पुस्तक समीक्षा: लेखक रहमान अब्बास के साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित उर्दू उपन्यास ‘रोहज़िन’ का अंग्रेज़ी तर्जुमा कुछ समय पहले ही प्रकाशित हुआ है. यह उपन्यास किसी भी दृष्टि से टाइप्ड नहीं है. यह लेखक के अनुभव और कल्पना का सुंदर मिश्रण है, जिसे पढ़ते हुए पाठक एक साथ यथार्थ और अतियथार्थ के दो ध्रुवों में झूलता रहता है.
उर्दू साहित्य को आधुनिक मुहावरे और वैश्विक बदलावों से जोड़ने की 20वीं शताब्दी की पहल का पूर्ण परिपाक अगर हमें देखना हो तो, रोहज़िन से बेहतर उदाहरण समकालीन उर्दू साहित्य में खोजना मुश्किल है. यह उपन्यास सिर्फ अपनी कथावस्तु में आधुनिक नहीं बल्कि उस कथा को कहने की शैली में भी आधुनिक है.
लेखक रहमान अब्बास ने रोहज़िन से पहले तीन और उपन्यास (नखलिस्तान की तलाश (2004) एक ममनुआ मोहब्बत की कहानी (2009), ख़ुदा के साये में आंख-मिचोली (2011) लिखे हुए हैं, इसलिए रोहज़िन को पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि वह सब रचनाकार के लेखन को उत्कृष्ट बनाने और उसकी कला को धारदार करने की प्रक्रिया मात्र थी. पूर्वपीठिका.
उपन्यास का देश-काल समसामयिक है. महानगरी मुंबई में मुख्य कथा विकसित होती है और शहर के लैंडस्केप को अधिकांश कोणों से पकड़ती है. पात्र भी लेखक की विचारधारा को प्रचारित करने के लिए उसकी कल्पनाशक्ति से निकले नहीं लगते.
असरार, हिना, मोहम्मद अली, यूसुफ़, जमीला वास्तविक पात्र हैं, जिनमें जीवन अपनी रवानगी के साथ बहता है. ये किसी भी दृष्टि से टाइप्ड नहीं हैं. कोई भी पात्र लेखक के विचारों का वाहक नहीं है, इस अर्थ में उपन्यास ही किसी विचारधारा विशेष से संचालित नहीं दिखता, बल्कि यह लेखक के अनुभव और कल्पना के सुंदर मिश्रण से तैयार हुआ है, जिसे पढ़ता हुआ पाठक एक साथ यथार्थ और अतियथार्थ के दो ध्रुवों में झूलता रहता है.
रोहज़िन का केंद्र जिस ऊर्जा से संचालित है, वह वस्तुतः प्रेम ही है. पर सिर्फ इस एक चीज के कारण उपन्यास को रोमांटिक फिक्शन के खांके में नहीं डाल सकते. रोहज़िन जिसका अनुवाद अब्बास’ आत्मा की व्यथा’ करते हैं, की कहानी वस्तुतः इंसानी रूहों की आंतरिक व्यथा और युगों-युगों से अनुभूत की जाने वाली उदासी की है.
यह रूहानी पीड़ा जैसा कि अब्बास दिखलाते हैं- आदम और हव्वा के जन्नत से बाहर निकाल दिए जाने के क्षण भी उतनी ही विद्यमान थी, जितना हिना और असरार अपने आत्माओं में महसूसते हैं. इसलिए इस आदिम पीड़ा की उपस्थिति रोहज़िन को अर्थ के गहरे स्तरों पर उतार कर एक दार्शनिक रचना बना देती है.
कहानी है कोंकण तट के छोटे से मछुवारे गांव माबादमोरफो में रह रहे असरार की, जिसका जीवन अभावों का जीवन था. पिता मलिक देशमुख अपने दोस्तों के साथ मछली पकड़ने गए तो फिर वापस नहीं लौटे. समंदरी लहरों में नाव डूबी और साथ ही असरार के बचपन की, पिता के साथ सागर तट पर बिताई गईं मधुर स्मृतियां भी डूब गईं. पर समंदर की लहरों से असरार का संबंध नहीं टूटा. एक मौन संवाद बराबर चलता रहा.
कहानी असरार के दसवीं पास कर मुंबई पहुंचने और उसके रोज़गार ढूंढने से आगे बढ़ती है, और इसके साथ-साथ कई अन्य थीम को छूती चलती है. एक तरफ मुंबई में बढ़ते क्षेत्रवाद को लेखक ने भाषा के संकेतों से दिखलाया है, तो वहीं असरार की मुंबई पहुंचने की पूरी यात्रा माइग्रेशन (प्रवसन) के स्याह पक्ष को सामने रखती है.
