दुनिया ने रोहिंग्याओं के ख़िलाफ़ सहानुभूति में इतनी कंजूसी दिखाई है कि सहानुभूति की कोई भी अपील ईश्वर की आवाज़ की तरह सुनाई देती है.
म्यांमार में क्या हो रहा है, यह हम सबको मालूम है. वहां रोहिंग्या मुसलमानों पर जुल्म ढाए जा रहे हैं, उन्हें मौत के घाट उतारा जा रहा है, उन्हें जिंदा जलाया जा रहा है और लाखों की तादाद में उन्हें अपनी जमीन से खदेड़ा जा रहा है. धरती के इन अभागों पर हो रहे अत्याचारों के बारे में काफी कुछ लिखा और कहा गया है. लेकिन हाल ही एक ऐसा लेख मेरी नजरों के सामने से गुजरा, जो इतना अच्छा था कि इसके कुछ हिस्सों को यहां फिर से पेश करने के लोभ से मैं खुद को बचा नहीं पाया. शायद इसमें इस समस्या का हल हो- हल भले न हो, कम से कम रोहिंग्याओं के लिए थोड़ी सी उम्मीद की किरण तो इसमें जरूर खोजी जा सकती है.
नोट: लेख में इटैलिक्स (तिरछे) अक्षरों में लिखा गया हिस्सा मूल लेख का है और ‘सामान्य’ अक्षरों में लिखा गया हिस्सा मेरा है.
वहां एक घर था, जो मेरी दुनिया था. वहां दूसरों की भी दुनिया थी. आजाद वे भी नहीं थे, लेकिन जेल में एक कुनबे की तरह साथ-साथ थे. एक दुनिया और थी, जो आजाद लोगों की थी. ये सारे अलग-अलग ग्रह थे, जो किसी से कोई मतलब नहीं रखनेवाले ब्रह्मांड में अपनी अलग-अलग कक्षाओं में परिक्रमा कर रहे थे. ओह! लेखक ने कितनी खूबसूरती से रोहिंग्याओं की दुर्दशा को शब्दों में पिरोया है. दूसरी दुनिया वास्तव में कितनी अलग है. रखिने राज्य के पानी में डूबे हुए इलाके में बांस की झोंपड़ी की कल्पना कीजिए. यह एक रोहिंग्या बच्चे का घर है. यह उसकी दुनिया है, जिसमें उसके साथ चिथड़ों से बनी गुड़िया है. लेकिन, एक दिन उसे एक बेमुरव्वत, बेदिल दुनिया में बाहर फेंक दिया जाता है.
बर्मियों के शांति के विचार की व्याख्या समरसता और सेहतकारी परिस्थितियों के खिलाफ संघर्ष को जन्म देने वाले कारकों के खात्मे के तौर पर की जा सकती है. अगर शाब्दिक अनुवाद किया जाए, तो ‘नाइन चान’ शब्द का अर्थ निकलता है- लाभकारी या स्वास्थ्यवर्धक शीतलता, जो आग को बुझा देने के बाद आती है.
आग को बुझा देने के बाद मिलने वाली शीतलता एक अन्य शानदार विचार है. रोहिंग्याओं के जले हुए शरीर की भयावह तस्वीरों को देखने के बाद मैं इस बात की कल्पना भी नहीं कर सकता कि म्रन्मा भाषा (बर्मी भाषा) में नाइन चान जैसे किसी शब्द का भी वजूद हो सकता है. निश्चित तौर पर यह शब्द काफी ताजगी भरा है, खासकर तब जब इसे शांति संबंधी बर्मी विचार के साथ इस्तेमाल में लाया जाता है.
भूख, रोग, पलायन, बेरोजगारी, गरीबी, अन्याय, भेदभाव, पूर्वाग्रह, धर्मिक कट्टरता की खबरें हमारे लिए रोजमर्रा की बात है. हर जगह नकारात्मक ताकतें शांति की बुनियाद को खोखला कर रही हैं. यहां यह लेखक, इस समस्या के बुनियादी लक्षणों को सामने रख रहा है: गरीबी, धार्मिक कट्टरता और पूर्वाग्रह. जिस बात को कहने से हम सब बचते रहते हैं, उसे कहने के लिए सचमुच साहस की दरकार होती है.
युद्ध ही वह इलाका नहीं है, जहां शांति के प्राण पखेरू उड़ रहे हैं. जहां भी तकलीफों को नजरअंदाज किया जाएगा, वहां संघर्ष का बीज पड़ेगा, क्योंकि तकलीफ गर्व को तार-तार करती है, कड़वाहट भरता है और क्रोध को जन्म देता है.
इन पंक्तियों में संघर्ष की प्रक्रिया का तीखा और नैतिक बयान है. यह कहना कितना अंतदृष्टिपूर्ण है कि कई तरीकों से शांति के परखच्चे उड़ाए जा सकते हैं. इसमें सबसे अहम है- दूसरों की पीड़ा को नजरअंदाज करना. लेखक (रोहिंग्याओं के) ‘कष्टों को नजरअंदाज’ करने के नतीजे से इस कदर वाकिफ है कि आप अपनी खुशकिस्मती पर शर्मिंदगी महसूस करने लगते हैं.
मेरी खुशकिस्मती है कि मैं एक ऐसे युग में जी रहा/रही हूं, जिसमें कहीं भी अपनी अंतरात्माओं के बंधकों का भाग्य हर किसी के लिए चिंता का सबब बन गया है. यह एक ऐसा युग है, जिसमें लोकतंत्र और मानवाधिकार को व्यापक तौर पर (भले वैश्विक तौर पर नहीं) सबका जन्मसिद्ध अधिकार स्वीकार किया जाता है.
