स्मृति शेष: ऐसे समय में जब भारतीय इतिहास और संस्कृति की बहुलता को एकांगी बना देने के लिए पूरा ज़ोर लगाया जा रहा हो और जब ‘वन नेशन’ जैसे नारों को उछालकर देश की वैविध्यपूर्ण संस्कृति को समरूप बनाने के प्रयास हो रहे हों, बीडी चट्टोपाध्याय सरीखे इतिहासकारों का कृतित्व और भी प्रासंगिक हो उठता है.
पूर्व मध्यकालीन भारत के इतिहासलेखन को अपनी विचारोत्तेजक कृतियों से समृद्ध करने वाले इतिहासकार ब्रजदुलाल चट्टोपाध्याय का 13 जुलाई, 2022 को निधन हो गया. ‘द मेकिंग ऑफ अर्ली मेडिवल इंडिया’, ‘द कॉन्सेप्ट ऑफ भारतवर्ष’ जैसी चर्चित कृतियों के लेखक ब्रजदुलाल चट्टोपाध्याय ने भारत की संकल्पना, दक्षिण भारत में मुद्राओं के प्रचलन और मौद्रिक व्यवस्था, पूर्व मध्यकालीन भारत के ग्रामीण समाज, इतिहास और पुरातत्त्व जैसे महत्वपूर्ण विषयों पर अनेक पुस्तकें लिखीं.
अकादमिक यात्रा
वर्ष 1939 में पैदा हुए इतिहासकार बीडी चट्टोपाध्याय ने कलकत्ता विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा हासिल की और वर्ष 1969 में कैंब्रिज यूनिवर्सिटी से पीएचडी की उपाधि प्राप्त की. वहां ब्रिटिश पुरातत्त्ववेत्ता और भारतविद एफआर एलचिन उनके शोध-निर्देशक रहे.
उन्होंने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के सेंटर फॉर हिस्टॉरिकल स्टडीज़ में लंबे समय तक अध्यापन किया, जहां से वे वर्ष 2004 में सेवानिवृत्त हुए. उन्होंने बर्दवान विश्वविद्यालय और विश्वभारती, शांतिनिकेतन में भी अध्यापन किया. इसके साथ ही, वे शिमला स्थित भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिकागो यूनिवर्सिटी, हिदेलबर्ग यूनिवर्सिटी में भी फेलो रहे.
‘पूर्व मध्यकालीन भारत’ की अवधारणा और इतिहास
वर्ष 1994 में प्रकाशित हुई अपनी अत्यंत महत्वपूर्ण पुस्तक ‘द मेकिंग ऑफ अर्ली मेडिवल इंडिया’ में बीडी चट्टोपाध्याय ने भारतीय इतिहास के संदर्भ में प्रयुक्त होने वाले कालखंडों और उनकी सीमाओं के संदर्भ में कुछ मौलिक स्थापनाएं दीं. प्राचीन काल से मध्यकाल में संक्रमण की प्रक्रिया को समझने के साथ-साथ वे ‘प्राचीन’ और ‘मध्यकाल’ की अवधारणा, उनकी कालगत विशेषताओं और तत्संबंधी आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक संरचनाओं की भी चर्चा करते हैं.
इस क्रम में वे पूर्व मध्यकालीन राजस्थान की सिंचाई व्यवस्था, राजपूतों की उत्पत्ति, राजस्थान के बाज़ार और व्यापारियों के इतिहास की भी चर्चा करते हैं. साथ ही, पूर्व मध्यकालीन उत्तर भारत में व्यापार के विकास और नगरीय केंद्रों के उदय पर भी प्रकाश डालते हैं.
बीडी चट्टोपाध्याय ने न केवल डीडी कोसंबी के लेखों का संपादन किया, जो ‘कंबाइंड मेथड्स इन इंडोलॉजी एंड अदर राइटिंग्स’ शीर्षक से पुस्तक रूप में प्रकाशित हुई. बल्कि वे ख़ुद भी डीडी कोसंबी द्वारा प्राचीन भारत के इतिहासलेखन हेतु विकसित की गई ‘कंबाइंड मेथड्स’ की इस पद्धति में विश्वास रखते थे.
