बसपा सांसद अतुल राय की ज़मानत अर्ज़ी ख़ारिज करते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ ने कहा कि यह संसद की सामूहिक ज़िम्मेदारी है कि अपराधिक छवि वाले लोगों को राजनीति में आने से रोके और लोकतंत्र बचाए. चूंकि संसद और निर्वाचन आयोग ज़रूरी क़दम नहीं उठा रहे हैं, इसलिए देश का लोकतंत्र अपराधियों, ठगों और क़ानून तोड़ने वालों के हाथों में जा रहा है.
नई दिल्ली/लखनऊ: इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ ने संसद और निर्वाचन आयोग से अपराधियों को राजनीति से बाहर करने और अपराधियों, नेताओं और नौकरशाहों के बीच अपवित्र गठजोड़ को तोड़ने के लिए प्रभावी कदम उठाने को कहा है.
पीठ ने कहा कि हालांकि उच्चतम न्यायालय ने निर्वाचन आयोग को इस दिशा में उचित कदम उठाने को कहा है लेकिन अभी तक आयोग और संसद ने ऐसा करने के लिए सामूहिक इच्छा शक्ति नहीं दिखायी है.
बार एंड बेंच के अनुसार, जस्टिस दिनेश कुमार सिंह की एकल पीठ ने घोसी (मऊ) से बहुजन समाज पार्टी के सांसद अतुल कुमार सिंह उर्फ अतुल राय की जमानत अर्जी खारिज करते हुए यह टिप्पणी की.
राय अपने खिलाफ दर्ज मुकदमे को वापस करने के लिए पीड़िता और उसके गवाह पर नाजायज दबाव बनाने के आरोप में जेल में बंद हैं. उनके कथित दबाव के कारण पीड़िता और उसके गवाह ने आत्महत्या की कोशिश की थी. बाद में, गंभीर अवस्था में दोनों को अस्पताल में भर्ती कराया गया था, जहां उनकी मौत हो गई.
इस मामले में हजरतगंज थाने में सांसद राय समेत कई लोगों के खिलाफ एफआईआर दर्ज की गई थी. पीड़िता ने वर्ष 2019 में अतुल राय पर दुष्कर्म का आरोप लगाया था.
राय के मामले की सुनवाई के दौरान न्यायालय ने पाया कि उनके खिलाफ कुल 23 मुकदमों का आपराधिक इतिहास है और इनमें अपहरण, हत्या, बलात्कार और अन्य जघन्य अपराधों के मामले शामिल हैं.
पीठ ने कहा, ‘याचिकाकर्ता एक बाहुबली, एक अपराधी से नेता बना व्यक्ति है जो उनके हलफनामे के पैरा 38 में दिए गए जघन्य अपराधों के लंबे आपराधिक इतिहास से स्पष्ट है’
अदालत ने कहा कि राय जैसे आरोपी ने गवाहों को जीत लिया, जांच को प्रभावित किया और अपने पैसे, बाहुबल और राजनीतिक शक्ति का उपयोग करके सबूतों के साथ छेड़छाड़ की. संसद और राज्य विधानसभा में अपराधियों की खतरनाक संख्या सभी के लिए एक चेतावनी है.
अदालत ने यह भी पाया कि 2004 की लोकसभा में चुने गए 24 प्रतिशत , 2009 में 30 प्रतिशत, 2014 में 34 प्रतिशत, वहीं 2019 की लोकसभा में 43 प्रतिशत सदस्य आपराधिक छवि वाले हैं.
अदालत ने कहा, ‘यदि नेता कानून तोड़ने वाले हैं, तो नागरिक जवाबदेह और पारदर्शी शासन की उम्मीद नहीं कर सकते हैं और ऐसे में कानून के शासन से चलने वाला समाज दूर की कौड़ी है.’
जस्टिस सिंह का कहना था कि आजादी के बाद हुए प्रत्येक चुनाव के साथ जीतने योग्य उम्मीदवारों को टिकट देते समय जाति, समुदाय, जातीयता, लिंग, धर्म आदि जैसी पहचानों की भूमिका प्रमुख होती गई.
कोर्ट ने कहा, ‘पैसे और बाहुबल के साथ इन पहचानों ने अपराधियों का राजनीति में प्रवेश आसान बना दिया है और बिना किसी अपवाद के हर राजनीतिक दल थोड़े बहुत अंतर के साथ इन अपराधियों का इस्तेमाल चुनाव जीतने के लिए करता है.’
पीठ ने कहा, ‘कोई भी इस बात से इनकार नहीं कर सकता कि वर्तमान राजनीति अपराध, बाहुबल और धन के जाल में फंसी हुई है. अपराध और राजनीति का गठजोड़ लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए गंभीर खतरा है.’
अदालत ने कहा कि संसद, विधानसभा और यहां तक कि स्थानीय निकायों के चुनाव लड़ना बहुत ही मंहगा हो गया है.
पीठ ने यह भी कहा कि यह भी देखने में आया है कि हर चुनाव के बाद जनप्रतिनिधियों की संपत्ति में अकूत इजाफा हो जाता है. पहले बाहुबली और अपराधी चुनाव लड़ने वाले प्रत्याशियों को समर्थन देते थे लेकिन अब तो वे स्वयं राजनीति में आते हैं और पार्टियां उनको बेझिझक टिकट भी देती हैं. अदालत ने कहा कि यह तो और भी आश्चर्यजनक है कि जनता ऐसे लोगों को चुन भी लेती है.
पीठ ने कहा कि यह संसद की सामूहिक जिम्मेदारी है कि अपराधिक छवि वाले लोगों को राजनीति में आने से रोके और लोकतंत्र को बचाए.
अदालत ने कहा कि चूंकि संसद और आयोग आवश्यक कदम नहीं उठा रहा, इसलिए भारत का लोकतंत्र अपराधियों, ठगों और कानून तोड़ने वालों के हाथों में सरक रहा है.
(समाचार एजेंसी भाषा से इनपुट के साथ)