पहले कभी किसी शहर में राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री या मंत्री वगैरह का दौरा होता है तो माना जाता है कि कम से कम उस दिन वहां सफाई, पानी, बिजली आपूर्ति के साथ शांति व्यवस्था भी चाक-चौबंद रहेगी. लेकिन यूपी में अब सब इतना ‘बदल’ गया है कि राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री के दौरे पर उपद्रव और मुख्यमंत्री-उपमुख्यमंत्री के दौरे के वक़्त हत्याएं तक हो जा रही हैं और किसी भी स्तर पर इसकी शर्म नहीं महसूस की जा रही.
गत शनिवार 4 जून को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ लखनऊ में ग्राउंड ब्रेकिंग सेरेमनी नामक निवेशकों के तीसरे महत्वाकांक्षी सम्मेलन में पलक पांवड़े बिछाकर उन्हें आश्वस्त कर रहे थे कि अब उत्तर प्रदेश उनके सफल व सुरक्षित निवेश के लिए सबसे अच्छी जगह बन गया है. क्या पता उन्हें इसका इल्म था या नहीं कि थोड़ी ही देर में प्रदेश के कानपुर जैसे संवेदनशील औद्योगिक शहर का एक हिस्सा उन सांप्रदायिक व धार्मिक हुड़दंगियों के पथराव, फायरिंग और बमबाजी वगैरह के हवाले हो जाने वाला है जो अमन व चैन नष्ट करने के अपने प्रयासों पर अब राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री वगैरह के अंकुश भी नहीं मानते?
अंकुश मानते तो ऐसा कैसे होता कि एक ओर राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के कानपुर देहात जिला स्थित गांव में आयोजित कार्यक्रम के सिलसिले में उनकी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की गतिविधियां सरगर्म हों और दूसरी ओर उपद्रव होने लग जाएं.
गौरतलब है कि गत एक जून को मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ अयोध्या में बन रहे राम मंदिर के गर्भगृह की पहली शिला रखने आए तो वहां भी हत्यारों ने उनका और उनके साथ मौजूद उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य का कतई कोई अंकुश न मानते हुए एक गर्भवती शिक्षिका को उसके घर में ही चाकू से गोदकर डाला था. ये पंक्तियां लिखने तक अयोध्या पुलिस के हाथ उसके कुसूरवारों तक नहीं पहुंच पाए हैं?
क्या अर्थ है इस सबका? कई ‘नाशुक्रे’ आजकल इसके जवाब में यह कहकर छुट्टी कर देते हैं कि ‘यह नए इंडिया का नया उत्तर प्रदेश है.’ फिर भी इस सवाल का जवाब नहीं मिलता कि अगर प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री को, जिन्हें खुद को डबल इंजन सरकारों यानी साझा जिम्मेदारों के तौर पर पहचाने जाना बहुत पसंद है, कानपुर में उपद्रवियों के मंसूबे का पता था और इसके बावजूद उनके प्रशासन द्वारा उपद्रवियों को विफल नहीं किया जा सका तो यह किसके लिए मुंह छुपाने की बात है?
और अगर डबल इंजन सरकार के इंजनों को कतई कोई जानकारी नहीं थी, इसलिए राष्ट्रपति के गांव में कार्यक्रम के दौरान उपद्रवियों ने उन्हें छकाते हुए अपना मनोरथ पूरा कर डाला तो इसके लिए किसे शरमाना चाहिए? दोनों ही स्थितियों में पहला बड़ा सवाल तो यही बनता है कि क्या हम किसी सरकार से अपने दायित्वों के निर्वहन में ऐसी गैर जिम्मेदारी या लापरवाही बरतने की अपेक्षा करते हैं? जवाब है: नहीं, कतई नहीं.
किसी दिन किसी शहर में राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री या मंत्री वगैरह का दौरा होता है तो माना जाता है कि कम से कम उस दिन वहां सफाई, स्वास्थ्य, जल व बिजली आपूर्ति के साथ शांति की व्यवस्था भी चाक-चौबंद रहेगी. लेकिन अब सब कुछ इतना ‘बदल’ दिया गया है कि राष्ट्रपति व प्रधानमंत्री के दौरे के वक्त उपद्रव व हिंसा और मुख्यमंत्री व उपमुख्यमंत्री के दौरे के वक्त हत्याएं तक हो जा रही हैं और किसी भी स्तर पर इसकी शर्म नहीं महसूस की जा रही तो कौन कह सकता है कि उत्तर प्रदेश एक बार फिर नए प्रश्नों का प्रदेश नहीं बन रहा है?
इसके आगे का सवाल यह है कि अगर किसी उपद्रव के बाद लोगों को आतंकित करने वाली पुलिसिया कार्रवाइयां ही अमन चैन की बहाली का सबसे कारगर हथियार है, जैसा कि इस मामले में मान लिया गया है, तो लोकतंत्र के सबसे बड़े उत्सव चुनाव की मार्फत अस्तित्व में आई लोकतांत्रिक सरकार की भला क्या प्रासंगिकता है?
