झूठ का पहाड़ जब ढहने लगे, क्रूरता के क़िले की दीवार में सेंध लग जाए, रंगे सियार का उतरने लगे रंग, तो सबसे बड़ा सहारा है… बुलडोजर.
…संविधान की पुस्तक में
छिपा एक दीमक है
सत्ता की आत्मा में पैठा
एक डर है
शक्तिहीनता का संबल
पौरुषहीनता की दवाई है
बुलडोजर
झूठ का पहाड़
जब ढहने लगे
क्रूरता के किले की दीवार
में सेंध लग जाए
रंगे सियार का
उतरने लगे रंग
तो सबसे बड़ा सहारा है
बुलडोजर…
‘बुलडोजर’ कविता– हूबनाथ
बीते दिनों युवा एक्टिविस्ट आफरीन फातिमा का प्रयागराज (पूर्ववर्ती इलाहाबाद) का घर जमींदोज कर दिया गया. उनकी छोटी बहन सुमैया के मुताबिक, बमुश्किल एक दिन पहले उनके घर पर नोटिस चिपका दिया गया और अगले ही दिन- जो रविवार था पुलिस के आला अफसरान की निगरानी में उसे गिरा दिया गया.
मकान जब गिराया जा रहा था तब आफरीन एवं सुमैया के पिता मोहम्मद जावेद- जो खुद वेलफेयर पार्टी से जुड़े एक सक्रिय कार्यकर्ता रहे हैं- सलाखों के पीछे थे- जिन्हें पुलिस ने इलाहाबाद में 10 जून को जुमे की नमाज़ के बाद हुए प्रदर्शनों एवं उसके बाद कथित हिंसा की घटनाओं का ‘मास्टरमाइंड’ घोषित किया है.
ध्वस्तीकरण के दौरान सुमैया एवं उनकी मां पुलिस हिरासत में थी. दस्तावेज बताते हैं कि यह मकान जो सुमैया की मां परवीन फातिमा की मिल्कियत में था, उसे उन्हें उनके पिता ने सौगात के तौर पर दिया था. इतना ही नहीं, मीडिया रिपोर्ट्स में बताया गया कि इस मकान के हाउस टैक्स आदि के बिल भी परवीन फातिमा के नाम से ही थे.
तय बात है जिस तरह यह सिलसिला चला उससे जनता के एक हिस्से में जबरदस्त आक्रोश है कि क्या भारत में कानून का राज समाप्त हो गया है, देश के अलग-अलग भागों में मकानों को ध्वस्त करने को लेकर प्रदर्शन हुए हैं. वहीं यह भी सही है कि मीडिया के एक हिस्से में तथा दक्षिणपंथी विचारों के हिमायतियों में एक किस्म के जश्न का माहौल है. गोदी मीडिया का एक हिस्सा इस घटना को योगी सरकार के सख्त रवैये को प्रतिबिंबित करता बता रहा है.
इस मामले में सबसे अहम प्रतिक्रिया इलाहाबाद उच्च अदालत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश गोविंद माथुर की तरफ से दी गई है, जिन्होंने इस मामले में कार्यपालिका के व्यवहार की प्रगट भर्त्सना की है. अपने बयान में उन्होंने न केवल इस कार्रवाई को ‘पूरी तरह गैरकानूनी कहा’ बल्कि एक तरह से ‘कानून के राज’ को चुनौती के तौर पर भी घोषित किया है.
ध्यान रहे कि पूर्व मुख्य न्यायाधीश गोविंद माथुर का नाम निश्चित तौर पर किसी परिचय का मोहताज नहीं है.
पिछले अप्रैल माह में अपने पद से निवृत्त हुए जनाब माथुर ने अपने सीमित कार्यकाल में राज्य सरकार को निरंतर संवैधानिक मूल्यों एवं सिद्धांतों की याद दिलाई थी और ऐसे कई मसले थे जब उन्होंने सरकार को अपने कदम पीछे लेने के लिए मजबूर किया था, जो फैसले ऐसे मूल्यों एवं सिद्धांतो का उल्लंघन करते दिखते थे.
