स्मृति शेष: बीते दिनों प्रसिद्ध आलोचक, भाषाविद और उर्दू भाषा व साहित्य के विद्वान डॉ. गोपी चंद नारंग नहीं रहे. ऐसे समय में जब उर्दू भाषा को धर्म विशेष से जोड़कर उसकी समृद्ध साझी विरासत को भुला देने की कोशिशें लगातार हो रही हैं, डॉ. नारंग का समग्र कृतित्व एक भगीरथ प्रयास के रूप में सामने आता है.
प्रसिद्ध आलोचक, भाषाविद और उर्दू भाषा व साहित्य के अप्रतिम विद्वान गोपी चंद नारंग का 15 जून, 2022 को अमेरिका में निधन हो गया. अपने लंबे अकादमिक जीवन में गोपी चंद नारंग ने उर्दू, अंग्रेज़ी और हिंदी में साठ से अधिक किताबें लिखीं.
वे उन गिने-चुने विद्वानों में से थे, जिन्हें भारत और पाकिस्तान दोनों ही देशों की सरकारों ने सम्मानित किया. जहां भारत सरकार ने उन्हें पद्म भूषण से नवाजा, वहीं पाकिस्तान ने उन्हें ‘सितारा-ए-इम्तियाज़’ से सम्मानित किया.
बलूचिस्तान से दिल्ली, और आगे…
गोपी चंद नारंग का जन्म वर्ष 1931 में बलूचिस्तान के एक छोटे-से गांव दुक्की में हुआ था. उनके घर पर तो वैसे सरायकी भाषा बोली जाती थी, मगर उनके पिता धरम चंद नारंग फ़ारसी और संस्कृत के विद्वान थे और उन्होंने ही गोपी चंद नारंग के मन में साहित्य के प्रति गहरा लगाव पैदा किया.
इस तरह आरंभ से ही गोपी चंद नारंग को बहुभाषाई संस्कृति का तजुर्बा हासिल हुआ, जिसने उन्हें भाषा और साहित्य को बरतने की सलाहियत दी. युवावस्था में ही उन्होंने रतन नाथ सरशार, मिर्ज़ा ग़ालिब और अल्लामा इक़बाल की रचनाओं के साथ-साथ डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन और सैयद आबिद हुसैन की दार्शनिक पुस्तकों को भी पढ़ डाला.
विभाजन के बाद गोपी चंद नारंग दिल्ली आए और वर्ष 1952 में उन्होंने प्रसिद्ध दिल्ली कॉलेज में एमए (उर्दू) में दाख़िला लिया, जहां ख़्वाजा अहमद फ़ारूक़ी उन्हें शिक्षक के रूप में मिले.
छात्र जीवन में ही वे प्रसिद्ध शिक्षाविद डॉक्टर ज़ाकिर हुसैन के संपर्क में आए और उनसे गहरे प्रभावित हुए. इसके साथ ही गोपी चंद नारंग डॉक्टर ताराचंद, सैयद आबिद हुसैन, मुहम्मद मुजीब, आले अहमद सुरूर, रशीद अहमद सिद्दीक़ी, इम्तियाज़ अली अर्शी, मालिक राम, मसूद हसन रिज़वी अदीब, नजीब अशरफ़ नदवी, सैयद मुहीउद्दीन क़ादरी ज़ोर जैसे विद्वानों के भी सान्निध्य में रहे.
दिल्ली विश्वविद्यालय से 1958 में डॉक्टरेट की उपाधि हासिल करने के बाद उन्होंने इंडियाना यूनिवर्सिटी से भाषा विज्ञान की पढ़ाई की.
गोपी चंद नारंग ने सेंट स्टीफ़न्स कॉलेज से अपने अध्यापकीय जीवन की शुरुआत की और आगे चलकर दिल्ली विश्वविद्यालय, जामिया मिलिया इस्लामिया और विस्कॉन्सिन यूनिवर्सिटी में भी अध्यापन किया. इसके अलावा वे मिनिसोटा यूनिवर्सिटी और ओस्लो यूनिवर्सिटी (नॉर्वे) में विज़िटिंग प्रोफ़ेसर रहे.
उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया. यही नहीं वे साहित्य अकादमी के फ़ेलो और अध्यक्ष भी रहे. वर्ष 2010 में भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा उन्हें उनकी किताब ‘उर्दू ग़ज़ल और हिंदुस्तानी ज़ेहन-ओ-तहज़ीब’ के लिए मूर्तिदेवी पुरस्कार प्रदान किया गया.
साझे सांस्कृतिक मूल्यों की तलाश
गोपी चंद नारंग अपने समग्र लेखन में भारतीय उपमहाद्वीप के साझे सांस्कृतिक मूल्यों की तलाश करते रहे. इस तलाश के लिए उन्होंने उर्दू भाषा और साहित्य की समृद्ध विरासत को चुना. उनका विश्वास था कि भारतीय उपमहाद्वीप का वर्तमान और भविष्य इन्हीं साझे सांस्कृतिक मूल्यों से गहरे जुड़ा हुआ है और यह भी कि ‘इनको अपनाए बिना उपमहाद्वीप के भविष्य का कोई रोशन तसव्वुर संभव नहीं.’
उर्दू ग़ज़लों और मसनवियों में पैबस्त भारतीय लोकमानस और संस्कृति की जैसी गहरी पड़ताल गोपी चंद नारंग ने की, वह बेमिसाल है. अपने शोधकार्य में गोपी चंद नारंग ने उर्दू काव्य के सांस्कृतिक पक्ष को रेखांकित किया. आगे चलकर उन्होंने ‘हिंदुस्तानी क़िस्सों से माखूज़ उर्दू मसनवियां’ और ‘उर्दू ग़ज़ल और हिंदुस्तानी ज़ेहन-ओ-तहज़ीब’ जैसी किताबें लिखीं, जो उर्दू की विविध साहित्यिक विधाओं पर भारतीय संस्कृति और लोकजीवन के गहरे प्रभाव को रेखांकित करती हैं.
हिंदुस्तानी लोकरंग से सराबोर उर्दू मसनवियों के संदर्भ में उनका कहना था कि ‘उर्दू की दूसरी विधाओं की तरह ही हमारी मसनवियां भी उस ग्रहण व स्वीकार, मेल-जोल और साझेदारी का पता देती हैं जो हिंदुओं और मुसलमानों के आपसी मेल-जोल के बाद सांस्कृतिक और सामाजिक स्तर पर भी सक्रिय रहीं.
हमारी मसनवियां चूंकि साझा संस्कृति और मिले-जुले सामाजिक जीवन के प्रभाव में लिखी गईं, इसलिए उनमें इस्लामी क़िस्से-कहानियों के अलावा भारतीय लोक कथाओं और लोक परंपराओं से प्रभावित होने का रुझान भी पाया जाता है.
‘हिंदुस्तानी क़िस्सों से माखूज़ उर्दू मसनवियां’ में गोपी चंद नारंग ने पौराणिक कथाओं, प्राचीन लोक कथाओं, अर्ध ऐतिहासिक कथाओं, उत्तर भारत की मसनवियों के साथ-साथ हिंद-ईरानी क़िस्सों का भी विचारोत्तेजक अध्ययन किया.
उक्त किताब के बारे में प्रसिद्ध आलोचक आले अहमद सुरूर ने लिखा था कि
‘उर्दू मसनवियों में जो फ़िज़ा और माहौल है उसकी तरफ़ अभी तक बहुत कम तवज्जो की गई है. डॉक्टर नारंग ने इस कमी को दूर करने की पूरी कोशिश है और निहायत तलाश और तहक़ीक़ से उर्दू मसनवियों की हिंदुस्तानी बुनियाद का जायज़ा लिया है. नारंग जिस मौजूअ पर क़लम उठाते हैं उसके सारे गोशों पर नज़र रखते हैं. उन्होंने तहक़ीक़ के उन नवादिर को जो नज़रों से ओझल थे, यकजा करके एक दास्तान मुरत्तब की है, जिसमें मालूमात के साथ दिलकशी भी है.’
‘तूती-ए-हिंद’ कहे जाने वाले अमीर खुसरो के हिंदवी कलाम पर भी गोपी चंद नारंग ने उल्लेखनीय कार्य किया. यही नहीं अपनी एक अन्य महत्वपूर्ण पुस्तक ‘हिंदुस्तान की तहरीक-ए-आज़ादी और उर्दू शायरी’ में उन्होंने राष्ट्रीय आंदोलन से जुड़ी उर्दू शायरी के बारे में सविस्तार लिखा. जो नई दिल्ली स्थित क़ौमी काउंसिल बराए फ़रोग़-ए-उर्दू ज़बान द्वारा प्रकाशित की गई.