सपनों की मायानगरी मुंबई सिर्फ गगनचुंबी इमारतों और सागर को चूमते अहातों की दुनिया नहीं, बल्कि शहर की निचली बस्तियों, झुग्गियों, गटरों में रहने वाले जीवों की भी दुनिया है और जैसा कि असरार को लगता है, पूरी मुंबई गटरों के ऊपर बनी हुई है और जो इस महानगर में रहने योग्य नहीं हैं- चाहे वह इंसान हो या चूहे या कीड़े-मकौड़े- वे सब इन गंदी बजबजाती नालियों में रहने को अभिशप्त हैं.
असरार, उपन्यास का केंद्रीय पात्र है, जिसकी अपने आस-पास के जीवन पर ऐसी गहरी नज़र रखने की शक्ति है कि वह मुंबई की स्वप्नमयी चकाचौंध में डूबने पर भी उन तमाम ज़िंदगियों की महरूमियों और उनके प्रति शहर के निर्मोही रवैये को नहीं भूलता. वर्ग और धन के अंतर को वह बखूबी समझता है. असरार, संवेदनशील है और प्रेम के प्रति उसकी धारणा बहुत हद तक पारंपरिक रहकर भी अंततः परंपरा का प्रतिकार ही करती है.
रोहज़िन में प्रेम स्वयं एक पात्र की उपस्थिति रखता है. वह अपने विविध रूपों में कहानी को दिशा देता है, ज़िंदगियां बदलता है और मृत्यु से साक्षात्कार भी करवाता है. प्रेम और संतुष्टि के कई रूप हैं जो मानव को वस्तुतः मानव बनाते हैं. एक ओर असरार और गणित की शिक्षिका मिस जमीला, जो विवाहित हैं और असरार से कहीं बड़े बेटे की मां हैं, का प्रेम भी है, जो आत्मा तक पहुंचने के लिए शरीर को माध्यम बनाता है तो वहीं वेश्या शांति का भी विशुद्ध प्रेम है, जो असरार को बार-बार उसके पास ले जाता है.
हिना, जो उपन्यास का दूसरा केंद्रीय चरित्र है, असरार के जीवन में प्रेम की अलग सार्थकता लाता है जो, शरीर से आगे जाकर दो आत्माओं के मिलन का कारण बनता है. रोहज़िन में वर्णित प्रेम का ही एक स्वरूप वह भी है, जो यूसुफ़ (हिना के पिता) को अपनी शादी और संरक्षित जीवन का त्याग करने पर मजबूर कर देता है.
एक स्तर पर उपन्यास मानवीय अंतर्मन में सुप्त इच्छाओं की कथा है. शरीर, रोहज़िन में वह माध्यम भर है, जिससे इन इच्छाओं के वास्तविक अर्थ को समझा जाता है. हिना के पिता यूसुफ़ बाहर से आई एयमल के व्यक्तित्व और विचारधारा से इस प्रकार प्रभावित होता है कि एक सुबह पत्नी दरक्खशां और बच्चों को छोड़कर अलग रहने का फैसला कर लेता है.
उपन्यास में व्यक्तित्व एक दूसरे को प्रभावित करते हैं. उनकी ऊर्जा का आदान-प्रदान उनके कायांतरण में मदद करता है. चाहे हिना के लिए उसकी दोस्त विधि और वरदातुल सआदत हों, जो उसे शरीर की इच्छाओं को स्वीकार करना सिखलाते हैं, या यूसुफ़ के लिए एयमल हो, जो उसका व्यक्तित्वा बदल देती है, उसके पूर्वस्थापित विचारों को झकझोरती है, या असरार जिसे जमीला, शांति और हिना भिन्न-भिन्न दृष्टियों से बदलते हैं.
रोहज़िन में उपन्यासकार की दृष्टि व्यापक सामाजिक समस्याओं और अपने समय की प्रमुख चिंताओं पर भी गई है. वह धर्म के नाम पर विभाजित किए जा रहे समाज को वस्तुपरकता से दिखलाता है और उसका दृष्टिकोण विशेषकर प्रामाणिक हो जाता है, क्योंकि इस सामाजिक परिवर्तन को वह अल्पसंख्यक मुसलमानों की दृष्टि से दिखलाता है.
मुस्लिम समुदाय किस प्रकार अपने आस-पास की तेजी से बदलती हुई सामाजिक संवेदनशीलता को देखते हैं, ग्रहण करते हैं, उपन्यास उसे पकड़ सका है. मसलन यहां बाबरी मस्जिद के ढहाए जाने का जिक्र है तो वहीं मुंबई पर हुए आतंकी हमलों, बम धमाकों, अजमल कसाब को फांसी दिए जाने और उन सभी हादसों का भी जिक्र है, जिसने विशेषकर मुंबई के मनोविज्ञान, अल्पसंख्यकों की सामाजिक सुरक्षा को प्रभावित किया था.
