अयोध्या से बाहर इसकी पहचान राम जन्मभूमि और बाबरी मस्ज़िद विवाद से ही होती है. लेकिन अयोध्या के पास इन दोनों के इतर और भी बहुत कुछ है कहने को.
अयोध्या एक शहर का नाम है
जैसे भोपाल…
मनुष्य रहते हैं इस शहर में
जिनमें रहता है भगवान
और चूंकि भगवान मनुष्य में रहता है
इसलिए वह अल्ला भी हो सकता है…
चालू राजनीति का गर्भपात नहीं है अयोध्या…
एक शहर का नाम है अयोध्या
जिसमें लोग जिंदगी की लड़ाई लड़ते हैं और अंत में मर जाते हैं.
अनिल कुमार सिंह (अयोध्या 1991)
पूर्वी उत्तर प्रदेश की एक नगरी, जो बहुसंख्यक भारतीय हिंदुओं की आस्था का केंद्र है, जहां लोग मोक्ष की कामना के लिए आते हैं, जिसकी तरफ लोग हाथ उठाकर कसमें खाते हैं, जहां भगवान को मनुष्य मानकर उनकी सेवा की जाती है, जहां पूरे नगर में रामकथाएं और रामधुन गूंजती रहती हैं, उस नगर को दुनिया अयोध्या के नाम से जानती है.
आप दिल्ली, मुंबई, पुणे, बंगलुरु आदि शहरों में अयोध्या के बारे में सुनते हैं तो सिर्फ़ राम जन्मभूमि और बाबरी मस्ज़िद विवाद के बारे में सुनते हैं. क्या इसके सिवा अयोध्या में कुछ नहीं है?
हम लखनऊ की तरफ़ से नवाबगंज होते हुए अयोध्या की ओर बढ़ रहे थे. कटरा बाज़ार पार करते ही शफ़्फ़ाक रेत की चादरों के बीच बहती सरयू नदी ने हमारा स्वागत किया. एक पतली मगर स्वच्छ धार जो दिल्ली की काली पड़ चुकी यमुना से हज़ार गुना साफ़. एक तरफ़ आस्थावानों के नहाने के लिए घाट और दूसरी तरफ़ दूर तक फ़ैले तट पर बना श्मशान घाट.
आसपास के तमाम ज़िलों के लोग मरने के बाद इसी तट पर लाए जाते हैं और सरयू की धारा में विलीन हो जाते हैं. अयोध्या या पूर्वी यूपी ही क्यों, भारतीय हिंदुओं के लिए क़ब्रिस्तान के मुक़ाबले श्मशान की कोई ज़रूरत नहीं है जिसका ज़िक्र हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने भाषण में किया था. जिस तरह गंगा और सरयू के तट पर समाधि लेने वाले हिंदुओं को श्मशान की ज़रूरत नहीं है, उसी तरह अयोध्या को उस विवाद या झगड़े की ज़रूरत नहीं थी, जिसके कारण वह दुनिया भर में कुख्यात हुआ.
सरयू नदी का पुल पार करते ही हम नए घाट पहुंचे, जिसके एक तरफ़ नहर जैसी एक संरचना दिख रही है और दूसरी तरफ राम कथा पार्क. राम कथा पार्क बंद था. लोगों ने बताया कि यह सुबह खुलता है, यहां कभी कभी कोई कार्यक्रम होता है. यह राम कथा की परंपरा को प्रोत्साहित करने के लिए बनाया गया है, लेकिन वहां सन्नाटा था, उसके दरवाज़े पर ताले लटक रहे थे.
उसके ठीक सामने झुग्गियों की कतार ज़रूर गुलज़ार थी. उन झुग्गियों में रहने के लिए लोग हैं लेकिन उन लोगों के पास राम कथा पार्क जैसी कोई इमारत नहीं है. यह कोई नहीं जानता कि जब राम कथा पार्क में हलचल बढ़ेगी, तब भी ये झुग्गियां वहीं रहेंगी या इन्हें अतिक्रमण मानकर हटा दिया जाएगा.