याद कर सकते हैं कि उन्हीं की अदालत ने डॉ. कफील खान की गिरफ्तारी को ‘मनमाना’ और ‘गैर कानूनी’ घोषित किया था और उन्हें रिहा किया था, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में डॉ. कफील खान के जिस व्याख्यान को राज्य सरकार ने आपत्तिजनक घोषित किया था, उसी व्याख्यान को उन्होंने राष्ट्र की एकता बढ़ाने वाला बताया था; सीएए विरोधी आंदोलन में शामिल लोगों के पोस्टर्स शहरों में चिपकाने और एक तरह से उन्हें बदनाम करने तथा उनके जीवन को असुरक्षित करने सरकारी प्रयासों को उन्होंने लोगों की ‘निजता में अवांछित हस्तक्षेप’ घोषित किया था और मानवाधिकार के पक्ष के अपने रुख को बार-बार साफ किया था.
सवाल उठता है कि क्या मौजूदा न्यायपालिका इलाहाबाद के जाने-माने वकीलों द्वारा इस मामले में दायर याचिका पर तुरंत गौर करेगी, जिन्होंने इस रिहायशी मकान को गिराने तथा इस दौरान हुई कथित कानूनी ज्यादतियों की तरफ इशारा किया है ?
वैसे विचलित करने वाले इस समूचे घटनाक्रम- जिसके तहत महज किसी विरोध प्रदर्शन में शामिल होने के कारण, रातों रात ‘गैरकानूनी’ घोषित कर किसी का मकान गिरा दिया जाए और तमाम अदालती कार्रवाई को भी खुल्लम खुल्ला नकारा जाए- का एक अहम पहलू यह है कि आफरीन या सुमैया जैसे युवा- जो अचानक अपने आप को खुले आसमान के नीचे पा रहे हैं- आज अपवाद नहीं हैं.
सहारनपुर, कानपुर तथा उत्तर प्रदेश के अन्य स्थानों पर भी प्रदर्शनकारियों के मकानों को ‘गैर कानूनी निर्माण बताकर’ ध्वस्त करने की खबरें आई हैं.
कोई भी सभ्य व्यक्ति किसी भी किस्म की हिंसा को जायज नहीं ठहरा सकता- फिर वह चाहे राज्य की तरफ से हो या गैर राज्यकारकों की तरफ से हो- लेकिन यह कहां का इंसाफ है कि अगर किसी वजह से सार्वजनिक कार्यक्रम में हिंसा हो गई तो इस मामले में क्या किया जाना चाहिए इसका फैसला अदालत पर छोड़ने के बजाय पुलिस ही लेने लगे ?
ऐसा कैसे सही हो सकता है कि अदालती कार्रवाई को पूरी तरह से नकारते हुए पुलिस न केवल कौन दोषी है यह तय करे और इस दोषी के साथ क्या सलूक किया जाना है, इसका फैसला ले और उस पर अमल भी करे?
मध्ययुगीन समय में जब राजशाही थी और जब राजा अपने आदेश पर अपने दुश्मनों के घरों को गिरा देता था और इन ध्वस्त मकानों पर हल चलवा देता था, तब भले ही ऐसी कार्रवाइयां समयानुकूल मानी जाती हों, लेकिन 21 वीं सदी में जब यहां लोकतंत्र कायम हुआ है, राज्य के तीनों अंगों- विधायिका, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका का विभाजन स्पष्ट है- वहां अलसुबह ऐसे कैसे हो सकता है कि कार्यपालिका ही सब कुछ तय करने लगे.
दरअसल, इस मामले में कानून और सुव्यवस्था की रखवाली कही जाने वाली एजेंसियों द्वारा जो एक जैसी बात दोहराई जाती है, वह विश्वसनीय नहीं लगती. इतना ही नहीं सत्ताधारी पार्टी के जिम्मेदार लोगों एवं पुलिस तथा प्रशासन के मुंह से अलग-अलग किस्म की बातें बताई जाती हैं.
