राजधानी दिल्ली से लगे पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मेरठ शहर की अपनी फिल्म इंडस्ट्री है जिसे यहां के लोगों ने ‘मॉलीवुड’ नाम दिया हुआ है.
पश्चिमी उत्तर प्रदेश नाम ज़ेहन में आते ही जो पहली तस्वीर उभरती है वह काफी स्याह नज़र आती है. शायद इसकी वजह मुजफ्फरनगर दंगा, बिसाहड़ा का बीफ विवाद और कैराना में कथित तौर पर हिंदुओं का पलायन जैसी घटनाएं हैं. इस इलाके में अगले कुछ दिनों में विधानसभा चुनाव होने हैं, इसलिए हम इस स्याह तस्वीर के इतर एक ऐसी तस्वीर आपके सामने पेश कर रहे हैं जो उस सांस्कृतिक पक्ष को उजागर करती है जिसके बारे में बहुत ही कम लोग जानते हैं.
भारतीय सिनेमा को अगर समुद्र माना जाए तो क्षेत्रीय सिनेमा को नदी कहा जाएगा. इन्हीं नदियों में से एक धारा पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मेरठ शहर से निकलती है जो बताती है कि कला-संस्कृति और अपनी बोली-भाषा को संजोने और उससे जुड़े रहने का यहां एक समृद्ध इतिहास रहा है.
मेरठ का एक अपना सिनेमा उद्योग है, जिसे यहां के लोगों ने ‘मॉलीवुड’ या देहाती सिनेमा इंडस्ट्री नाम दिया है. इस इंडस्ट्री की खास बात ये है कि यहां बनने वाली फिल्में सिनेमाघरों में नहीं बल्कि सीडी पर रिलीज होने के लिए बना करती थीं. ये दौर वीडियो सीडी का था. शूटिंग के बाद फिल्मों की सीडी बनाकर बाजार में डिस्ट्रीब्यूट कर दिया जाता था.
फिल्म की एक सीडी 25 से 40 रुपये में दर्शकों को उपलब्ध हो जाया करती थी. ठेठ खड़ी बोली यानी हरियाणवी में बनने वाली यहां की फिल्में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के विभिन्न शहरों के अलावा दिल्ली के बाहरी इलाकों और हरियाणा से लगे राजस्थान के कुछ शहरों के दर्शकों के बीच काफी लोकप्रिय हैं.
मॉलीवुड में सक्रिय निर्देशक संजीव वेदवान बताते हैं, ‘एक समय पश्चिमी उत्तर प्रदेश, दिल्ली के बाहरी इलाके और हरियाणा से लगे राजस्थान के कुछ इलाके विशाल हरियाणा का हिस्सा हुआ करते थे. बाद में ये अलग-अलग राज्यों का हिस्सा बन गए, लेकिन इन क्षेत्रों की बोली, भाषा और संस्कृति आज भी नहीं बदली है. जिसकी वजह से हरियाणवी में बनी फिल्में आज भी यहां देखी और पसंद की जाती हैं.’
मजे की बात ये है कि सिनेमाघरों में रिलीज हुए बिना ही मॉलीवुड की तमाम फिल्मों ने लाखों रुपये का कारोबार किया है. वजह ये थी कि इन इलाकों के लोगों को फिल्मों में अपनी बोली-भाषा, अपने गांव और शहर और हीरो-हीरोइन के रूप में अपने लोगों को देखना अब भी पसंद हैं.
2006 में आउटलुक मैगजीन की एक रिपोर्ट के अनुसार, ‘बाजार विशेषज्ञों का यह मानना है कि चूंकि ये फिल्में हिंदी फिल्मों की तरह सिनेमाघरों में रिलीज नहीं होतीं इसलिए उससे होने वाली आय का सही अंदाजा लगा पाना मुश्किल है, फिर भी इसका बाजार तकरीबन 100 करोड़ रुपये के आसपास है. 20 से 25 रुपये में उपलब्ध होने वाली इन फिल्मों की सीडी हिंदी फिल्मों की महंगी वीसीडी के मुकाबले स्वच्छ मनोरंजन का एक बेहतर जरिया बन चुकी हैं.’
इसी तरह 2007 में दैनिक जागरण में प्रकाशित एक रिपोर्ट कहती है, ‘मॉलीवुड का कारोबार बढ़कर 100 करोड़ रुपये तक पहुंच गया है. आर्टिस्ट, टेक्नीशियन और डिस्ट्रीब्यूशन से जुड़े लोगों को भी शामिल कर लें तो तकरीबन 5000 लोग इस इंडस्ट्री से जुड़े हुए हैं. हर साल लगभग 300 फिल्में रिलीज हो रही हैं और पिछले चार सालों में दो हजार से ज्यादा सीडी फिल्में बाजार में आ चुकी हैं.’