राम कथा पार्क के ठीक बगल में कोरियाई स्मारक स्थल है. यह कोरिया सरकार के सहयोग से बना है. कोरिया के लोग मानते हैं कि अयोध्या के राजा की पुत्री कोरिया यात्रा पर गई थीं, जिन्होंने वहां के राजकुमार से शादी कर ली. कोरिया में करक साम्राज्य की स्थापना करने वाले किंग सूरो की पत्नी क्वीन हुह की याद में यह स्मारक बनवाया गया है.
हर साल इस स्थल पर एक कोरियाई प्रतिनिधि मंडल आता है. इस स्मारक स्थल पर घास चरती हुई कुछ गायों के अलावा कुछ बच्चे खेल रहे थे. स्मारक के ठीक बगल में सरयू नदी से लगे तट पर झुग्गियां हैं. ये बच्चे इन्हीं झुग्गियों में रहते हैं. एक दुकानदार ने बताया कि जब कोरियाई प्रतिनिधि मंडल आना होता है तब यह जगह खूब साफ सुथरी हो जाती है, बाक़ी साल भर इसमें गायें चरती हैं.
वहां से हम अयोध्या की ओर चले. सूखी हुई राम पैड़ी ने हमारा स्वागत किया, जिसके घाटों पर कचरे का ढेर लगा है. राम घाट, लक्ष्मण घाट, दशरथ घाट की सीढ़ियों पर मलबे और कूढ़े ढेर देखकर आप यह अंदाजा नहीं लगा सकते कि यह कोई विश्व प्रसिद्ध तीर्थस्थल है. राम पैड़ी इतनी सूख गई है कि उसके अंदर कुछ बच्चे क्रिकेट खेल रहे थे. किनारे किनारे गायों का झुंड आराम फ़रमा रहा था.
नहर के बीचोबीच फ़व्वारे की मशीनें बेरोज़गार खड़ी हैं. राम पैड़ी के किनारे मंदिरों की कतार है. इन मंदिरों में से ज्यादातर खंडहर जैसे दिखते हैं. कुछ पूरी तरह खंडहर में तब्दील हो गए हैं जिसमें बंदरों के सिवा कोई नहीं जाता. कई मंदिरों की नालियां राम पैड़ी की तरफ रास्ते पर गिरती हैं. राम पैड़ी की तलहटी में सिर्फ मलबा बचा है जो सूखकर मिट्टी के ढेर में बदल गया है. चार छह मज़दूर उसे फावड़े से खोद रहे थे, कुछ उन्हें डलिया में उठाकर बाहर रख रहे थे. यह मेरे साथ चल रहे सहयोगी ने कहा, इस तरह तो राम पैड़ी 2019 में साफ हो पाएगी.
अयोध्या राज घराने के शैलेंद्र मिश्र ने हमें बताया, ‘अयोध्या उपेक्षा और राजनीति का शिकार हो गया. अन्यथा सरकार को सफाई करने से कौन रोकता है? अब जाकर सरकार की ओर से राम पैड़ी की सफाई की योजना बनी है, लेकिन वह कब हो पाएगी कोई नहीं जानता. अयोध्या में विकास, साफ-सफाई, सौंदर्यीकरण आदि की बातें हर कोई करता है, लेकिन अब तक ऐसा कुछ हुआ नहीं है.’
राम पैड़ी के किनारे खड़े मंदिरों की कतार में एक नागेश्वर नाथ मंदिर भी है, जो हिंदू मान्यता के अनुसार बारह शिवलिंगों में से एक है. यहां हर महीने की त्रयोदशी पर हज़ारों श्रद्धालुओं की भीड़ आती है. जिस दिन हम वहां पर मौजूद थे, उसी के अगले दिन त्रयोदशी यानी तेरस का स्नान था. हज़ारों लोग इसी संकरे रास्ते से आते हैं, जिन्हें रास्ते पर व्यवधान की तरह सजी फूलों की दुकानों से कोई गुरेज नहीं होता.