उल्लेखनीय है कि कोसंबी ने ‘जीवंत प्रागैतिहास’ (लिविंग प्री-हिस्ट्री) की अवधारणा विकसित की थी, जिसके अंतर्गत कोसंबी ने कहा था कि अतीत के बहुविध अर्थ हमारे सामने तभी प्रकट हो सकेंगे, जब हम जीवंत सामाजिक व्यवस्थाओं और समुदायों का भी साथ ही साथ विश्लेषण और अध्ययन करें.
बीडी चट्टोपाध्याय लिखते हैं कि ‘जीवंत प्रागैतिहास’ की यह अवधारणा अब भी प्रासंगिक है.’ इस प्रविधि का इस्तेमाल उन्होंने ‘स्टडीइंग अर्ली इंडिया’ में प्रकाशित अपने उन लेखों में बख़ूबी किया है, जिनमें वे पुरातत्व, पाठ (टेक्स्ट) के साथ-साथ ऐतिहासिक-भौगोलिक परिप्रेक्ष्य और तुलनात्मक इतिहास जैसे विविध विषयों के बारे में गहराई से विचार करते हैं.
आर्थिक इतिहास के विविध पक्ष
ऐतिहासिक-सामाजिक प्रक्रियाओं के गहन विश्लेषण के क्रम में बीडी चट्टोपाध्याय ने आर्थिक संरचनाओं को भी विश्लेषित किया. मसलन, वर्ष 1985 में कोलकाता स्थित सेंटर फॉर स्टडीज़ इन सोशल साइंसेज़ द्वारा आयोजित सखाराम गणेश देउसकर व्याख्यानमाला के अंतर्गत बीडी चट्टोपाध्याय ने पूर्व मध्यकालीन भारत के ग्रामीण समाज की बसावट और उसकी आर्थिक-सामाजिक दशा को विवेचित किया. इसके लिए उन्होंने बंगाल, मारवाड़ और कर्नाटक के गांवों को अपना आधार बनाया.
यही नहीं, उन्होंने भारतीय इतिहास कांग्रेस के विभिन्न वार्षिक अधिवेशनों में प्राचीन भारत के आर्थिक इतिहास के बारे में प्रस्तुत किए गए लेखों का एक संकलन संपादित किया, जो ‘एस्सेज इन एंशिएंट इंडियन इकनॉमिक हिस्ट्री’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ. इस पुस्तक में आदिकालीन भारतीय अर्थव्यवस्था और उसके तनावों, सामाजिक-आर्थिक बदलावों के आरंभिक पैटर्न, भूमि, कृषि, अधिशेष और श्रम व्यवस्था, हस्तशिल्प और दस्तकार, व्यापार, मुद्रा और व्यापारिक समूह जैसे विविध विषयों पर विस्तार से लिखा गया था.
मुद्राओं और मौद्रिक व्यवस्था के इतिहास में भी उनकी गहरी रुचि थी. अकारण नहीं कि उन्होंने दूसरी सदी से लेकर तेरहवीं सदी के आख़िर तक दक्षिण भारत में प्रचलित मुद्राओं और मौद्रिक व्यवस्था का इतिहास अपनी पुस्तक ‘कॉइंस एंड करेंसी सिस्टम्स इन साउथ इंडिया’ में किया, जो वर्ष 1977 में प्रकाशित हुई.
उनकी पीएचडी के शोधग्रंथ पर आधारित इस पुस्तक में उन्होंने दक्षिण भारत के राजवंशों जैसे चालुक्य, पल्लव, कलचुरी, चोल, चेर, पांड्य, होयसल आदि द्वारा जारी किए गए सिक्कों और उनकी मौद्रिक व्यवस्था का गहन अध्ययन प्रस्तुत किया.
संस्कृत ग्रंथों में मुस्लिमों का प्रस्तुतीकरण
आठवीं से चौदहवीं सदी के दौरान संस्कृत में लिखे गए विभिन्न ग्रंथों में मुस्लिमों को किस तरह से प्रस्तुत किया गया, इसका दिलचस्प अध्ययन बीडी चट्टोपाध्याय ने वर्ष 1998 में छपी अपनी पुस्तक ‘रिप्रेजेंटिंग द अदर?’ में किया है.
वे संस्कृत के इन ग्रंथों में मुस्लिमों के लिए प्रयुक्त होने वाले शब्दों जैसे ‘पारसीक’, ‘ताजिक’, ‘म्लेच्छ’, ‘यवन’, ‘तुरुष्क’ आदि के उद्भव और समय के साथ उनके बदलते हुए अर्थों का ज़िक्र करते हैं.