जहां सत्ताधारी पार्टी के लोग यह दावा करने में संकोच नहीं करते कि ‘दंगाइयों के मकानों को गिरा दिया जाएगा’ वहीं पुलिस प्रशासन इन मकानों को गिराने के मामले में ‘अवैध निर्माण’ की दलीलें देती हैं और यह कहती नज़र आती है कि गैर कानूनी निर्माणों के खिलाफ उनकी इस कार्रवाई का अभियुक्त की हिंसा में कथित संलिप्तता से कोई ताल्लुक नहीं है.
स्पष्ट है कि उत्तर प्रदेश भले ही बुलडोजर के प्रयोग के लिए इस दशक में प्रयोगशाला नज़र आ रहा हो, लेकिन यह अलग किस्म का बुलडोजर राज आज की तारीख में विभिन्न भाजपाशासित राज्यों में धड़ल्ले से कार्यान्वित होता दिख रहा है. ऊपर से निरूपद्रवी दिखने वाला बुलडोजर जिसका इस्तेमाल मैदानों को समतल कराने आदि में किया जाता रहा है, अचानक सत्ता के प्रतीक के तौर पर नमूदार होता दिख रहा है.
उत्तर प्रदेश से शुरू हुआ यह सिलसिला मध्य प्रदेश, गुजरात, दिल्ली और असम होता हुआ इन दिनों कर्नाटक में सुर्खियों में है, जहां वहां के कोई मंत्री अपने विरोधियों को यह धमकाते दिख रहे हैं कि उनके सूबे में भी अब बुलडोजर चलेंगे.
अगर हम महज सरसरी निगाह डालें तो पता चलेगा कि लोगों के मकानों को आनन-फानन में बुलडोजर से गिरा देने के मामलों में जबरदस्त विविधता है. फिर वह कहीं अंतरधर्मीय विवाह का मामला हो सकता है तो कहीं पुलिस हिरासत में हुई कथित मौत के बाद लोगों के स्वतःस्फूर्त विरोध प्रदर्शन को कुचलने के लिए उनकी बस्ती को कथित तौर पर तबाह करने के रूप में सामने आ सकता है तो किसी अपराधी को गिरफ्तार करने का हो सकता है, तो कहीं दंगाइयों को सबक सिखाने का.
इस तुरत न्याय का सम्मोहन जबरदस्त है, न सवाल पूछने की जरूरत, न अदालती कार्रवाई का इंतज़ार और न ही कानूनी औपचारिकताओं में अपने आप को उलझाए रखने की मजबूरी.
मकानों के सामने बुलडोजर खड़े कर दो, ऐलान कर दो कि यह गैर कानूनी है और ध्वस्त कर दो.
रामनवमी के दौरान खरगोन, मध्य प्रदेश का प्रसंग कौन भूल सकता है जब रामनवमी जुलूस के उग्र एवं भड़काऊ नारों के बाद- जिसमें जुलूस में चलने वाले तमाम लोग शायद हथियारों से लैस भी थे- और जब आत्मरक्षा के रूप में अल्पसंख्यक बहुल इलाकों में प्रतिक्रिया हुई, हिंसा भड़क उठी, तो सारा बीत जाने के कुछ घंटों बाद वहां अल्पसंख्यक बहुल इलाकों में बुलडोजर पहुंच गए और उन्होंने 48 मकानों, दुकानों को गिरा दिया.
इन मकानों में उस महिला का मकान भी शामिल था जो प्रधानमंत्री आवास विकास योजना के तहत बनाया गया था.
उन्हीं दिनों मध्य प्रदेश के डिंडोरी में आसिफ खान के तीनों दुकान गिरा दिए गए जबकि वह अपनी प्रेमिका साक्षी साहू से विवाह करके कहीं गया था. अपनी बहन के कथित अपहरण की रिपोर्ट जब उसके भाई ने साझा की, जबकि खुद साक्षी साहू ने वीडियो जारी करके बताया था कि उसने अपनी मर्जी से आसिफ से विवाह किया है और दोनों वयस्क हैं.