मेरठ में सीडी के लिए फिल्में बनाने की बात करें तो सबसे पहले ऑडियो टेप की बात आएगी. 90 के दशक में ऑडियो टेप पर कॉमेडी प्रोग्राम रिकॉर्ड किए जाते थे जो कि इस क्षेत्र के लोगों के बीच काफी हिट थे. 20वीं सदी के आखिर तक सीडी ने ऑडियो टेप को चलन से बाहर कर दिया और उनकी जगह ले ली.
सीडी के आने के बाद इस तरह की कॉमेडी ऑडियो सीडी निर्माण के कारोबार ने धीरे-धीरे पेशेवराना रुख अख्तियार करना शुरू कर दिया. इसमें टी-सीरीज और मोजर बीयर जैसी फिल्म और संगीत निर्माण कंपनियां कूद पड़ीं. साल 2000 में अभिनेता और मिमिक्री आर्टिस्ट कमल आजाद ने टी-सीरीज से समझौता कर ‘वैरी गुड’ नाम से चुटकुलों का एक ऑडियो सीडी रिलीज किया. इंडस्ट्री से जुड़े तमाम लोग इसी को मॉलीवुड की शुरुआत मानते हैं.
इसके बाद बाजार में चुटकुलों के ऑडियो सीडी की बाढ़ सी आ गई. कुछ और प्रयोग हुए तो ऑडियो की जगह कॉमेडी की वीडियो सीडी बनाई लाने लगी. तब कुछ लोगों ने इसे ही फिल्म कहना शुरू कर दिया था. हालांकि ये फिल्म नहीं बल्कि 40 मिनट से एक घंटे के कॉमेडी नाटक हुआ करते थे.
साल 2004 में सीडी पर एक फिल्म रिलीज होती है जिसका नाम था, ‘धाकड़ छोरा’. ये फिल्म जबरदस्त हिट साबित होती है. मॉलीवुड में आज भी ये फिल्म मील के पत्थर की हैसियत रखती है. शानदार कमाई की वजह से इसे मॉलीवुड की फिल्म शोले का भी खिताब मिला हुआ है. आज भी किसी फिल्म की सफलता का मानक इस फिल्म की कमाई से जोड़कर तय किया जाता है.
इस फिल्म के आने के साथ ही रातोंरात इसके हीरो उत्तर कुमार और हीरोइन सुमन नेगी इलाके के युवक-युवतियों के आदर्श बन जाते हैं. उत्तर मॉलीवुड के सलमान खान के रूप में चर्चित होते हैं और सुमन इंडस्ट्री की ऐश्वर्या राय कहलाने लगती हैं.
ऐसा कहा जाता है कि धाकड़ छोरा के पहले मॉलीवुड में कोई भी फुल लेंथ फिल्म नहीं बनी थी. इसके हीरो उत्तर कुमार के अनुसार, ‘फिल्म धाकड़ छोरा से ही मॉलीवुड की शुरुआत होती है. इससे पहले ऑडियो और छोटी-छोटी वीडियो फिल्में बना करती थीं. मेरी जानकारी में मॉलीवुड में फिल्म बनाने का इससे पहले कोई इतिहास नहीं रहा.’
उत्तर कुमार की बात की पुष्टि मेरठ में इंडियन मॉलीवुड फिल्म एसोसिएशन के अध्यक्ष संदीप कुमार भी करते हैं. वे बताते हैं, ‘पहली फिल्म कौन सी थी इसे लेकर लोगों में विरोधाभास भी है. कुछ कहते हैं कि वे बहुत पहले से ही फिल्म बना रहे थे. कुछ ऐसे भी लोग हैं जिनसे बात करो तो वे कहेंगे कि उन्होंने 25 साल पहले फिल्म बनाई थी. हालांकि मेरे हिसाब से वे फिल्में न तो कभी सीडी में आईं और न ही किसी ने देखी. उससे पहले वीडियो एलबम और चुटकुले वाले एलबम वगैरह बन रहे थे.’
बहरहाल, ये फिल्में शादियों के वीडियो बनाने वाले हैंडीकैम पर शूट हुआ करती थीं. फिल्म धाकड़ छोरा के आने के बाद फिल्म के तकनीक थोड़ा सुधार आने लगा. इसके बाद तमाम फिल्में आईं. जैसे- कर्मवीर, ऑपरेशन मजनू, बुद्धुराम, पारो तेरे प्यार में, मेरी लाड्डो, रामगढ़ की बसंती की शूटिंग में अच्छी तकनीक से लैस वीडियो कैमरों का प्रयोग होने लगा.