रोहिंग्याओं के हिसाब से देखें तो यह एक और बहुत बड़ा बयान है. हां, लोकतंत्र और मानवाधिकार उनका जन्मसिद्ध अधिकार है और हमारी कोशिश होनी चाहिए कि हम इन अधिकारों को उनके भी साधारण घरों की चौखट तक लेकर जाएं.
भविष्य में यकीन और इस बात में दृढ़ आस्था के बगैर कि लोकतांत्रिक मूल्य और बुनियादी मानवाधिकार हमारे समाज के लिए न सिर्फ जरूरी हैं बल्कि मुमकिन भी हैं, हमारा आंदोलन तबाही के वर्षों में भी जीवित नहीं रह पाता. हमारे कुछ योद्धा मोर्चे पर ढेर हो गए, कुछ ने हमारा साथ छोड़ दिया, लेकिन एक समर्पित केंद्रीय समूह मजबूती और प्रतिबद्धता के साथ डटा रहा.
इन पंक्तियों को मेरा सलाम. मानवाधिकार की अवधारणा को वंचितों के लिए एक संभावना में बदलना अपने आप में बेहद पवित्र विचार है, और वह भी तब जब यह इतिहास के सबसे ज्यादा उपेक्षित लोगों की तरफ से आता है.
तबाही बरपाने वाले बरस आज भी रोहिंग्या समुदाय को ऐसी अदम्य ताकत से लीलते जा रहे हैं कि यह बयान मेरे लिए एक उम्मीदों का बयान है.
हमारे विश्व की शांति का बंटवारा नहीं किया जा सकता. जब तक नकारात्मक ताकतें, सकारात्मक ताकतों पर जीत हासिल करती रहेंगी, हम पर खतरा बना रहेगा. यह सवाल पूछा जा सकता है कि क्या कभी ऐसा वक्त भी आएगा कि सारी नकारात्मक शक्तियां खत्म हो जाएंगी? इसका सीधा सा जवाब है- नहीं! इससे ज्यादा कहने को और क्या बचता है? यह इनसान का स्वभाव है कि उसमें सकारात्मक और नकारात्मक दोनों तत्व रहेंगे. आज कौन सी चीज ज्यादा है? आसमान और चांद की तरह, शांति अविभाज्य है. यहां नकारात्मक और सकारात्मक शक्तियों के बीच दो-दो हाथ का भी जिक्र है, जो कि रोहिंग्याओं के संकट को समझने के लिए बेहद अहम है.
दुनिया के सभी भागों में शरणार्थी हैं. हाल ही में, जब मैं थाईलैंड में मीला शरणार्थी शिविर में था/थी, मेरी मुलाकात कुछ ऐसे समर्पित लोगों से हुई, जो इन शिविरों में रहने वाले लोगों के जीवन को कष्टों से दूर रखने की हर मुमकिन कोशिश कर रहे थे. उन्होंने दानदाताओं में आ रही थकान को लेकर अपनी चिंता भी जाहिर की, जिसका अर्थ सहानुभूति में आ रही कमी के तौर पर भी निकाला जा सकता था. दानदाताओं की थकान को सटीक तरीके से फंडिंग में कमी के दौर पर दिखाया जा सकता था. सहानुभूति की थकान एक हद तक सरोकार में आ रही कमी के तौर पर सामने आती है. पहले को दूसरे का नतीजा कहा जा सकता है. क्या हम सहानुभूति में आने वाली थकान का हिस्सा बनना बर्दाश्त कर सकते हैं?
क्या शरणार्थियों की तकलीफों के प्रति, भले आंखें न मूंदने, मगर उदासीन बन जाने के नतीजे के तौर पर चुकाई जाने वाली कीमत की तुलना में शरणार्थियों की जरूरतों को पूरा करने में आने वाली कीमत ज्यादा है? मैं दुनियाभर के दानदाताओं से इन लोगों की जरूरतों को पूरा करने की अपील करता/करती हूं, जो शरण की तलाश में हैं और जिनकी तलाश अक्सर व्यर्थ साबित होती है.
लेख का यह लंबा बयान, इसकी आत्मा है. दानदाता में आ रही थकान और सहानुभूति में आने वाली कमी का विचार कितना सटीक है और शरण की व्यर्थ तलाश की बात का जिक्र भी इतना कितना सच है. यह खासतौर पर तब और भी सच है, जब बात शरणार्थियों के वास्तविक हालातों के बारे में आती है, जिन्हें दुनिया में कोई भी शरण नहीं देना चाहता है. दुनिया ने रोहिंग्याओं के खिलाफ सहानुभूति में इतनी कंजूसी दिखाई है कि सहानुभूति की कोई भी अपील ईश्वर की आवाज की तरह दिखाई सुनाई देती है.
मुझे माफ कीजिए, इस लेख को आपके सामने रखने की जल्दबाजी में इसके लेखक और इसके स्रोत का जिक्र करना तो भूल ही गया.
यह 16 जून, 2012 को दिए गए आंग सान सू की के नोबेल भाषण का अंश है.
ये दुनिया अजीब है न! वास्तव में काफी अजीब है.
(शाह आलम खान, एम्स, नई दिल्ली के आर्थोपेडिक विभाग में प्रोफेसर हैं.)
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