अयोध्या राजा के महल के सामने से होते हुए हम हनुमान गढ़ी की तरफ बढ़ रहे थे. अयोध्या की सड़कें लखनऊ या इलाहाबाद जैसी चौड़ी नहीं हैं. वे दूसरे किसी छोटे शहर जैसी संकरी हैं, जहां जाम लगना आम बात है.
डॉ. राम मनोहर लोहिया अवध विश्वविद्यालय (फ़ैज़ाबाद विश्वविद्यालय) के प्रो. अनुराग मिश्र ने बातचीत में कहा, ‘अयोध्या भी उतना ही सामान्य शहर है जितना यूपी का कोई दूसरा शहर. बाक़ी शहरों से यह अलग बात है कि राजनीति के लिए अयोध्या का ख़ूब इस्तेमाल हुआ, लेकिन इसके विकास के लिए कुछ नहीं किया गया. यहां पर गाड़ियां बढ़ती जा रही हैं, वैकल्पिक परिवहन की कोई व्यवस्था नहीं है. अयोध्या दिन भर जाम से जूझता है. यह राजनीति के नीयत पर संदेह प्रकट करता है. विकास के नाम पर कुछ भी नहीं किया गया.’
अयोध्या में जो भी इमारतें दिख रही थीं वे ऐसी दिख रही थीं जैसे किसी ने चीथड़े कपड़े पहने हों, जो फटकर इधर-उधर से लटक रहे हों. इस बारे में पूछने साकेत विश्वविद्यालय के प्रो. अनिल कुमार सिंह ने बताया, ‘अयोध्या और राम, ये भारतीय जनमानस में बसते हैं. इन्हें मुद्दा बनाकर लोगों को उकसाया तो गया, राजनीति की गई, लेकिन इस शहर में उतना काम नहीं किया गया, जितना राजनीति करने के लिए भी पर्याप्त होता है. अयोध्या में एक अजीब सी उदासी, निराशा और उजड़ापन है. मंदिरों के नाम पर खंडहर बचे हैं. दो चार मुख्य मंदिरों का रख-रखाव सही से हो पाता है. गलियों में पसरी गंदगी, कूड़े के बिखरे ढेर उस राजनीति की पोल खोलते हैं जिसने अयोध्या को केंद्र में रखकर देश भर की जनता में उन्माद भर दिया.’
हनुमान गढ़ी और उसके आसपास की सड़कों पर दोनों तरफ़ दुकानें हैं. चूड़ियों की दुकानें, सिंदूर और चंदन की दुकानें, मूर्तियों की दुकानें, धार्मिक साहित्य की दुकानें, पूजन सामग्री की दुकानें. अयोध्या होगा अपनी ख्याति में हिंदू तीर्थ, लेकिन मंदिरों में हर जाति के महंत हैं तो सड़कों पर हर जाति धर्म के दुकानदार. यूसुफ मियां की चूड़ियों की दुकान है. वे अपनी बढ़ी दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए कहते हैं, ‘अयोध्या हमारी जन्मभूमि है, हम यहीं पैदा हुए, यहीं बड़े हुए, यहीं पर रोज़ी-रोटी चलती है. हमें तो आज तक कोई परेशानी नहीं है. हमें नहीं पता कि यह हिंदू मुसलमान झगड़ा किसने पैदा किया. यह करने वाले अयोध्या के लोग नहीं हैं.’
अनुराग मिश्र इसकी तस्दीक करते हुए कहते हैं, ‘अयोध्या में राम कथा की एक परंपरा है, नाट्य है, अभिनय है, लोक कलाएं हैं, जिसमें किसी भी तरह की सांप्रदायिकता की कोई चेष्टा नहीं है, उसे आप अयोध्या से अलग नहीं कर सकते. अयोध्या की जो धार्मिकता है वह सिर्फ हिंदू नहीं है. उसमें मुसलमान भी हैं, उसमें तमाम अन्य जातियों के लोग भी हैं. सवर्ण भी हैं और अवर्ण भी. यह बहुत उदार और उदात्त सांस्कृतिक धरातल पर है. हम इसमें से कुछ निकाल करके उसे दूसरा राजनीतिक रंग देते हैं, वह अलग बात है. लेकिन उसका मूलरूप बड़े उदात्त धरातल पर है, जिसके तहत सभी धर्मों और जातियों का साझा है. जैसे रामलीला के विकास में मुग़लों की भी भूमिका रही. वे इसे अनुदान देते थे, बढ़ावा देते थे.’
