क्या हम असल में हत्या की संस्कृति के विरुद्ध हैं या सिर्फ़ अपने लिए हत्या का अधिकार चाहते हैं

उदयपुर की हत्या की वीभत्सता, नृशंसता को हम इतना भी अजनबी न मानें. यह हमारे समाज का स्वभाव है. पर क्या इस हत्या पर हमारा ध्यान इसलिए टिका हुआ है कि मारा जाने वाला कौन है और उसे मारा किसने है?

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(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रवर्ती/द वायर)

उदयपुर की हत्या की वीभत्सता, नृशंसता को हम इतना भी अजनबी न मानें. यह हमारे समाज का स्वभाव है. पर क्या इस हत्या पर हमारा ध्यान इसलिए टिका हुआ है कि मारा जाने वाला कौन है और उसे मारा किसने है?

(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रवर्ती/द वायर)

हत्या कब सिर्फ़ हत्या रहती है और कब नृशंस, बर्बर हो जाती है? क्यों गोली मार देना तो बर्दाश्त हो जाता है लेकिन गला काटना नहीं? गला काट देने में भी एक झटके से गर्दन उड़ा देना और गर्दन रेतकर मारना: इन दोनों में बहुत अंतर है. बोटी-बोटी काट देना या बिहार में जिसे कुट्टी-कुट्टी कर देना कहते हैं, वह सिर्फ मुहावरा नहीं है. देखते ही गोली मार देना और दौड़ा-दौड़ाकर मारना: दोनों में अंतर है.

किसी को घेरकर मारना, उसकी तय मौत को उसके सामने बनाए रखना, जिसमें वह अपनी मौत की प्रतीक्षा करे और एक घड़ी ऐसी आए कि मौत की भीख मांगने लगे ताकि यंत्रणा से उसे छुटकारा मिले, इसमें मारे जाने वाले के जीवन पर मारने वाले के पूरे कब्जे का आनंद है. वह चाहता तो छोड़ सकता है, उसका जीवन उसकी मर्जी पर है.

एकबारगी मार डालना और तिल-तिलकर मरने के लिए छोड़ देना, दोनों का अंतिम परिणाम एक है लेकिन हम जानते हैं कि दोनों में इरादे का फर्क है. हत्या के क्षण को जितना लंबा खींचें, वह उतनी ही भयानक और वीभत्स होती जाती है. क्या हत्या यंत्रणा की प्रक्रिया का परिणाम है? इससे तय होता है कि वह कितनी भयावह होगी. कुछ हत्यारे सिर्फ मारकर संतुष्ट हो जाते हैं लेकिन कुछ हत्या का आनंद लेना चाहते हैं.

दूसरी श्रेणी के हत्यारों को हम मानसिक रूप से विकृत मानते हैं. पहले को क्षमा कर भी दें, दूसरे को समाज में वापस लाने की बात सोचना ही असंभव है.

मार डालना, खून करना, क़त्ल कर देना, मौत के घाट उतारना… सबका नतीजा मौत है, लेकिन उसके बावजूद क्यों इनकी ध्वनियां अलग हैं? और क्यों इनका असर हम पर अलग-अलग पड़ता है? किसी को गोली मार देने की खबर सुनकर हम आगे बढ़ जाते हैं, लेकिन फरसे, गंड़ासे, तलवार से मारने की खबर सुनकर ठिठक जाते हैं.

किन हथियारों के प्रति आम आकर्षण है? कौन से हथियार हमें ताकत का एहसास कराते हैं? कौन ज्यादा खौफ पैदा करते हैं? मालूम होता है मारने से ज्यादा हम मारने के तरीके से प्रभावित होते हैं.

लेकिन एक और बात जिस पर हम प्रायः सोचते नहीं वह यह कि हत्या के तरीके के साथ यह भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं कि हत्या हुई किसकी? किसकी हत्या ज्यादा दिनों तक चर्चा का विषय रहती है और कौन अखबार के भीतर के पन्नों में भी जगह खोजती रहती है?