ऐसे समय में जब उर्दू जैसी भाषा को धर्मविशेष से जोड़कर उसकी समृद्ध साझी विरासत को भुला देने की कोशिशें लगातार हो रही हैं, गोपी चंद नारंग का समग्र कृतित्व एक भगीरथ प्रयास के रूप में सामने आता है.
इस परियोजना को अंजाम देने के राह में आने वाली चुनौतियों से वे भी बख़ूबी वाक़िफ़ थे. अकारण नहीं कि उन्होंने लिखा कि ‘एक ऐसे कालखंड में जब सदियों की संस्कृति पर प्रश्न चिह्न लग गया है और वही भाषा जो हिंदुस्तान में सबसे बड़ा सांस्कृतिक पुल थी, ग़ैर तो ग़ैर ख़ुद उसके नाम लेने वाले सांप्रदायिकता फैलाने में लगे हैं, इन परिस्थितियों में इस प्रकार का काम दीवाने के स्वप्न जैसा है.’
काव्यशास्त्र का तुलनात्मक अध्ययन
सरंचनावाद और उत्तर-संरचनावाद के साथ पूर्व के काव्यशास्त्र का तुलनात्मक अध्ययन उन्होंने अपनी किताब ‘साख़्तियात, पस-साख़्तियात और मशरिक़ी शेअरियात’ में किया.
इस महत्वपूर्ण किताब में जहां एक ओर उन्होंने पश्चिम के सरंचनावादी, रूपवादी और उत्तर-संरचनावादी विचारकों की भाषा और काव्य संबंधी स्थापनाओं का गहन विश्लेषण किया. इस फ़ेहरिस्त में सॉस्युर, रोमन यॉकबसन, नॉम चॉम्स्की, लेवी स्ट्रॉस, जाक़ लकां, मिशेल फूको, जूलिया क्रिस्टेवा के साथ-साथ टेरी इगलटन, फ़्रेडरिक जेमसन, गोल्डमन जैसे मार्क्सवादी विचारक भी प्रमुखता से शामिल थे. वहीं, दूसरी ओर गोपी चंद नारंग ने संस्कृत, अरबी और फ़ारसी के काव्यशास्त्रीय और संरचनावादी चिंतन का भी विशद अध्ययन किया, जिसमें स्फोट सिद्धांत, ध्वनि सिद्धांत, रस-सिद्धांत की विवेचना शामिल थी.
विचारों के लेन-देन और समन्वय को रेखांकित करते हुए अपनी इसी किताब में गोपी चंद नारंग ने लिखा कि ‘बयारें कहीं की हों, लाभ उठाना ठीक है, पैर निःसंदेह धरती पर टिके होने चाहिए. जो जितना सामंजस्यपूर्ण होगा या हो सकेगा वह रचनात्मक रूप से हमारा हो जाएगा, शेष निरस्त हो जाएगा. यह सांस्कृतिक द्वंद्वात्मक प्रक्रिया है और इसी से पुनर्गठन होता है, इसमें कोई संदेह नहीं है.’
संकलन और संपादन
साठ के दशक में गोपी चंद नारंग ने विद्यार्थियों के लिए उर्दू के साहित्यिक गद्य का एक संकलन भी तैयार किया, जो वर्ष 1967 में विस्कॉन्सिन यूनिवर्सिटी द्वारा ‘रीडिंग्स इन लिटरेरी उर्दू प्रोज़’ शीर्षक से प्रकाशित किया गया.
इस महत्वपूर्ण संकलन में मीर अम्मन देहलवी, अल्ताफ़ हुसैन हाली, मुहम्मद हुसैन आज़ाद, मिर्ज़ा मुहम्मद हादी रुस्वा, प्रेमचंद, अबुल कलाम आज़ाद, मौलवी अब्दुल हक़, महात्मा गांधी, रशीद अहमद सिद्दीक़ी, ज़ाकिर हुसैन, आले अहमद सुरूर, सैयद एहतेशाम हुसैन, कृश्न चंदर और क़मर रईस की रचनाओं के साथ-साथ गोपी चंद नारंग के लेख भी शामिल थे.