हनुमान गढ़ी मंदिर के सामने लड्डुओं की कई दर्जन दुकानें हैं, जिनके बीच पहुंचकर देसी घी की गंध सांस में भर जाती है. मंदिर की सीढ़ियों पर डेढ़-दो दर्जन भिखारी बैठे होते हैं. मंदिर के बगल की सड़क खुदी है, उसकी मरम्मत चल रही है. पूरी अयोध्या में कोई नई इमारत या मंदिर नहीं दिखता. पुरानों की मरम्मत नहीं हुई. जो नये निर्माण हुए, वे सब फ़ैज़ाबाद की तरफ हुए.
हनुमान गढ़ी से आप रामजन्म भूमि की ओर चलेंगे तो खंडहरों और उजड़े मंदिरों की उदासी बढ़ जाती है. रामजन्म भूमि के आसपास का इलाका सैनिक सुरक्षा में है. उस घेरे के अंदर और बाहर जहां तक निगाह जाती है, अव्यवस्था खिलखिला कर हंसती हुई दिखती है.
साकेत राजमहल के महंत बाबूराम तिवारी कहते हैं, ‘अयोध्या में रहने वाला हर व्यक्ति जानता है कि नेताओं का हित किसमें है. इसलिए यहां के लोगों ने कभी आपस में झगड़ा नहीं किया. अगर अयोध्या के लोगों से पूछा जाता तो वे यही कहते कि हमें हमारे हाल पर छोड़ दो.’
अयोध्या बनारस या मथुरा जैसी सांस्कृतिक नगरी क्यों नहीं बन पाई, इस सवाल के जवाब में शैलेंद्र मिश्र ने कहा, ‘क्योंकि अयोध्या की उपेक्षा की गई. सबसे बड़ा उदाहरण कोरियाई स्मारक है. अंतरराष्ट्रीय संभावनाओं के बावजूद वह जिस तरह से उपेक्षित पड़ा है, उससे समझा जा सकता है कि अयोध्या के सौंदर्यीकरण में सरकार और नेताओं की कितनी दिलचस्पी है. यहां पर कथिक परंपरा थी, जो कत्थक नृत्य से प्रेरित थी. इसमें प्रस्तोता राम कथा कहते हुए साथ साथ नाचता था और गाता था. इसे सुनने के लिए ख़ूब लोग इकट्ठा होते थे. अब यह ख़त्म हो गई. अयोध्या राम की नगरी है लेकिन यहां पर रावण नहीं जलाया जाता. सावन में झूला की परंपरा है. हस्तशिल्प जैसी चीज़ें भी यहां रही हैं, लेकिन सब धीरे धीरे ख़त्म हो गई. राजनीति की दिलचस्पी सिर्फ़ उस विवादित स्थान में है, जिस पर वे लोगों को लड़ा सकते हैं.’
अयोध्या की संस्कृति पर चर्चा करते हुए अनुराग मिश्र कहते हैं, ‘अयोध्या की संस्कृति हिंदुस्तान की मिली जुली संस्कृति जैसी है. बेग़म अख़्तर यहीं पे हुईं. आज भी उनकी कोठी है. द्विजदेव अयोध्या राज घराने से हैं और ब्रज भाषा के अंतिम महत्वपूर्ण कवियों में से हैं. उर्दू ग़ज़ल की यहां समृद्ध परंपरा रही है. आज के संदर्भ में देखें तो अयोध्या के मंदिर मंस्जिद को लेकर दूसरे शहरों में तनाव रहा होगा, लेकिन अयोध्या की जैसी बुनावट है कि यहां दोनों समुदायों में कभी कोई तनाव नहीं रहा. राजनीति की तरफ से एक प्रोजेक्शन है, जिसने बाक़ी जगहों पर लोगों को उद्वेलित किया होगा, लेकिन अयोध्या इससे आज भी अछूता है. कभी एक दूसरे के त्यौहारों को लेकर कभी असुविधा और तनाव नहीं हुआ.’