ये सारे प्रश्न उदयपुर में कन्हैयालाल की हत्या के बाद उठ खड़े हुए हैं. उनकी हत्या ने हम सबको दहला दिया है. हत्या में जिन हथियारों का इस्तेमाल किया गया वे अब किसी को मारने के काम नहीं आते. लेकिन इसमें प्रायः जोड़ना ज़रूरी है. क्योंकि वे हथियार अभी भी बने हुए हैं, मात्र संग्रहालयों में नहीं, घरों में पाए जाते हैं. उनका उत्पादन होता है, उनकी मारक क्षमता नई तकनीक के सहारे बढ़ाई जाती है, उन्हें अधिक घातक बनाने के लिए मानवीय कल्पनाशीलता सक्रिय रहती है.

हथियार का घातक होना ज़रूरी है, लेकिन उससे भी ज़रूरी है उसका डरावना दिखना. जब जीवन अधिक निर्दोष हुआ करता था, फिल्मों में करकराहट के साथ रामपुरी चाकू के खुलने की आवाज से रोएं खड़े हो जाया करते थे.

हत्या सिर्फ एक आदमी की हो और हत्यारा पोशीदा रहे या अपनी पहचान छिपाकर की जाए, यह तो आम तौर पर होता है. प्रायः क़त्ल किया तो जाता है लेकिन कातिल ख़ुद को ज़ाहिर नहीं करना चाहता. उसकी वजह बहुत साफ़ है कि राज्य ने क़त्ल करने का हक़ राज्य के अलावा और किसी को नहीं दिया है. वह जुर्म है.

बल्कि राज्य भी क़त्ल नहीं कर सकता. इसीलिए मुठभेड़ में होनेवाली ‘मौतों’ की जांच की क़ानूनी बाध्यता है. क़त्ल या आदमी की जान लेना क़ानूनी तौर पर स्वीकृत हो और वह भी अदालत से, ज़रूरी है. इसलिए उसमें मारने वाला एक पुलिसकर्मी हो या कोई और राजकीय कर्मचारी, माना जाता है कि उसमें उसकी कोई जाती ज़िम्मेदारी नहीं है. उसका कोई निजी हित उस हत्या से जुड़ा हुआ नहीं. वह कर्तव्यभाव से वह करता है क्योंकि उसमें सार्वजनिक हित जुड़ा है.

लेकिन यह तब जब राज्य समदर्शी हो. वह भले ही अप्रिय हो लेकिन व्यापक हित में, एक बड़ी हिंसा को रोकने के लिए की गई हिंसा है. फिर भी ऐसे प्रकरणों में भी अपने हाथों होने वाली मौत को लेकर तकलीफ़ उस राज्य कर्मी के मन में रहती है. वह उसका जश्न नहीं मनाता.

लेकिन अगर इन्हें छोड़ दें तो ऐसी हत्याएं भी हैं जिनमें हत्यारा खुद को छिपाने का कोई प्रयास नहीं करता. वह हत्या का प्रदर्शन करता है. इससे वह अपना ख़ौफ़ लोगों पर बिठाता है. इसका अर्थ यह भी है कि उसे दंड का भय नहीं.

लेकिन कुछ ऐसे होते हैं जिन्हें मालूम है कि वे दंड से बच नहीं सकते. फिर भी वे ख़ुद को हत्यारे के रूप में उजागर करते हैं. इस हत्या में एक क़िस्म का ठंडापन है और वह हमारे भीतर सिहरन भरता है. वह किसी बड़े मक़सद के लिए हत्या कर रहा है और इसके लिए अगर उसे अपनी ज़िंदगी भी क़ुर्बान करना पड़े तो फ़िक्र नहीं, वह यह कहना चाहता है. उसके बाद अगर उसे मृत्युदंड मिले तो वह शहादत ही होगी.

यह ख़याल उदयपुर के हत्यारों में था. वे अपने रसूल की शान की हिफ़ाज़त कर रहे थे. अगर किसी ने उनकी शान में गुस्ताखी की हो तो उसे ही नहीं उसके साथ खड़े किसी को भी मार डालना फ़र्ज़ है, यह उन हत्यारों की समझ है. इसलिए उन्होंने कन्हैयालाल का क़त्ल एक ‘मध्यकालीन’ क़ायदे से किया जिससे उसका असर और गहरा हो.