इसके लिए वे अभिलेखों, ताम्रपत्रों, अनुदानों के साथ-साथ जयानक कृत ‘पृथ्वीराजविजय’, जयसिंह सूरि कृत ‘हम्मीरमदमर्दन’, गंगा देवी विरचित ‘मदुरा विजय’, रुद्रकवि कृत ‘राष्ट्रौढवंश महाकाव्यम्’, अच्युतदेव राय के दरबारी कवि राजनाथ डिंडिम द्वारा रचित ‘सालुवाभ्युदयम्’, नयचंद्रसूरि कृत ‘हम्मीर महाकाव्य’, सिद्धिचन्द्र उपाध्याय रचित ‘भानुचंद्रगणिचरित’ जैसे ग्रंथों का इस्तेमाल करते हैं और दिखाते हैं कि इन ग्रंथों और अभिलेखों में मुस्लिमों को कैसे प्रस्तुत किया गया, आक्रांता और शासक के रूप में कैसे उनकी छवियां गढ़ी गईं.
उल्लेखनीय है कि यह महत्वपूर्ण पुस्तक बीडी चट्टोपाध्याय ने हिंदुस्तानी संगीत के दिग्गजों- अब्दुल करीम ख़ान, अलाउद्दीन खान, बुंदू खान, फ़ैयाज़ खान और सवाई गंधर्व को समर्पित की है. आज के समय में उनकी यह किताब अत्यंत प्रासंगिक हो उठी है.
भारत की संकल्पना
अपनी एक अन्य महत्वपूर्ण पुस्तक ‘द कॉन्सेप्ट ऑफ भारतवर्ष’ में बीडी चट्टोपाध्याय ने भारत से जुड़ी वैचारिक संकल्पनाओं और इतिहासलेखन का गहन विश्लेषण किया. बीडी चट्टोपाध्याय ने इतिहास से जुड़ी उस भ्रामक समझ के दोष को भी इंगित किया, जिसके अंतर्गत हम मान लेते हैं कि आज जिस रूप में हम भारत को देख रहे हैं, अतीत में हमारे पूर्वजों ने भी भारत देश को ठीक उसी रूप में देखा और समझा था.
इस संदर्भ में, उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि एक भौगोलिक सांस्कृतिक धारणा के रूप में भारतवर्ष इतिहास में बार-बार परिभाषित और पुनर्परिभाषित होता रहा है. इसके साथ ही भारतवासी होने की सामुदायिक संवेदना के बारे में भी उनका कहना था कि यह संवेदना कोई प्रदत्त या नैसर्गिक गुण नहीं हैं, बल्कि यह इतिहासक्रम में अर्जित किया गया है और इसमें समय-समय पर बदलाव होते रहते हैं.
भारत से जुड़ी धारणाओं और इतिहासलेखन की चर्चा करते हुए उन्होंने राधाकुमुद मुखर्जी द्वारा वर्ष 1914 में लिखी गई किताब ‘द फंडामेंटल यूनिटी ऑफ इंडिया’ की सीमाओं को भी रेखांकित किया. उनके अनुसार, राधाकुमुद मुखर्जी ‘राष्ट्रीय एकता’ की धारणा को सुदूर अतीत में थोपने का उपक्रम करते हैं. ज्ञान यह उपक्रम उस उपनिवेशवादी संकल्पना को स्वीकार करता था, जिसमें भारत को एक ऐसी क्षेत्रीय, शासकीय इकाई के रूप में दर्शाया जाता, जिसे प्रशासनिक दृष्टि से अन्य क्षेत्रों से अलग कर देखा जा सकता था.
भारत की अवधारणा के अध्ययन के लिए उन्होंने ब्राह्मण ग्रंथों जैसे ऐतरेय, शतपथ ब्राह्मण आदि को चुना, वहीं बौद्ध ग्रंथों में उल्लिखित जंबूद्वीप जैसे भौगोलिक-सांस्कृतिक संदर्भों को विश्लेषित किया. यही नहीं, उन्होंने विष्णु पुराण, कालिदास कृत रघुवंशम और राजशेखर कृत काव्यमीमांसा में आए संदर्भों का भी विवेचन किया.