अयोध्या के मंदिरों में रहकर पढ़ाई कर चुके शोधकर्ता रमाशंकर सिंह कहते हैं, ‘अयोध्या कोई एक विचारधारा का नाम नहीं है. यहां के मंदिर भी कभी एक धार्मिक या संस्कृतक विचार को ही आगे बढ़ाते रहे हों, ऐसा भी नहीं रहा है. अयोध्या के साधुओं के माथे पर लगे तिलक भी एक जैसे नहीं होते हैं. फिर भी इस नगर को केवल एक ही रंग में रंगने का प्रयास भाजपा करती है. स्थानीय लोग उसकी इस बात से रजामंदी नहीं दिखाते हैं और भाजपा को धूल चटा दिया करते हैं.’
अयोध्या भी उतना ही सामान्य शहर दिखता है जितना यूपी का कोई दूसरा शहर. लेकिन इस शहर में वैसी उजड्डता नहीं दिखती, जैसी दूसरे कस्बों या शहरों में होती है. यहां के आम लोग दूसरे शहरों से अलग हैं कि उनमें एक किस्म की सामूहिक समझदारी दिखती है.
अनुराग मिश्र कहते हैं, ‘राजनीति के लिए अयोध्या का ख़ूब इस्तेमाल हुआ, लेकिन इसके विकास के लिए कुछ नहीं किया गया. यह राजनीति के नीयत पर संदेह प्रकट करता है. विकास के नाम पर कुछ भी नहीं किया गया.’
एक शहर को उसकी धार्मिकता को लेकर जितना उन्माद फैला, उस शहर को कम से कम देखने लायक भी क्यों नहीं बनाया गया, इसके जवाब में प्रो. महेंद्र पाठक कहते हैं, ‘अयोध्या को राजनीति ने बर्बाद कर दिया. अयोध्या का सौहार्द, अयोध्या की संस्कृति, अयोध्या के विद्यालय, अयोध्या की शिक्षा सबको जानबूझ कर बर्बाद किया गया. आज यहां के मंदिरों में 80 प्रतिशत अपराधी महंत बन बैठे हैं और रही सही कसर राजनीति ने पूरी कर दी है.’
हालांकि, अयोध्या सिर्फ वह अयोध्या नहीं है जो कुछ लंपटबयानियों में हम सुनते रहते हैं. अयोध्या एक ऐसी समावेशी, उदार धार्मिक संस्कृत का नाम है, जिस पर राजनीति का ग्रहण लग गया.
रमाशंकर सिंह कहते हैं, ‘अयोध्या में ढेर सारे मंदिर हैं. कहते हैं संन्यासी की जाति नहीं होती और साधू का कोई बेटा नहीं होता है लेकिन अयोध्या में बने हुए विभिन्न जातियों के पंचायती मंदिर अलग कहानी कहते हैं. इन मंदिरों के महंतों का अलग अलग रानीतिक झुकाव है. यहां तक वे मंदिर जो कोरियों, पासियों, खाटिकों ने बनवाए हैं, वे अपना रुझान पार्टी विशेष की तरफ़ रखते हैं. अगर आप अयोध्या के मंदिरों में ही घूम डालें, जिनकी संख्या 5000 से ज्यादा बताई जाती है, तो जो राजनीतिक सच्चाई पता चलती है, वह उस सच्चाई से अलग है जिसमें अयोध्या को भगवा रंग वाला नगर घोषित करने का प्रयास किया जाता रहा है.’