एक समय ऐसा भी आया जब पोस्ट प्रोडक्शन का काम जिसके लिए दिल्ली के अलावा दूसरे शहरों की ओर रुख करना पड़ता, वो भी मेरठ में ही होने लगा. मेरठ में कई सारे स्टूडियो खुल गए जहां इन सीडी फिल्मों की एडिटिंग से लेकर डबिंग और बैकग्राउंड म्यूजिक देने का सिलसिला शुरू हो गया था. कहा जाए तो मॉलीवुड एक तरह से आत्मनिर्भर हो गया था.
इन फिल्मों की शूटिंग पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गांवों से निकलकर उत्तराखंड के तमाम शहरों में होने लगी. शूटिंग में सहयोग के लिए मुंबई और दिल्ली से तकनीशियन बुलाए जाने लगे थे. गीत-संगीत और कहानी के लिहाज से इन फिल्मों का स्तर सुधरने लगा था.
लोगों में इनका क्रेज ऐसा था कि जो लोग आर्थिक रूप से मजबूत होते थे वे खुद हीरो बनने का सपना पाल लेते थे. ऐसे कुछ लोगों ने फिल्में भी बनाईं. 2006 में प्रकाशित टाइम्स ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट के अनुसार, पेशे से वकील चौधरी योगेंद्र सिंह ने हीरो बनने के लिए 1.5 लाख रुपये से खेल किस्मत का नाम की फिल्म बना डाली थी.
तकनीक के साथ ही मॉलीवुड के निर्देशकों ने बॉलीवुड के ट्रेंड का पकड़ना शुरू कर दिया था. बॉलीवुड की हिट फिल्मों की कहानियों पर आधारित फिल्में भी बनाई गई हैं. कुछ फिल्मकारों ने हिट फिल्मों को सीक्वल भी बनाना शुरू कर दिया था. जैसे- धाकड़ छोरा का दूसरा भाग धाकड़ छोरा-2 फिल्म भी बनाई गई.
कुछ निर्माता-निर्देशक मुंबई से आकर मॉलीवुड में किस्मत आजमाने लगे थे. 2007 में दैनिक जागरण में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार 26 साल तक मुंबई में काम करने वाले निर्देशक मोहम्मद हनीफ ने मॉलीवुड के लिए भी कई फिल्में बनाई थीं. इसमें लोफर, अंगार ही अंगार और प्यार की जंग प्रमुख फिल्में हैं.
बॉलीवुड में किस्मत आजमा चुके एक और निर्देशक एसयू सैयद भी मॉलीवुड फिल्म रामगढ़ की बसंती बना चुके हैं. उत्तर कुमार की कुणबा नाम की फिल्म में अभिनेता कादर खान ने भी काम किया है. उदित नारायण और अल्का याग्निक जैसे गायकों ने इन फिल्मों के गानों में अपनी आवाज़ भी दी है.
हालांकि मॉलीवुड सफलता की यह लय अगले कुछ साल तक ही बरकरार रख सका. वर्ष 2007-08 तक इसने सफलता का जो स्वाद चखा वह वर्ष 2009 आते-आते कसैला हो गया था. इसकी वजह भी वही सीडी बनी जिस पर ये फिल्में रिलीज हुआ करती थीं.
दरअसल सीडी में पाइरेसी का घुन लगा चुका था जिसने मॉलीवुड के समृद्ध साम्राज्य की नींव को खोखला करना शुरू कर दिया था. मॉलीवुड फिल्मों के प्रोड्यूसर और धाकड़ छोरा में खलनायक का किरदार निभा चुके भूपेंदर तितौरिया बताते हैं, ‘पाइरेसी की वजह से पैसा लगाने वाली कंपनियां अपना पैसा निकाल नहीं पा रही थीं. फिर एक वक्त ऐसा आया जब पाइरेसी के आगे इन फिल्मों ने अपने घुटने टेक दिए.’
फिर कुछ समय के लिए मॉलीवुड में फिल्म निर्माण का कारोबार लगभग रुक सा गया, लेकिन इससे जुड़े लोगों का हौसला डिगा नहीं. सीडी खत्म होने के बाद फिल्मकारों ने ऐसी फिल्मों के निर्माण के बारे में तैयारी शुरू की जिन्हें सिंगल स्क्रीन थियेटरों में रिलीज किया जा सके.
इसके बाद मॉलीवुड एक नए सफर पर निकल पड़ा. प्रोफेशनल कैमरों से फिल्मों की शूटिंग शुरू की गई. इसके बाद फिल्मकार फिल्मों को थियेटरों तक पहुंचाने की चुनौती से रूबरू हुए. इसके लिए प्रयास शुरू हुए. कुछ समय बाद मेरठ, बागपत, मुजफ्फरनगर, शामली, हापुड़ जैसे शहरों के सिंगल स्क्रीन थियेटरों में मॉलीवुड की कुछ फिल्मों को जगह मिलनी शुरू हो गईं.
