आजकल भारत में जो हो रहा है, वह ढर्रा पाकिस्तान का है

ऐसी पीढ़ी तैयार करने की कोशिश हो रही है जो नफ़रत पर आधारित हो. पहले इतिहास में दुश्मन पैदा करें फिर उससे लड़ें. ऐसे इतिहास का असर हम पाकिस्तान को देखकर समझ सकते हैं.

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(फोटो साभार: रॉयटर्स)

ऐसी पीढ़ी तैयार करने की कोशिश हो रही है जो नफ़रत पर आधारित हो. पहले इतिहास में दुश्मन पैदा करें फिर उससे लड़ें. ऐसे इतिहास का असर हम पाकिस्तान को देखकर समझ सकते हैं.

Tajmahal Reuters (2)

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का अपना एजेंडा है जो आजादी के बहुत पहले से चल रहा है. वे मिथ और इतिहास को मिला देते हैं. इसी वजह से वे इतिहास को नए सिरे से लिखने की बात करते हैं क्योंकि आप अंतर ही खत्म कर दीजिए कि इतिहास और मिथ क्या है, इसके बाद इतिहास को जैसे आप चाहेंगे, वैसे लिखेंगे.

यह पुराना एजेंडा है जिसे संघ के लोग समय-समय पर आगे बढ़ाने की कोशिश करते हैं. 1925 से अब तक आप देखिए, संघ ने हमेशा यह बताने की कोशिश की है कि देश में एक बहुसंख्यकवादी सोच है. एक राष्ट्रवाद ऐसा होता है जो समावेशी होता है, जिसमें आप सबको जोड़कर रखते हैं, दूसरा राष्ट्रवाद वह होता है जिसमें आप पहले दुश्मन की पहचान करके यह बताने की कोशिश करते हैं कि ये लोग राष्ट्रवादी नहीं हैं.

एक सांप्रदायिकता वह है जो राष्ट्रवाद हो जाती है, एक सांप्रदायिकता अलगाववाद हो जाती है यानी एंटी-नेशनल. हैं दोनों ही सांप्रदायिकता. आजकल जो एजेंडा आगे बढ़ाया जा रहा है, खास तौर से जिसे सरकार का खास सहयोग है, ऐसी बातों से उसमें दक्षिणपंथी खेमे को मदद मिलती है. उस विचारधारा का जो पूरा एजेंडा है, एक खास तरह की सोच है, उसे आगे बढ़ाने में मदद मिलेगी.

बात यह है कि नेशनल और एंटी-नेशनल की स्थिति को लेकर जैसा इतिहास आप पढ़ाना चाहते हैं, वह तर्कसंगत नहीं है. मध्यकालीन और प्राचीन भारत में हीरो ढूंढ़ने की कोशिश बहुत ही असंगत है. क्योंकि उस वक्त के हीरो एक बोझ के साथ आते हैं, उस कालखंड का बोझ, उस कालखंड की सोच. चाहे वह प्राचीन भारत हो, चाहे वह मध्यकालीन भारत हो. आज आधुनिक जमाने में आप प्राचीन और मध्य भारत से हीरो ढूंढकर लाते हैं तो दिक्कत होती है.

ऐसे मुद्दों पर फिल्में भी बन रही हैं. कुछ समय पहले बाजीराव मस्तानी फिल्म आई तो उस पर लेख लिखे गए कि बाजीराव ने लोगों पर क्या-क्या जुल्म किए, लोगों को मारा और जाने क्या-क्या… लेकिन यह उनकी कोई गलती नहीं है. वे एक कालखंड के लोग थे. वे अच्छे काम भी करते थे, बुरे काम भी करते थे. आज अगर आप मध्यकालीन लोगों को हीरो बनाते हैं तो उनकी अच्छाई-बुराई और उस युग को ध्यान में रखना चाहिए.

कोशिश यह होनी चाहिए कि इतिहास से हीरो लाने के बजाय उससे कुछ सबक सीखने की कोशिश करें. उनकी बुराइयों से बचें. एक नायक आप ढूंढ़ते हैं तो उसमें बुराई तो दिखाई नहीं देती. वह तो हीरो हो गया. उसमें बुराई तो हो ही नहीं सकती. यह इतिहास का सही सबक नहीं है. इतिहास के बारे में कहा जाता है कि उससे सबक लेना चाहिए. जो इतिहास में अच्छा नहीं था, उससे बचिए, तभी तो सबक हुआ. आपने आंख बंद करके सब कुछ अपना लिया तो फिर सबक कहां हुआ? आपने तो कुछ सीखा ही नहीं.

आज इतिहास की बात बार-बार होती है, वह यही है कि आप उस इतिहास को आंख बंद करके अपनाएं जो आज आपको सूट करता है. वह इतिहास आप इस्तेमाल करना चाहते हैं.