हम जानते हैं कि हाल के बरसों में इस तरह के अप्रिय सवालों की अनसुनी की परंपरा इतनी ‘समृद्ध’ हो गई है कि इन्हें पूछा जाना भी सत्ताधीशों की शान में गुस्ताखी माना जाने लगा है. इसलिए आमतौर पर उनकी अनसुनी कर दी जाती है और पूछने वालों को कई तरह के जोखिमों के हवाले कर दिया जाता है.
फिर भी जो लोग चाहते हैं कि आगे आने वाला वक्त और अंधेरों भरा न हो, उनके पास यह पूछने का कोई विकल्प नहीं है कि जो योगी सरकार अब व्यापक धरपकड़ के बीच उपद्रवियों पर गैंगेस्टर एक्ट के तहत सख्त से सख्त कार्रवाइयों की घोषणा कर रही है, वह तब गंभीर क्यों हुई नहीं थी, जब उसी की पार्टी यानी भाजपा की प्रवक्ता नूपुर शर्मा ने ज्ञानवापी मस्जिद मामले को लेकर एक टीवी चैनल पर पैगंबर मोहम्मद के खिलाफ कथित आपत्तिजनक टिप्पणी की थी और कानपुर के संगठन मौलाना मोहम्मद अली (एमएमए) जौहर फैंस एसोसिएशन ने उसको लेकर आंदोलन का ऐलान किया था?
क्या तब सरकार उपयुक्त कार्रवाई के लिए किसी बड़ी घटना का इंतजार कर रही थी? अगर हां, तो क्या समय रहते एहतियाती कार्रवाई करके घटन को बड़ी न होने देना ज्यादा श्रेयस्कर नहीं होता? यह क्या कि पहले सरकारी पार्टी के नेता ही अनाप-शनाप टिप्पणियों से माहौल खराब करें, फिर सरकार उनके विरुद्ध प्रतिक्रिया का सही अंदाजा भी न लगा सके?
ऐसे में विपक्षी नेताओं द्वारा आपत्तिजनक टिप्पणी करने वाली उक्त भाजपा नेता को गिरफ्तार करने की मांग करने और राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री व मुख्यमंत्री के नगर में रहते हुए कानपुर में दंगा भड़कने को पुलिस खुफिया तंत्र की विफलता का द्योतक बताने या यह पूछने में क्या अनूुचित है कि शांति व्यवस्था के अभाव में प्रदेश में निवेश व विकास कैसे संभव है? उनके यह कहने को भी गलत कैसे ठहराया जा सकता है कि भाजपा ने भीड़तंत्र के रूप में जो भस्मासुर पाले हैं, अब वे रंग दिखा रहे हैं.
कोई कहे कुछ भी, इन दिनों उत्तर प्रदेश की कानून व्यवस्था की सच्चाई यही है कि प्रदेशवासी भाजपा द्वारा प्रवर्तित भीड़तंत्र और पुलिस दोनों से त्रस्त हैं और उनके निकट इनमें ‘को बड़ छोट कहत अपराधू’ वाली स्थिति है. कई क्षेत्रों में इससे पैदा हुई निराशा इस हद तक पहुंच गई है कि पुलिस की दबिश के दौरान या अन्यथा भी अत्याचार के शिकार लोग अपनी जान दे देते हैं, क्योंकि उन्हें अपनी रात की कोई सुबह नहीं दिखाई देती.
गत दिनों बदायूं जिले में बिनावर थाना क्षेत्र के चन्दौरा गांव में पुलिस के उत्पीड़न से परेशान एक युवती द्वारा फांसी लगाकर आत्महत्या कर लेने का मामला इसी की मिसाल था. बागपत जिले के छपरौली क्षेत्र के बाछौड़ गांव में पुलिस की दबिश के दौरान जहर खा लेने वाली मां और दो बेटियों की मौत का मामला भी ऐसा ही था, जिसका स्वतःसंज्ञान लेते हुए राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने प्रदेश के मुख्य सचिव और पुलिस महानिदेशक को नोटिस जारी करके चार हफ्ते में रिपोर्ट मांगी है.
आमतौर पर लोग अपराधियों, अराजक तत्वों व उपद्रवियों वगैरह से पीड़ित होते हैं तो पुलिस के पास जाकर उनकी शिकायत करते हैं और वह उनकी रपट वगैरह न लिखे या कार्रवाई न करे तो अधिकारियों व जनप्रतिनिधियों वगैरह से शिकायत करते हैं. लेंकिन इन दिनों उत्तर प्रदेश के लोग ऐसा करते हुए अपने एक ओर कुआं महसूस करते हैं तो दूसरी ओर खाई.
कारण यह कि मुख्यमंत्री द्वारा पुलिस को दी गई ठोक दो की पुरानी ‘खुली छूट’ के बीच उनके निकट पुलिस का चेहरा उन्हें सताने वाले दबंगों से बस एक मायने में ही अलग रह गया है: कथित दबंग कभी-कभी उन्हें बख्श भी देते हैं.
सवाल फिर वही कि यह स्थिति प्रदेश को नए प्रश्नों की ओर ले जाएगी या उत्तरों की? लेकिन इसे पूछेगा कौन और जवाब कौन देगा? मीडिया की मुख्यधारा ने अभी ‘मूंदहु आखि कतहुं कछु नाहीं’ की भूमिका अपना रखी है और सत्ताधीशों को सब हरा-हरा ही दिखाई दे रहा है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)