इस क़त्ल के बाद मुसलमानों ने हत्यारों की सख़्त निंदा की और इस क़त्ल को इस्लाम के ख़िलाफ़ बतलाया लेकिन उनकी बात मानने को अनेक लोग तैयार नहीं हैं. उनके मुताबिक़ इस क़िस्म का क़त्ल सिर्फ़ एक धार्मिक समुदाय के लोग करते हैं. उन्हें याद करना मुश्किल न होना चाहिए कि इसी राजस्थान में कुछ साल पहले शंभूलाल रैगर नामक हिंदू ने अफ़राजुल नामक एक मुसलमान का इसी तरह क़त्ल किया था. गोली मारकर नहीं. काट-काटकर. और फिर अफ़राजुल के शरीर के उन हिस्सों को जलाकर.

पिछले 8 सालों में अलग-अलग जगह जितने मुसलमानों को मारा गया है, उनमें गोली से शायद ही किसी को मारा गया हो. सबको पीट-पीटकर, किसी कुंद या तेज धारदार हथियार से धीरे-धीरे मारा गया है. जैसे वह एक सामूहिक अनुष्ठान हो. उन सारी हत्याओं के भी वीडियो बनाए गए और व्यापक क्षेत्र में करोड़ों दर्शकों के लिए इन्हें प्रसारित किया गया.

कन्हैयालाल के हत्यारे ईशनिंदा की सजा दे रहे थे जो आज अस्वीकार्य है. बाक़ी सब मुसलमानों को किस जुर्म की सजा दे रहे थे? मुसलमान होने की?

कन्हैयालाल के हत्यारे अपने लिए शहादत के लिए ख़ुद को उजागर कर रहे थे लेकिन मुसलमानों के हत्यारे इस यक़ीन के साथ अपने हत्याकांड को प्रसारित कर रहे थे कि उन्हें कुछ नहीं होगा.

हत्या की पद्धति में फ़र्क़ नहीं. इन 7-8 सालों में तलवारों की बिक्री में भारी बढ़ोत्तरी हुई है. हमने फरसों के साथ जुलूस निकलते देखे हैं. त्रिशूल और तलवार वितरण के कार्यक्रमों की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है. इन हथियारों का प्रशिक्षण भी दिया जा रहा है.

तर्क यह है कि हिंदू तलवार मारने के लिए नहीं, सांकेतिक या प्रतीकात्मक तौर पर इस्तेमाल करते हैं. क्या यह सच है? रिवॉल्वर या बंदूक़ का, जिस क़िस्म की हो, लाइसेंस मिलना आसान नहीं. तलवार, फरसे, भाले के साथ यह कठिनाई नहीं. उनके हाथ में आने से उन युद्धों में शामिल होने का आभास होता है जिन्हें लड़कर जीता जाना था. वे एक फैंटेसी को जन्म देते हैं.

उदयपुर की हत्या की वीभत्सता, नृशंसता को हम इतना भी अजनबी न मानें. यह हमारे समाज का स्वभाव है. पहले एक सवाल हमने किया, उसे ईमानदारी से दोहराने की ज़रूरत है. क्या इस हत्या पर हमारा ध्यान इसलिए टिका हुआ है कि मारा जाने वाला कौन है और उसे मारा किसने है?

यह इसलिए कि क़रीब उसी समय लखनऊ के एक ग्रामीण इलाक़े में शिवकुमार रावत नामक एक दलित को उसकी चारपाई के नीचे बम लगाकर उड़ा दिया गया. वह मारा गया. लेकिन इस हत्या के दृश्य पर किसी की निगाह नहीं रुकी. कोई सिहरन हमारी सामाजिक रीढ़ में नहीं. क्या इसलिए कि मारने वाले हमारी तरह के लोग थे? क्या इसलिए कि दलितों की हत्याओं की इस समाज को आदत है?

हमें हत्याओं पर ईमानदारी से सोचना होगा. क्या हम वाक़ई हत्या की संस्कृति के विरुद्ध हैं या सिर्फ़ अपने लिए हत्या का अधिकार चाहते हैं?

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)