आगे चलकर इस किताब के हिंदी अनुवाद का प्रकाशन ‘नेशनल काउंसिल फ़ॉर प्रोमोशन ऑफ उर्दू लैंग्वेज’ द्वारा किया गया. यह संकलन विद्यार्थियों का परिचय पंचतंत्र, जातक, मसनवी-ए-रूमी, गुलिस्तां-ए-सादी और ‘द अरेबियन नाइट्स’ से भी कराता है. यही नहीं, मशहूर कहानीकार राजिंदर सिंह बेदी की चुनिंदा कहानियों का संकलन भी उन्होंने तैयार किया, जो साहित्य अकादमी द्वारा छापा गया.
उर्दू के प्रति दीवानगी
उर्दू के भाषाविज्ञान और बोलियों के संदर्भ में गोपी चंद नारंग ने अपनी महत्वपूर्ण किताब ‘करखनदारी डायलेक्ट ऑफ देल्ही उर्दू’ में विस्तार से लिखा, जिसमें उन्होंने उर्दू भाषा के ध्वनि विज्ञान (फ़ोनोलॉजी), व्याकरण और शब्द-भंडार पर रोशनी डाली है.
करखनदारी से मुराद यहां उस बोली से है जो पुरानी दिल्ली के व्यापारियों, दस्तकारों, मज़दूरों, शिल्पियों और दूसरे बाशिंदों द्वारा बोली जाती है. अपनी यह महत्वपूर्ण किताब उन्होंने उर्दू के मशहूर विद्वान और आलोचक आले अहमद सुरूर को समर्पित की थी.
उर्दू के संबंध में गोपी चंद नारंग का मानना था कि ‘उर्दू मिलीजुली साहित्यिक और सांस्कृतिक परंपराओं के भीतर से उभरी है. यह नहीं भूलना चाहिए कि उर्दू एक भारतीय भारतीय आर्य भाषा है. हिंदी, बांग्ला और मराठी से उसका संबंध मौलिक और आधारभूत है. उसका मानस एवं स्वभाव हिंदुस्तानी है. उर्दू मानो भाषाओं के संसार का ताजमहल है जो अपने सांस्कृतिक एवं सौंदर्यात्मक समन्वयकारी रूप एवं आकर्षण से अपनी विशेष पहचान रखता है.’
लगभग सात दशक लंबे अपने अकादमिक जीवन में गोपी चंद नारंग ने उर्दू भाषा और साहित्य को निरंतर समृद्ध किया. इसके साथ ही साझे सांस्कृतिक मूल्यों के पक्ष में खड़े रहे और भाषा को सांप्रदायिक आधार पर बांटने की संकीर्ण मनोवृत्ति से लोहा लेते रहे.
उर्दू और साझे सांस्कृतिक मूल्यों के प्रति अपनी इसी प्रतिबद्धता के बाबत गोपी चंद नारंग ने अपनी किताब ‘उर्दू ग़ज़ल और हिंदुस्तानी ज़ेहन-ओ-तहज़ीब’ में लिखा था कि
‘इसे दीवानगी ही कहा जाएगा कि मेरे काम में चाहे वह भाषा एवं शैली से संबंधित हो या देवमाला से, कथा कहानी, फ़िक्शन, अफ़साना या ग़ज़ल, मसनवी से या साहित्यिक सिद्धांत से, मीर, ग़ालिब, अनीस, इक़बाल व नज़ीर से या प्रेमचंद, मंटो, बेदी, कृश्न चंदर, फ़ैज़, फ़िराक़ से, जड़ों की खोज या सांस्कृतिक संबंधों का पुनरावलोकन कहीं प्रत्यक्ष कहीं अप्रत्यक्ष मेरे साथ रहा है. और मेरे मानसिक उद्वेग के लिए दिशासूचक का काम करता रहा है. इसमें मैं कितना सफल हुआ कितना असफल- ये मैं नहीं जानता. मेरे हिसाब से जहां मामला इश्क़ का हो, सफलता या असफलता पैमाना नहीं हुआ करती.’
(लेखक बलिया के सतीश चंद्र कॉलेज में पढ़ाते हैं.)