इन सभी सामाजिक-राजनीतिक घटनाओं के उपन्यास में प्रसंग बन कर आने से दो चीजें स्पष्ट रूप से निकल कर आती हैं: 1) लेखक की शहर के इतिहास और वर्तमान पर पकड़ और 2) सामाजिक सोद्देश्यता. इन दोनों ही दृष्टियों से उपन्यास अपने समय का दस्तावेज़ बनने की पूरी क्षमता रखता है जो न केवल इस उपन्यास को एक विधा के रूप में प्रासंगिकता देता है बल्कि प्रचलित बहुसंख्यावादी राजनीतिक इतिहास लेखन में एक बहुत ज़रूरी सामाजिक-सांस्कृतिक हस्तक्षेप लगता है.
रोहज़िन में मुंबई के इस यथार्थपरक दुनिया के समानांतर उपन्यासकार ने एक जादुई, मिथकीय दुनिया भी निर्मित की है, जो कहीं भी आरोपित नहीं लगती बल्कि यथार्थ का पूरक लगती है. साहित्य में इस विधा को जादुई यथार्थवाद के नाम से जाना जाता रहा है, जो साहित्यिक गल्प की ही एक विशिष्ट शैली है.
उपन्यास में चित्रित यथार्थ कई स्तरों पर स्वयं को नियोजित करता है, इसलिए असरार, हिना, यूसुफ़, एयमल जितने वास्तविक हैं, मुंबा देवी (मुंबई शहर और उसके सात सागरों की इष्ट देवी) और उसके राक्षस, गुप्तचर, मस्जिदों और कब्रगाहों में बसने वाले जिन्नात भी उतने ही वास्तविक हैं.
जादुई यथार्थवाद का प्रयोग कर रहमान अपने समय की राजनीतिक समीक्षा कर पाने में भी समर्थ हो जाते हैं. कहानी में जब कब्रगाह में रहने वाले एक रूहानी जिन्न को कराची और सिंध में आयोजित होने वाले ‘दवरात-ए-आयत -ए-क़ुरान’ में सम्मिलित होने के लिए जाना होता है तो वहीं मुंबा देवी के दरबार का एक गुप्तचर मौतज़िला स्वयं को एक भगवे रंग के सांप में परिणत कर जिन्न के मंसूबों का पता लगा लेता है और एक कबूतर की शक्ल में उसके पीछे लग जाता है. इसलिए अब्बास मिथकीय कल्पना के माध्यम से समसामयिक परिस्थितियों की राजनीतिक-सांस्कृतिक व्याख्या करते हैं, जो पाठकों के लिए एक अंतर्पाठ (sub-text) की संभावना प्रस्तुत करता है.
रचना किन्हीं-किन्हीं हिस्सों में वर्णनात्मक हो जाती है. विशेषकर, शैतानी आस्था के इतिहास को समझाने वाले पहलुओं में. संभवतः उस हिस्से को संक्षिप्त करके, अन्य प्रसंगों को विस्तार दिया जा सकता था.
इसके अलावा भी रोहज़िन पाठकों के लिए कई प्रश्न अनुत्तरित छोड़ देती है- मुंबई की विनाशकारी प्राकृतिक आपदा के सामाजिक प्रभाव क्या थे? यूसुफ़ और जमीला मिस के संबंधित विवाहेतर संबंधों से इनके क़रीबी रिश्तों पर क्या मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़े? अपनी संतुष्टि और मुक्ति के लिए इनके द्वारा उठाए गए कदम कहां तक तर्कसंगत थे? यह सब संभवतः उपन्यासकार अपने पाठकों की व्याख्या के लिए खुला छोड़ देता है.
साहित्य अकादमी प्राप्त इस पुस्तक का अनुवाद जर्मन और हिंदी में हो चुका था और अंग्रेजी में अभी हाल ही में हुआ है. निश्चित ही अनुवाद कर्म की अपनी सीमाएं हैं जो रोहज़िन को पढ़ते हुए महसूस होती हैं. वास्तविक भाषा (उर्दू) के मुहावरों और तेवर को हू-ब-हू पकड़ पाना असंभव है, क्योंकि हर भाषा का अपना सामाजिक-ऐतिहासिक संदर्भ होता है. पर इन सबके बावजूद एक विस्तृत पाठक समुदाय तक रचना को, उसकी सामाजिकता को पहुंचाने का श्रेय अनुवाद और अनुवादक दोनों को अवश्य दिया जाना चाहिए.
उर्दू के प्रसिद्ध आलोचक और भाषाविद गोपीचंद नारंग ने रोहज़िन को उर्दू साहित्य के इतिहास में क्रांतिकारी मोड़ लाने वाला माना है. वस्तुतः यह उपन्यास उर्दू साहित्य और भाषा दोनों ही की असीम संभावनाओं के सुंदर उदाहरण के तौर पर पढ़ा जा सकता है जो एक साथ सब कुछ है- समसामयिक और ऐतिहासिक, वैज्ञानिक और मिथकीय, बोल्ड और प्लेटोनिक. वस्तुतः सब कुछ.
(अदिति भारद्वाज दिल्ली विश्वविद्यालय में शोधार्थी हैं.)