अपनी इस अपील में साक्षी ने मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान से हाथ जोड़कर अपील की थी कि आसिफ के परिवार को कोई हानि न पहुंचे.
उधर, प्रशासन की ज्यादती का आलम था कि प्रेम विवाह करने के ‘अपराध’ में- आसिफ को सबक सिखाने के लिए- आसिफ के पिता का मकान, जो डिंडोरी से कुछ किलोमीटर दूर था तथा राजीव गांधी योजना के तहत प्रदत्त जमीन पर बनाया गया था, उसे भी गिरा दिया गया.
आसिफ एवं साक्षी साहू जैसे अंतधर्मीय वैवाहिक युगल की प्रताड़ना तभी खतम हुई जब मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय की जबलपुर पीठ ने इस जोड़े को संरक्षण प्रदान किया.
मकानों, प्रतिष्ठानों को आनन फानन में गिरा देने की इस मुहिम का क्या कोई कानूनी आधार भी है?
गौरतलब है कि ऐसी तुरत कार्रवाइयों के हिमायती अक्सर वर्ष 2009 के सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले का हवाला देते हैं, जिसमें उसने किसी सार्वजनिक कार्यक्रम में हुई हिंसा के लिए आयोजकों को दोषी ठहराया था और उन्हीं से नुकसान भरपाई लेने की बात कही थी, लेकिन इस फैसले को उद्धृत करने वाले अक्सर भूल जाते हैं कि अदालत ने यह स्पष्ट किया था कि अदालती कार्रवाई में इस बात को प्रमाणित करने के बाद ही ऐसी कोई कार्रवाई हो सकती है.
हम इस मामले में संवैधानिक अधिकारों तथा सर्वोच्च न्यायालय के तमाम फैसलों को भी उद्धृत कर सकते हैं, जिसमें बार-बार ‘उचित प्रक्रिया’ पर जोर दिया गया है. मिसाल के तौर पर, संविधान की धारा 300 ए के मुताबिक,‘किसी भी व्यक्ति को बिना कानूनी इजाजत के अपनी संपत्ति से वंचित नहीं किया जाएगा.’ इसके बाद आने वाले आला अदालत के विभिन्न फैसले इसी बात की ताईद करते है.
अगर हम अस्सी के दशक के मध्य में सामने आए (1985) ओलगा टेलिस और अन्य बनाम मुंबई म्युनिसिपल कॉरपोरेशन के केस को याद करें तो उसमें कानूनी जरूरत के तौर पर न केवल पूर्व सूचना देने पर जोर दिया था बल्कि प्रभावित परिवारों के पक्ष को सुनने को भी कानूनी जरूरत बताया था. अपने फैसले में अदालत ने यह भी कहा था कि ‘वे अतिक्रमणकारी जिन्होंने जमीनों पर कब्जा किया है या कहीं घर बनाया है, उन्हें वहां से निकालने के पहले उन्हें भी सुना जाना चाहिए.’
इसी किस्म की बात मेनका गांधी बनाम भारत की संघीय सरकार (1978) मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा दिए फैसले में सुनी जा सकती है, जिसमें जीवन के अधिकार की गारंटी करने वाली धारा 21 की व्याख्या करते हुए अदालत ने ‘कानूनी की वाजिब प्रक्रिया’ पर जोर दिया गया था.
प्राकृतिक न्याय का एक अहम सिद्धांत है कि किसी को भी तब दोषी न ठहराया जाए जब तक उसे सुना नहीं जाए, जिसका अर्थ यही है कि हर पक्ष को न केवल ठीक से सुना जाए बल्कि उसके खिलाफ प्रस्तुत सबूतों के बारे में भी कहने का मौका दिया जाए.
अब जहां तक प्रदर्शनों के बाद उनमें शामिल लोगों के मकानों एव दुकानों को ‘अवैध घोषित कर’ ध्वस्त करने का सवाल है, तो जाहिर है कि ऐसे किसी कदम को नहीं उठाया जाता.
