंध लगाने का फैसला इस प्रवृत्ति को ही मजबूती देने वाला है.

प्रधानमंत्री द्वारा इस तरह के व्यापक निर्यात प्रतिबंध लगाने का मुख्य कारण राजनीतिक है- भारतीय जनता पार्टी मुद्रास्फीति पर नियंत्रण को मोदी के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) सरकार और मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील मोर्चा (यूपीए) सरकार के बीच के प्रमुख अंतर के तौर पर स्थापित कर चुकी है. भाजपा यह कहते हुए नहीं थकती है कि प्रख्यात अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह महंगाई पर नियंत्रण नहीं कर पाए, लेकिन मोदीनॉमिक्स ने इस मामले में चमत्कार कर दिया है.

लगता है कि प्रधानमंत्री तेजी से इस मोर्चे पर मिली हुई बढ़त को गंवाते जा रहे हैं.

ऐसा लगता है कि इन निर्यात प्रतिबंधों के पीछे 2011-13 की आसमान छूती मुद्रास्फीति और यूपीए सरकार द्वारा भुगते गए उसके परिणामों के दोहराव होने का प्रधानमंत्री को डर है.

मुद्रास्फीति की कम या सामान्य दर को ही मोदी संभवतः अपनी एकमात्र उपलब्धि के तौर पर पेश कर सकते थे और अब वह भी हाथ से फिसलती जा रही है. ज्यादातर अन्य पैमानों- जीडीपी वृद्धि, रोजगार, निजी निवेश, अनौपचारिक क्षेत्र की आय- पर मोदी के आठ सालों के कार्यकाल के पास दिखाने के लिए काफी कम है.

ऐसे में यह बात समझ में आ सकती है कि आखिर केंद्र सरकार निर्यात प्रतिबंधों के जरिये महंगाई पर नियंत्रण करने के लिए इतनी बेचैन क्यों है?  लेकिन यह अपने पांव पर खुद कुल्हाड़ी मारने के समान हो सकता है.

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