यह ध्यान रखना चाहिए कि धार्मिक राष्ट्रवाद के नाम पर, धर्म के नाम पर राष्ट्र नहीं बन सकते. संघ का राष्ट्रवाद भी धर्म पर आधारित है जिसमें पुण्यभूमि और पितृभूमि का मुद्दा उठाया जाता है. पाकिस्तान धर्म के नाम पर बना था. उनका राष्ट्रवाद भी धर्म के नाम पर था. लेकिन 1971 में क्या हुआ? जो मुस्लिम राष्ट्रवाद था, जिसके नाम पर द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत पर पाकिस्तान बना, उसको भाषा और संस्कृति ने तोड़ दिया. धर्म तो दोनों का एक था, जिसके आधार पर वे अलग हुए थे. लेकिन वह नहीं चल पाया.

इसका मतलब है कि बहुत सारे मुद्दे ऐसे होते हैं जो धर्म से परे होते हैं. सिर्फ धर्म के नाम पर आप एक राष्ट्र का निर्माण नहीं कर सकते. अगर एक धर्म पर राष्ट्र का निर्माण होता तो दुनिया में 50 से ज्यादा मुस्लिम देश नहीं होते. एक इस्लामिक देश हो जाए फिर इतने देशों की क्या जरूरत है?

चाहे वो परशियन देश हों, या दूसरे मुल्क, आज कितनी लड़ाइयां चल रही हैं. मुसलमान वे सभी हैं. सीरिया और तुर्की में भी मुसलमान ही तो लड़ रहे हैं. जो दूसरे अल्पसंख्यक हैं ईसाई या यजीदी वगैरह, वे तो बेचारे पिट रहे हैं. मुख्यत: जो लड़ रहे हैं वे सारे मुसलमान ही हैं. वे एक-दूसरे को मार रहे हैं. इसलिए राष्ट्रवाद धर्म के आधार पर नहीं चलने वाला. दुनिया में कहीं नहीं चल पाया है.

यह भी इन लोगों को ध्यान में रखना चाहिए कि भारत का निर्माण सिर्फ धर्म के नाम पर या एक बहुसंख्यक संस्कृति के नाम पर नहीं हो सकता. एक बहुसंख्यक संस्कृति या विचार आप सब पर थोप दें, ऐसा नहीं हो सकता क्योंकि तब सबकल्चर, सबनेशनलिज्म सिर उठाते हैं.

हमारे मुल्क में सिर्फ कुछ लोग हैं ऐसी सोच वाले जो अपनी राजनीति के लिए अनाप शनाप बातें बोलते हैं. जानते वे भी हैं कि वे गलत बोल रहे हैं. ये चीजें सिर्फ राजनीति के लिए की जाती हैं. मुझे नहीं लगता कि इसमें कोई गंभीरता है और जो बोल रहा है वह भी इसको गंभीरता से नहीं लेता है.

इतिहास से सबक लेना है तो आप इतिहास से वर्तमान सुधारने के लिए और भविष्य बनाने के लिए सबक लीजिए. अगर आप इतिहास में रहना चाहते हैं तो यह अलग बात है. इतिहास से सबक लेना और इतिहास में रहना दो अलग बातें हैं. आजकल लोग कोशिश कर रहे हैं कि इतिहास में ही रहें. और उसी में सब कुछ देखने की कोशिश करते हैं. इतिहास का कोई फायदा नहीं है अगर आप इतिहास में रहने की कोशिश करते हैं. इतिहास से बाहर निकलकर उससे सबक सीखकर आगे बढ़ने की कोशिश करनी चाहिए. लेकिन दुख की बात है कि ऐसा हम नहीं करते.

कुछ लोगों को लगता है इतिहास एक राजनीतिक हथियार है, जिसका इस्तेमाल आज की राजनीति के लिए हो सकता है. उसकी मिसालें तो रोज देखने को मिलती हैं. आजकल तो सनक है जिसके तहत भविष्य की अपेक्षा इतिहास से ज्यादा लगाव है. हमारे राजनीतिक दल और कई विचारक इतिहास की ही बात करते हैं.

कई लोग तरह-तरह के अटपटे सवाल उठाते हैं तो मैं कहता हूं कि आप उस घटना को उस संदर्भ में देखें कि यह मसला इतिहास में किस संदर्भ में था. इसे आज के संदर्भ में आरोपित नहीं किया जा सकता. आपको यह सोचना चाहिए कि इतिहास में जो हुआ वह किस संदर्भ में था. लेकिन लोग यह कोशिश ही नहीं करते कि इतिहास को इतिहास में ही देखें.

400 साल पुरानी चीज को 400 साल पुराने संदर्भ में ही देखिए. वह अलग समाज था, वह अलग सोच थी. आज कोई बात बहुत सेक्युलर दिखती है, लेकिन उस जमाने में सेक्युलर शब्द के बारे में लोग जानते नहीं थे. आज जो बात कम्युनल दिखती है वह चार सौ साल पहले स्वीकृत थी. उसे आज के संदर्भ में देखना तर्कसंगत नहीं है.