निश्चित ही आधुनिक न्यायप्रणाली का तकाज़ा है कि कार्यपालिका, न्यायपालिका एवं विधायिका के कार्यक्षेत्र में बंटवारा हो, ऐसा नहीं हो सकता कि कार्यपालिका खुद जज, जूरी और अमलकर्ता की सभी भूमिकाओं को अपना ले.
मकानों को ध्वस्त करने को लेकर सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीश मदन लोकुर की टिप्पणी काबिलेगौर है, जिसमें वह पूछते हैं कि ‘किस कानून के तहत वह मकान को ध्वस्त कर सकते हैं, जबकि अपराध प्रमाणित भी नहीं हुआ हो?’
गौरतलब है कि विगत कुछ माह से भाजपाशासित राज्यों में बुलडोजरों के बढ़ते प्रयोग एवं मकानों एवं दुकानों की घटनाओं को लेकर सर्वाेच्च न्यायालय में तमाम याचिकाएं भी डाली गई हैं.
सीपीएम नेत्री वृंदा करात द्वारा डाली याचिका इस बात को रेखांकित करती है कि बुलडोजरों के जरिये चलने वाली यह मुहिमें ‘एक तरह से अतिक्रमण हटाने के नाम पर खास अल्पसंख्यक समुदायों को निशाना बनाने की कवायद है.’
जमीयत उलेमा हिंद की याचिका मकानों को ध्वस्त करने की इन घटनाओं को दंडात्मक कदम के तौर पर इस्तेमाल करने को लेकर प्रश्नांकित करती है और इसके नतीजतन विभिन्न राज्यों, जहां ऐसी घटनाएं हुई हैं, को सुप्रीम कोर्ट की तरफ से नोटिस भी भेजे गए हैं कि वह स्थिति को स्पष्ट करें.
उम्मीद की जानी चाहिए कि न्यायपालिका ऐसे मामलों में सार्थक हस्तक्षेप करेगी और इस मामले में अपना फैसला जल्द सुनाएगी.
एक ऐसा समां जहां कार्यपालिका एक तरह से न्यायपालिका के दायरे में खुल्लमखुल्ला हस्तक्षेप कर रही है और विधायिका को इस बात की कोई फिक्र नहीं कि संविधान के तहत प्रदत्त जीवन के अधिकार का भी परोक्ष-अपरोक्ष रूप से उल्लंघन किया जा रहा है, किसी भी लोकतंत्र में वांछनीय नहीं है.
इस साल की शुरूआत में ही सर्वोच्च न्यायालय की डांट के कारण ही यूपी सरकार अपने उन पुराने रिकवरी नोटिस वापस लेने के लिए बाध्य हुई थी, जिन नोटिसों को उसने सीएए आंदोलन के दौरान हुई कथित हिंसा एवं सार्वजनिक संपत्ति के नुकसान की भरपाई के नाम पर जारी किया था और कइयों से जुर्माने की राशि भी वसूली थी. उसे न केवल नोटिस को वापस लेना पड़ा था बल्कि इकट्ठा किए पैसे भी लौटाने पड़े थे.
जैसे कि स्थितियां मौजूद हैं, जिस तरह मीडिया का एक हिस्सा ऐसी घटनाओं को सेलिब्रेट कर रहा है, यहां तक कि सरकार के तमाम दावों को भी अपने श्रोताओं तक पहुंचा रहा है, हम अंदाजा ही लगा सकता है कि सामाजिक तौर पर हाशिये पर पड़े लोग- खासकर धार्मिक अल्पसंख्यकों के बीच किस किस्म की पस्ती एवं डर का वातावरण व्याप्त होगा?
पैगंबर मोहम्मद पर विवादास्पद टिप्पणी करने वाली सत्ताधारी पार्टी की प्रवक्ता पर भले ही कोई सख्त कार्रवाई नहीं हुई हो, लेकिन ऐसी कार्रवाई की मांग करने वाले लोगों पर मुकदमे कायम हो रहे हैं और कोई बहाना बनाकर उनके मकानों को भी ‘अवैध’ घोषित किया जा रहा है, तोड़ा जा रहा है.
