आज की तारीख़ में कांवड़ शिवत्व नहीं हिंदुत्व से ओतप्रोत हैं

कुछ साल पहले दिल्ली में कांवड़िए तिरंगा लेकर चलने लगे. वह त्रिलोक के स्वामी शिव का राष्ट्रवादीकरण था. तब से अब तक काफ़ी तरक्की हो गई है. यह शिवभक्तों की ही नहीं, उनके आराध्य की भी राष्ट्रवाद से हिंदुत्व तक की यात्रा है.

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(प्रतीकात्मक फोटो: रॉयटर्स)

कुछ साल पहले दिल्ली में कांवड़िए तिरंगा लेकर चलने लगे. वह त्रिलोक के स्वामी शिव का राष्ट्रवादीकरण था. तब से अब तक काफ़ी तरक्की हो गई है. यह शिवभक्तों की ही नहीं, उनके आराध्य की भी राष्ट्रवाद से हिंदुत्व तक की यात्रा है.

(प्रतीकात्मक फोटो: रॉयटर्स)

कांवड़ बुलडोज़र! ख़बर का शीर्षक है: ‘बुलडोज़र के साइज़ की कांवड़ के जरिये मेरठ के हिंदू-मुसलमान ‘विभाजनकारी राजनीति’ के खिलाफ संदेश देना चाहते हैं.’ शीर्षक लगाने वाले संपादक की असंवेदनशीलता पर क्या तकलीफ भर होनी चाहिए?

बुलडोज़र का भारत के मुसलमानों के लिए क्या अर्थ है, क्या इस पर अब कोई बात करने की जरूरत रह गई है? शीर्षक के आगे जो ख़बर है उससे यह नहीं मालूम होता कि कांवड़ को बुलडोज़र की शक्ल देने पर मुसलमानों की क्या राय है?

ख़बर के साथ एक तस्वीर है जिसमें एक टोपी पहने हुए नौजवान कांवड़ बनाने में लगा है. ख़बरची ने उससे बात की हो, इसका कोई सबूत नहीं. ख़बर में ‘ओम शिव महाकाल सेवा समिति’ के संस्थापक का बयान है कि अपराधियों और दो समुदायों के बीच खाई पैदा करने वालों को सबक सिखाने के लिए यह बुलडोजर एक ताकतवर प्रतीक बन गया है. इस नए समय का अभिनंदन करने के लिए यह विशालकाय बुलडोज़र कांवड़ बनाई जा रही है.

ख़बर मुसलमानों और हिंदुओं, यहां तक कि समाजवादी पार्टी के नेताओं के हवाले से बताती है कि सावन के महीने में शिव, शंकर, भोलेबाबा, बमभोले को अर्पित किया जाने वाला जल जिस कांवड़ में ले जाया जाता है, उसे हिंदू मुसलमान मिलकर बनाते रहे हैं. मुसलमान यह पैसे के लिए नहीं करते.

यह कोई ख़बर नहीं है. हम जानते हैं कि रावण का पुतला, राम का मुकुट, हिंदू विवाह के लिए अभी भी कई जगह अनिवार्य मानी जाने वाली बनारसी साड़ी मुसलमान बनाते रहे हैं. इससे रावण की हत्या को अपने जीवन का एकमात्र लक्ष्य मानने वाले रामभक्तों के मन में मुसलमानों के लिए सद्भाव पैदा होते नहीं देखा. इन सारी सूचनाओं के कारण मुसलमान विरोधी हिंसा में कोई कमी नहीं आई.

यह कुछ वैसा ही है जैसे एक आम भारतीय गांव कि समरसता की महिमा गाते हुए बतलाया जाता है कि उच्च वर्ण के घरों में विवाह जैसे अवसर पर दौरा तो दलित जाति के लोग ही बनाते हैं. वे ऐसा हजारों सालों से करते आए हैं लेकिन उससे गांवों में दलितों की हत्या, उनसे बलात्कार, उन पर अत्याचार, उनके खिलाफ हिंसा में क्या कोई फर्क पड़ा है?

ऐसा प्रतीत होता है कि उच्च वर्ण हिंदू समाज, और उसमें अन्य जातियां भी शामिल हो सकती हैं, सद्भाव को भी अपना अधिकार मानता है और दूसरों का कर्तव्य. इससे उसके हिंसा और घृणा के अधिकार पर कोई असर नहीं पड़ना चाहिए, यह उसके दिमाग में साफ है. वह मानता और कहता है कि हिंसा करना हमारा स्वभाव है और जन्मसिद्ध अधिकार. उसे तुम्हारा सद्भाव समाप्त नहीं कर सकता.

हिंदुओं के एक तबके के इस धार्मिक अवसर पर सांप्रदायिक सद्भाव की इस ख़बर को और पुख्ता बनाने के लिए संवाददाता ने गुजरी बकरीद को शहर काज़ी के खुतबे के हवाले से बतलाया है कि उन्होंने नफ़रत की आग को एक दूसरे के लिए ऐहतराम के पानी से बुझा देने का आह्वान किया.