पुराणों और महाकाव्यों के संदर्भ में उनकी टिप्पणी है कि ‘पुराणों में आए भारतवर्ष के विवरण वंशावलियों से अनिवार्य रूप से जुड़े हुए हैं.’
विविधता और एकता के प्रश्न
वर्ष 2014 में भारतीय इतिहास कांग्रेस के 75वें वार्षिक अधिवेशन में दिए गए अपने अध्यक्षीय भाषण में बीडी चट्टोपाध्याय ने विविधता और एकता के महत्वपूर्ण सवाल को उठाया. इस व्याख्यान में उन्होंने भारत के संदर्भ में अक्सर इस्तेमाल किए जाने वाले विचार ‘विविधता में एकता’ के बारे में कुछ महत्वपूर्ण सवाल उठाए.
मसलन, ‘विविधता में एकता’ की संकल्पना में ‘एकता’ से क्या अभिप्राय है और विविधता के बरअक्स उसकी सीमाएं क्या हैं? एकता की इस संकल्पना में विविधता की संरचनाओं के लिए कितना स्थान बचता है और अतीत में इन विविधताओं को कैसे देखा-समझा गया?
इन प्रश्नों के उत्तर तलाशने के क्रम में वे प्राचीन ग्रंथों का विश्लेषण करते हैं, जिसमें धार्मिक और लौकिक दोनों ही ग्रंथों को वे विश्लेषण की कसौटी पर परखते हैं. जिसमें धर्मसूत्र, पुराण, स्मृति-ग्रंथों के साथ-साथ अर्थशास्त्र, नाट्यशास्त्र, कामसूत्र, प्रबोधचंद्रोदय, मत्तविलासप्रहसन जैसे ग्रंथ भी शामिल हैं.
प्राचीन भारत में विविधता और भिन्नता की संकल्पना का विवेचन करते हुए बीडी चट्टोपाध्याय राजशेखर कृत ‘काव्यमीमांसा’ के हवाले से प्रवृत्ति (वेष-विन्यास-क्रम), वृत्ति (नृत्य-गीत-कलाविलास-पद्धति) और रीति (वचन-विन्यास-पद्धति) की भी चर्चा करते हैं. इसी क्रम में, वे ‘विविधता में एकता’ की अवधारणा पर रवींद्रनाथ टैगोर और डीडी कोसंबी के विचारों का भी गहन विवेचन करते हैं.
टैगोर के बहुचर्चित लेख ‘भारतवर्षेर इतिहास’ का ज़िक्र करते हुए बीडी चट्टोपाध्याय ने लिखा कि एकता की बात करते हुए टैगोर ने उसे एक ‘संधान’ या खोज की यात्रा के रूप में देखा, एक अनवरत तलाश की प्रक्रिया, जो निरंतर चल रही है.
अकारण नहीं कि बीडी चट्टोपाध्याय ने भी एकता के विचार को अंतःक्रिया की प्रक्रिया के रूप में देखा, जिसमें विभिन्न स्थानीय और क्षेत्रीय संस्कृतियों के बीच संवाद की प्रक्रिया निरंतर जारी है. उनका स्पष्ट मानना था कि एकता का मतलब ऐसी समरूपता नहीं है, जिसमें असहमति, अंतर्विरोध और विविधता के लिए जगह न हो. कारण कि ऐसी समरूपता की आकांक्षा भारतीय सभ्यता और संस्कृति के लिए विनाशकारी सिद्ध होगी.
ऐसे समय में जब असहमति की आवाज़ों को दिन-प्रतिदिन कुचला जा रहा है, भारतीय लोकतंत्र में विविधता के लिए स्थान पहले से सीमित होता जा रहा है, भारतीय इतिहास और संस्कृति की बहुलता को एकांगी बना देने के लिए पूरा ज़ोर लगाया जा रहा हो और जब ‘वन नेशन’ जैसे नारों को उछालकर भारत की वैविध्यपूर्ण संस्कृति को समरूप बनाने और ख़ास सांचे में ढालने के प्रयास किए जा रहे हों, बीडी चट्टोपाध्याय सरीखे इतिहासकारों का कृतित्व और भी प्रासंगिक हो उठता है.
(लेखक बलिया के सतीश चंद्र कॉलेज में पढ़ाते हैं.)