क्या जनतंत्र ऐसे वातावरण में सुकून से फल-फूल सकता है जहां जनता के एक अहम हिस्से को न केवल राजनीतिक तौर पर बल्कि सामाजिक तौर पर भी निष्प्रभावी करने की या हाशिये पर डालने की कोशिशें परवान चढ़ रही हों.
निस्सन्देह न्यायपालिका जब बुलडोजर के इस बढ़ते सम्मोहन को संबोधित करेगी तब वह न केवल ‘वाजिब प्रक्रिया’ का ध्यान देगी बल्कि इन ध्वस्तीकरणों’ के एक अन्य महत्वपूर्ण पहलू को भी संबोधित करगी कि किस तरह मकानों, दुकानों को इस तरह गिरा देना एक तरह से सामूहिक सज़ा की मध्ययुगीन प्रथा का पुनर्जीवित करता दिखता है, जहां न केवल वह व्यक्ति जो ‘कानून के तहत वांछित’ है उसे दंडित किया जा रहा है बल्कि उसके आत्मीय तथा समुदाय, परिवार के सदस्य भी चपेट में आ रहे हैं.
क्या हमें आधुनिक कानूनी प्रणाली की इस बुनियादी सच्चाई को भूलना चाहिए कि यह प्रणाली व्यक्तिगत दायित्व/जिम्मेदारी ( individual liability) के सिद्धांत पर टिकी होती है, न कि सामूहिक जिम्मेदारी के! ऐसा कोई भी कदम बुनियादी अंतरराष्ट्रीय कानूनों का उल्लंघन करता है तथा जिनेवा कंवेंशन (1948) की अनदेखी करता है, जिस पर भारत सरकार ने 1950 में ही सहमति दर्ज की है.
भारत इस साल आज़ादी का 75 वां महोत्सव मना रहा है, जिसे ‘आज़ादी का अमृत महोत्सव’ कहा जा रहा है. यह अलग बात है कि जिस साल हम ब्रिटिश गुलामी से अपनी आज़ादी का जश्न मना रहे हैं, औपनिवेशिक काल में चर्चित सामूहिक सज़ा की घृणित पद्धति को नई वैधता प्रदान कर रहे हैं.
याद कर सकते हैं कि ब्रिटिश काल में ही विद्रोही इलाकों या बाग़ी समुदायों में सामूहिक सज़ा की प्रथा का चलन था, जहां ब्रिटिश सरकार पूरे इलाकों को दंडित करती थी या बाग़ी परिवारों के मकानों को तबाह कर देती थी. कहा जाता था कि फलां परिवार पर गधे से हल चलवा दिया गया.
बर्तानवी शासकों के लिए अपने लक्ष्य तय करने में कोई चुनाव नहीं था, जो भी उनके विरोध में खड़ा हो, उन्हें निशाना बना देते थे- फिर चाहे हिंदू हो या मुसलमान या आदिवासी समूह से संबंद्ध कोई. मौजूदा शासक इस मामले में अधिक सलेक्टिव दिखते हैं जिसमें उनका फोकस सामाजिक तौर पर हाशिये पर पड़े लोगों – खासकर धार्मिक अल्पसंख्यकों पर– अधिक रहता है.
सवाल यह उठता है कि आखिर इस मुल्क के अमनपसंद लोग या न्यायप्रिय लोग इस समूचे मामले में खामोश क्यों हैं या समाज के प्रबुद्ध लोगाों ने मूकदर्शक बने रहना क्यों कबूल किया है, जब उनकी आंखों के सामने विश्व के सबसे बड़े जनतंत्र का तेजी से बढ़ता क्षरण उजागर हो रहा है?
(सुभाष गाताडे वामपंथी एक्टिविस्ट, लेखक और अनुवादक हैं.)