सही मायने में अयोध्या और यहां रहने वाले लोगों की फ़िक्र किसी को नहीं है. 1,71,000 दीयों वाली सरकारी दीपावली मनाकर योगी सरकार सिर्फ़ अपने एजेंडे को आगे बढ़ा रही है.
बुधवार को 1,71,000 दीयों वाली सरकारी दीपावली और ‘राम राज्याभिषेक’ के लिए उत्तर प्रदेश सरकार का अयोध्या पहुंचना अभी बाकी है, लेकिन इस आयोजन को गिनीज बुक आफ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स में शामिल कराने की उसकी हसरत सवालों और अंतर्विरोधों के हवाले होनी शुरू हो गई है.
इलेक्ट्रॉनिक मीडिया द्वारा किये जा रहे महिमागान के विपरीत भगवान राम की धरती पर इस सरकारी दीपावली का दो मुश्किलों से सामना है: पहली यह कि अपनी बदहाली से उकताई अयोध्या योगी आदित्यनाथ सरकार के हिंदू एजेंडे को लेकर ज्यादा उत्साहित नहीं हो पा रही जबकि दूसरी यह कि दीपावली जैसे उल्लास के पर्व के राजनीतिकरण को लेकर विपक्ष तो विपक्ष साधु-संतों का एक खेमा भी उससे खासा नाराज है.
यह नाराजगी यहां तक जा पहुंची है कि योगी आदित्यनाथ को राममंदिर आंदोलन के दिवंगत नायक परमहंस रामचंद्रदास के दिगंबर अखाड़े में रात्रि विश्राम का अपना इरादा बदल देना पड़ा है. इसलिए कि कतिपय संत सख्ती से उनके विरोध पर उतर आये हैं और अखाड़े से गोरक्षपीठाधीश्वर महंत अवैद्यनाथ के वक्त से चले आ रहे मधुर रिश्तों का हवाला देने पर भी पसीजने को तैयार नहीं. सो अब योगी सरकारी सरकिट हाउस में रात्रिविश्राम करेंगे.
उनकी सरकार कह रही है कि यह ‘विश्वस्तरीय’ दीपावली होगी लेकिन अयोध्या और साथ ही उसके जुड़वां शहर फैजाबाद में सबसे आम सवाल यह है कि खंडहर होते जा रहे अयोध्या के मंदिरों को यह कुछ घंटों की थोथी जगर-मगर कितनी सुहायेगी?
फैजाबाद से प्रकाशित दैनिक ‘जनमोर्चा’ के संपादक शीतला सिह बताते हैं कि अयोध्या में ऐसे मंदिरों की संख्या बहुत कम है, जिन्हें श्रद्धालुओं व तीर्थयात्रियों के चढ़ावों से काम भर को आय होती हो. उनमें से कई अपने पुनरुद्धार को कौन कहे, रंग-रोगन में भी समर्थ नहीं हैं. जो राजे-रजवाड़े और रियासतें या जातीय पंयायतें परंपरा से उनका प्रबंध संभालती और संरक्षण देती आ रही थीं, अब उनका या तो अस्तित्व ही नहीं बचा है या सामर्थ्य घट गयी है.
वे आगे कहते हैं कि एक समय उन्हें भाजपा व विहिप के हिंदू एजेंडे से बड़ी उम्मीद थी, लेकिन कल्याण सिंह के मुख्यमंत्रीकाल में प्रतिष्ठित साक्षी गोपाल समेत कई मंदिरों के जबरन ढहा दिए जाने और उसके बाद से अब तक मंदिरों की हालत सुधारने की सोचने के बजाय मेलों वगैरह के वक्त हड़बोंगों से उनकी हालत और खराब करने को लेकर वे उनसे नाराज हैं.
शीतला सिंह बताते हैं कि अयोध्या में बड़ी संख्या में ऐसे मठ-मंदिर भी हैं जो वहां के साधुओं-महंतों के झगड़ों की गिरफ्त में आकर जीर्ण-शीर्ण अवस्था में या बर्बादी के कगार पर हैं. उनकी अलग ही समस्या है, जिसे सुलझाने में आज तक किसी सरकार ने कोई रुचि नहीं ली.
समाजवादी विचार मंच के संयोजक अशोक श्रीवास्तव शिकायत कहते हैं कि इस सरकार द्वारा अयोध्या के बहाने आगे किया जा रहा तथाकथित हिंदू एजेंडा इतना संकीर्ण है कि उसमें सारे हिंदू ही नहीं समा सकते तो और समुदायों की बात क्या की जाये. इसे रामजन्मभूमि, हनुमानगढ़ी और दिगंबर अखाड़े से आगे कुछ नजर ही नहीं आता, जबकि अयोध्या धार्मिक कट्टरता में नहीं, समन्वय में विश्वास करती है और वहां मंदिर हनुमान का भी हो तो राम की मूरत उसकी शोभा बढ़ाती है.