निर्देशक संजीव वेदवान बताते हैं, ‘सीडी का कारोबार खत्म होने के बाद रास्ता ये निकाला गया कि बड़े पर्दे के लिए फिल्म बनाई जाए. अब बड़े पर्दे की फिल्म बनाने के लिए जो बजट चाहिए होता है उसके लिए तो प्रोड्यूसर नहीं मिलता. हमने इसका हल ये निकाला कि 16 एमएम की फिल्म बनाई जाए. फिर पहली फिल्म नटखट बनी. इसके चार प्रिंट रिलीज हुए. फिल्म ने अच्छा बिजनेस किया तो कुछ प्रोड्यूसर आगे आए और फिर एक नया सिलसिला शुरू हो गया.’
इसके बाद लाट साहब, डीयर वर्सेज बीयर, कट्टो, ये कैसा पल दो पल का प्यार, लोफर जैसी फिल्में सिंगल स्क्रीन थियेटरों में रिलीज हुईं. 2014 में रिलीज हुई डियर वर्सेज बीयर से जुड़ी एक मजेदार बात साझा करते हुए इसके निर्देशक संजीव वेदवान कहते हैं, ‘हापुड़ में एक मल्टीप्लेक्स है. हमने वहां पर अपनी फिल्म लगाने की बात रखी. हमने कहा कि सिर्फ एक शो दे दीजिए तो उन्होंने कहा कि नहीं यार, हरियाणवी फिल्मों को मल्टीप्लेक्स में दर्शक नहीं मिलेंगे. एक शो चलाने के बाद उतारनी पड़े तो बेइज्जती होगी. मैंने कहा कि हम बेइज्जती सहने के लिए तैयार हैं. फिर उन्होंने फिल्म रिलीज की. उस समय रानी मुखर्जी की फिल्म मर्दानी भी चल रही थी. उसके बावजूद हमारा पहला शो ही हाउसफुल था. मल्टीप्लेक्स वालों ने उसी रात हमें बुलाया और कहा कि फिल्म का रिस्पॉन्स बहुत अच्छा है कल से हमें दो शो चाहिए.’
हालांकि एक दशक से ज्यादा का सफर तय करने के बावजूद भी ये इंडस्ट्री अभी पूरी तरह से संगठित नहीं हो पाई है. मॉलीवुड की फिल्में लगातार रिलीज नहीं होती हैं. कुछ लोग इसकी वजह सरकार की ओर से बजट न मिलना बताते हैं.
गजरौला के पास हसनपुर में विजय थियेटर चलाने वाले आशुतोष अग्रवाल का कहना है, ‘मॉलीवुड की फिल्मों के आने का कोई तय समय नहीं है. इसलिए ठीक से याद भी नहीं रहता कि पिछली फिल्म कौन सी आई और कितना कारोबार किया. हां, ये जरूर है कि उत्तर कुमार की फिल्मों को दर्शक पसंद करते हैं. ये फिल्में अभी विकास के क्रम में हैं. अगर सरकार की ओर से फिल्मकारों को मदद मिले और सिनेमाघरों को कर में छूट तो ये फिल्में अच्छा कारोबार करने के साथ ही दर्शकों के बीच फिर से लोकप्रिय हो सकती हैं.’
लाट साहब और कट्टो जैसी फिल्मों के निर्माता ओपी राय कहते हैं, ‘इंडस्ट्री इसलिए संगठित नहीं हो पाई क्योंकि जो भी कलाकार थोड़ा अच्छा काम कर लेते हैं वे बॉलीवुड का रुख कर लेते हैं. यहां कई संगठन हैं लेकिन उनमें कोई आपसी तालमेल नहीं है. इसके अलावा सरकारी मदद भी नहीं मिल पाती. हमारे लिए दिल्ली पहुंचना आसान होता है लेकिन लखनऊ जा पाना मुश्किल. न हम लखनऊ जा पाते हैं और न ही कोई सरकारी मदद मिल पाती है.’
उत्तर प्रदेश फिल्म विकास परिषद के उपाध्यक्ष गौरव द्विवेदी के मुताबिक, ‘सरकार के पास आएंगे तब तो मदद मिल पाए, सरकार उनके पास चलकर तो जाएगी नहीं. आप आओ अपनी समस्या बताओ. अभी छह महीने पहले मैंने उनसे बोला था कि मैं आना चाहता हूं वहां लेकिन उनकी तरफ से कोई बातचीत ही नहीं की गई. अभी सरकार ने हिंदी और भोजपुरी फिल्मवालों को फंड जारी किया है. मुंबई वाले आ रहे हैं, सब काम करके चले जा रहे हैं. आप घर में बैठे हो आ ही नहीं रहे हो.’