गोयाकि यह बात इस वक्त के हिंदुस्तान में मुसलमानों को बताने की ज़रूरत है! फिर भी समुदायों में परस्पर सम्मान का विचार कभी भी असामयिक नहीं होता. जो समुदाय घृणा और हिंसा का शिकार हो उसमें भी सद्भाव का भाव जीवित रहना चाहिए. उसे उस समुदाय के प्रति भी सौहार्द रखना चाहिए जो उस पर हिंसा कर रहा है या उस पर हिंसा होते हुए आनंदित हो रहा है या उदासीन है.

कांवड़ यात्रा आरंभ होने के अवसर पर सांप्रदायिक बंधुत्व का ऐसा ही संदेश किसी हिंदू पुरोहित, धार्मिक नेता ने दिया हो, समाचार यह नहीं बताता. इससे आप यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि सामाजिक सद्भाव के विचार या उसकी भावना की हिंदुओं को आवश्यकता ही नहीं है. या हिंदू होने मात्र से उनमें ये गुण आ जाते हैं इसलिए उन्हें अलग से इसके बारे में कुछ उपदेश देने की ज़रूरत नहीं. या यह भी कि यह उनका कर्तव्य नहीं है. जिसका है, वह उसे खोजे या पैदा करे!

भारतीय जनता पार्टी के एक नेता का बयान है कि इस पवित्र अवसर पर मुसलमान गोश्त की जगह सोया डालकर बिरयानी बनाते हैं. ऐसा वे स्वेच्छा से करते हैं. इससे पता चलता है कि समाज में कितना भाईचारा है. लेकिन उसके ठीक पहले समाजवादी पार्टी के नेता का बयान है कि सरकार ने इस मौके पर मांस की बिक्री पर पाबंदी लगा दी है. यह तो ज़बरदस्ती है. लेकिन इसका विरोध अब मुसलमान कर पाए, ऐसा भारत रह नहीं गया है.

और आचारवान हिंदू का अर्थ है एक ऐसा हिंदू जो अपने आचार का पालन स्वयं जितना करे उससे अधिक दूसरों से करवाता है. जितना दूसरों से बलपूर्वक वह हिंदू आचार का पालन करवाएगा, उतना ही पुण्य उसे होगा.

इसलिए सावन में मांस की बिक्री रोकने की राजकीय आज्ञा सांप्रदायिक सद्भाव पैदा करने की सरकारी या राजकीय प्रेरणा ही माना जाना चाहिए. उससे हिंदुओं को दोगुना पुण्य लाभ होगा और मुसलमान को भी सदाचारी बनाया जा सकेगा.

इन सारी बातों से अलग इस बुलडोज़र कांवड़ की खासियत बताई गई है कि वह 15 फ़ीट लंबी है और 75 किलो की है. इसे लगभग 45,000 रुपये की लागत से बनाया जा रहा है. उसे एक सुसज्जित ट्रक में हरिद्वार ले जाया जाएगा और वहां से उस पर पवित्र गंगा जल लाया जाएगा.

कांवड़ को हम कांवड़ियों के कंधों पर देखने के आदी हैं, ट्रक पर नहीं. शिव को प्रसन्न करने के लिए शरीर को कुछ कष्ट देना आवश्यक माना जाता है. वह एक प्रकार की लघु तपस्या है. शंकर तक पहुंचने के लिए एक सांस में बिना रुके दौड़ते हुए कांवड़ियों को देखा है. भूमि पर साष्टांग, दंडवत करके दूरी तय करते हुए कांवड़ियों को देखते आश्चर्य की याद है. रास्ता नंगे पांव तय करने के बाद तलवों में पड़े छालों पर कई कई दिनों तक मरहम लगाया जाता था. वह उन बम बंधुओं और शिव के बीच का मामला था.

लेकिन अब हिंदू भाव बदल रहा है. अब बम शिवत्व नहीं हिंदुत्व से ओतप्रोत है. इसलिए उसमें शिव वाली निश्छल प्रसन्नता, खुलापन, उदारता नहीं. वह हिंसा आपूरित राष्ट्रवादी धर्म का संवाहक है. उसकी कांवड़ में जो गंगा जल है, उसकी पवित्रता की प्रतियोगिता अब कांवड़ के आकार की विशालता और भयावहता के भावों से हो रही है.

कुछ वर्ष पहले दिल्ली में देखा था कांवड़िए तिरंगा लेकर चलने लगे. वह त्रिलोक के स्वामी शिव का राष्ट्रवादीकरण था. तब से अब तक काफी तरक्की हो गई है. वह शिवभक्तों की ही नहीं, उनके अनुसार उनके आराध्य की भी राष्ट्रवाद से हिंदुत्व की यात्रा है.

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)