वे पूछते हैं कि क्या भरतकुंड, लक्ष्मणघाट, चतुर्भुजीमंदिर, शेषनाग मंदिर और नागेश्वरनाथ मंदिर के खस्ताहाल पर इसलिए ध्यान नहीं दिया जाना चाहिए कि वे वोट और राजनीति करने का माध्यम नहीं हैं?
आखिर क्यों केंद्र सरकार हो या प्रदेश सरकार, उनकी अयोध्या संबंधी योजनाएं राम की पैड़ी और गुप्तारघाट के सुन्दरीकरण के अलावा दिगंबर अखाड़े में एक बहुउद्देशीय प्रेक्षागृह के निर्माण तक ही सीमित हैं? क्यों अभी तक अयोध्या में सड़कों के आधुनिकीकरण, शौचालयों व नालियों के दुरुस्तीकरण और जलनिकासी तक के समुचित प्रबंध नहीं हैं.
प्रसंगवश, सत्तर के दशक में आंध्र प्रदेश के कांग्रेसी नेता मधु चेन्ना रेड्डी उत्तर प्रदेश के राज्यपाल थे तो उन्होंने अयोध्या आकर सुझाव दिया था कि दक्षिण भारत की भांति यहां भी मंदिरों का अधिग्रहण करके उनका प्रबंधन धार्मिक ट्रस्ट को दे दिया जाये. लेकिन कुछ लोगों ने इस सुझाव का इतना विरोध किया कि आगे किसी की उसे दोहराने की भी हिम्मत नहीं पड़ी.
दूसरे पहलू पर जायें तो अयोध्या यकीनन, भगवान राम की जन्मभूमि है. स्वाभाविक ही वहां राम व सीता के मंदिरों की संख्या अधिक है. लेकिन उसमें पांच जैन मंदिरों के अलावा महात्मा बुद्ध से जुड़े कई स्थान और 45 पंजीकृत मुस्लिम मस्जिदें भी हैं और उनके विकास का सवाल भी मुंह बाये खड़ा है.
जैनियों के चार तीर्थंकर भी यहीं पैदा हुए थे, जबकि गौतम बुद्ध ने अपने 16 वर्षकाल यहीं बिताये थे.
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के वरिष्ठ नेता सूर्यकांत पाडे सवाल उठाते हैं कि इस सरकार को अयोध्या में दीपावली ही मनानी थी तो उसने उसके आयोजन के ढांचे में इन सबको शामिल क्यों नहीं किया? क्या इसलिए कि वह दीयों से ज्यादा लोगों के दिल जलाना चाहती है? साथ ही समता व धर्मनिरेपक्षता जैसे संवैधानिक मूल्यों को भी?
वे कहते हैं कि योगी आदित्यनाथ में इतना उथलापन है कि वे भगवान राम के वारिस होने लायक ही नहीं. इस तरह दीपावली मनाकर भी वे भगवान राम को छोटा ही कर रहे हैं.
पांडे कहते हैं, ‘किसी को तो योगी को समझाना चाहिए कि भगवान राम को मानने वाले दुनिया के 65 देशों में हैं और उनमें अनेक हिन्दू धर्मावलम्बी नहीं हैं. 29 देशों में रामकथाओं का मंचन होता हैं और राम के बारे में उन सबकी कथाएं व कल्पनाएं अलग हो सकती हैं.’
इतिहासकार डाॅ. हरिप्रसाद दुबे पूछते हैं कि ऐसे में किसी एक कल्पना को ही सब पर लादने से अयोध्या का आकर्षण या महत्व कैसे बढ़ सकता है? इस जिद के साथ उसका पर्यटन विकास भी कैसे संभव है? इसके लिए तो अयोध्या के सर्वधर्मसमभावी स्वरूप को ध्यान में रखना होगा.
बहरहाल, आज की अयोध्या की कड़वी सच्चाई है कि प्रदेश में 1992 के बाद जो भी सरकार आई, उसने अयोध्या के विकास पर कोई खास ध्यान न देते हुए मन्दिर-मस्जिद विवाद को ही केंद्र में रखा.
इसका नुकसान यह हुआ कि आज अयोध्या में मंदिर के नाम पर खंडहर मौजूद हैं और उसके ऐतिहासिक कुंड नाले या तालाब बनते जा रहे हैं. उनकी जमीनों पर दलाली करने वालों का कब्जा भी एक बड़ी समस्या है.
नगरी में ऐसे मंदिरों की एक पूरी श्रृंखला है, जो सौ से लेकर तीन सौ वर्ष तक पुरानी है, जो ढह रही है और जिसके पुनरुद्धार का किसी के पास कोई सपना नहीं है. हिंदू एजेंडे पर आगे बढ़ रही योगी सरकार को भी उनकी फिक्र नहीं ही है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और फैज़ाबाद में रहते हैं)