नई सरकार आने के बाद इतिहास और शिक्षा को लेकर जिस तरह का अभियान चलाया जा रहा है, उसका आने वाली पीढ़ियों पर बहुत बुरा असर पड़ेगा. यह सबसे ज्यादा खतरनाक चीज है. आपको कम से कम अपने पड़ोसी से सबक लेना चाहिए. जिसको आप बुरा कह रहे हैं, उसी तरह का काम खुद नहीं करना चाहिए.

पाकिस्तान को देखिए, वे किस तरह का इतिहास पढ़ा रहे हैं. उदाहरण के लिए, उन्होंने इतिहास के साथ क्या किया? उनका इतिहास शुरू होता है मोहम्मद बिन कासिम से, जबकि हड़प्पा और मोहनजोदड़ो उन्हीं के यहां है, लेकिन उनके इतिहास में उस पर बात नहीं होती. वह उनकी संस्कृति और इतिहास का हिस्सा नहीं है. पूरे इतिहास में जितने चरित्र हैं उनको निकालकर इतिहास का इस्लामीकरण कर दिया, उसे अपने हिसाब से पवित्र कर दिया. अब उनके इतिहास में सारे चरित्र मुसलमान हैं, सारे मुद्दे इस्लामी मुद्दे हैं. इस तरह का समाज उन्होंने अपने यहां अपनी किताबों में पैदा किया. वही अपने बच्चों के सामने पेश किया.

पिछले 30-40 सालों में बड़ी हुई जो नई पीढ़ी है वह इन किताबों को ही पढ़कर आगे बढ़ी है. उन किताबों में यही सब है कि हिंदू कितना खतरनाक होता है. इस्लाम के कौन-कौन दुश्मन हैं आदि-आदि. जब बच्चों को इस तरह का इतिहास पढ़ाया जाएगा तो किस तरह की पीढ़ी तैयार होगी? किस तरह का समाज तैयार होगा? उसकी वही सोच बनेगी जिस तरह का इतिहास वह पढ़ेगी.

हमारे यहां आज जो हो रहा है वह वही कोशिश है कि हम एक ऐसी पीढ़ी तैयार करें जो बिल्कुल ही नफरत पर आधारित हो. पहले आप इतिहास में एक दुश्मन पैदा करें फिर उससे लड़ें कि इतिहास में इन्होंने हमारे साथ क्या-क्या किया. इसके लिए मुसलमान और ईसाई दोनों को दुश्मन बनाया जा सकता है. इस तरह के इतिहास का आने वाले समय में कितना बुरा असर होगा, यह हम पाकिस्तान को देखकर समझ सकते हैं. अगर हम नहीं समझते तो यह हमारा दुर्भाग्य है. लेकिन हमारे यहां जो हो रहा है, यह पूरी तरह उन्हीं का ढर्रा है.

हालांकि, हमारी समझ यह है कि इस अभियान का असर व्यापक हिंदुस्तान पर नहीं होगा. लेकिन जितने पर होगा, वहां पर खतरा बना रहेगा. गुजरात में पिछले 25-30 सालों का उदाहरण लीजिए. नरेंद्र मोदी के आने के पहले यानी कांग्रेस के समय से ही आरएसएस ने वहां हिंदुत्व की प्रयोगशाला तैयार की. आदिवासी इलाकों में उनकी जड़ें खूब मजबूत हैं. अपने स्कूलों में पढ़ाकर उन्होंने एक नई पीढ़ी पैदा की जो उस सोच को आगे बढ़ा रही है जिसका परिणाम हमने 2002 में देखा. वह सोच वहां अब तक है.

कहा जाता है कि गुजरात में दोबारा दंगे नहीं हुए. हमेशा खून-खराबा हो, यह जरूरी नहीं होता. एक तरह के वैचारिक दंगे भी होते हैं. उस समाज में एक सोच पैदा हुई और इसने लोगों के दिमाग में स्थायी रूप से घर कर लिया. इसके तहत समाज के बारे में एक धारणा बनी हुई है जिस पर आप सवाल ही नहीं उठा सकते. कुछ स्टीरियोटाइप हैं जो लोगों के दिमाग में बैठा दिए गए और उसी पर एक समाज चल रहा है.

एक खास तरह का इतिहास और समाजशास्त्र पढ़कर जो लोग सामने आए उनको राजनीतिक रूप में इस्तेमाल करना बहुत आसान है. लोग जिसे गुजरात प्रयोग कहते हैं वह राष्ट्रीय स्तर पर करने का प्रयास आप देख सकते हैं जिसे दीनानाथ बत्रा या अन्य लोगों के जरिए आगे बढ़ाने की कोशिश हो रही है.

(लेखक इतिहासकार हैं. यह लेख अमित सिंह और कृष्णकांत से बातचीत पर आधारित है.)