एससी/एसटी के ख़िलाफ़ ऑनलाइन अपमानजनक टिप्पणी पर लागू होगा संबंधित क़ानून: हाईकोर्ट

अनुसूचित जाति/जनजाति अधिनियम लागू करने के लिए कथित आपत्तिजनक टिप्पणी 'सार्वजनिक तौर' पर और पीड़ित की उपस्थिति में की जानी चाहिए. हालांकि केरल हाईकोर्ट ने कहा कि डिजिटल युग में डिजिटल जगहें भी सार्वजनिक स्थान हैं और भौतिक उपस्थिति में ऑनलाइन मौजूदगी शामिल है.

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केरल हाईकोर्ट. (फोटो साभार: विकिमीडिया कॉमंस)

अनुसूचित जाति/जनजाति अधिनियम लागू करने के लिए कथित आपत्तिजनक टिप्पणी ‘सार्वजनिक तौर’ पर और पीड़ित की उपस्थिति में की जानी चाहिए. हालांकि केरल हाईकोर्ट ने कहा कि डिजिटल युग में डिजिटल जगहें भी सार्वजनिक स्थान हैं और भौतिक उपस्थिति में ऑनलाइन मौजूदगी शामिल है.

केरल हाईकोर्ट. (फोटो साभार: विकिमीडिया कॉमंस)

कोच्चि: केरल उच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया है कि अनुसूचित जाति (एससी) या अनुसूचित जनजाति (एसटी) के किसी व्यक्ति के खिलाफ ऑनलाइन की गई अपमानजनक टिप्पणी करने पर एससी/एसटी अधिनियम के प्रावधान लागू होंगे.

अदालत ने कहा कि जैसा कि डिजिटल युग में हो रहा है कि हर बार जब पीड़ित की अपमानजनक सामग्री तक पहुंच होती है तो यह माना जाएगा कि आपत्तिजनक टिप्पणी उसकी उपस्थिति में की गई थी.

उच्च न्यायालय ने एक यूट्यूबर की अग्रिम जमानत याचिका को खारिज करते हुए यह फैसला दिया, जिसने एसटी समुदाय की एक महिला के खिलाफ उसके पति और ससुर के एक साक्षात्कार के दौरान कथित तौर पर अपमानजनक टिप्पणी की थी, जिसे यूट्यूब और फेसबुक जैसी सोशल मीडिया मंचों पर अपलोड किया गया था.

गिरफ्तारी के डर से यूट्यूबर ने अग्रिम जमानत की मांग करते हुए अदालत का रुख किया था. आरोपी ने तर्क दिया था कि पीड़िता साक्षात्कार के दौरान मौजूद नहीं थी, और इसलिए एससी/एसटी अधिनियम के प्रावधान लागू नहीं होते हैं.

याचिका का विरोध करते हुए अभियोजन पक्ष ने तर्क दिया था कि डिजिटल युग में, यह कहना कि पीड़ित को उपस्थित होना चाहिए, विसंगतिपूर्ण नतीजा देगा और यदि इस तरह के तर्क को अपनाया गया तो कानून बेमानी हो जाएगा.

पीड़ित के वकील ने यह कहते हुए याचिका का विरोध किया कि साक्षात्कार के लिखित पाठ का अवलोकन ही इस बात को मानने के लिए पर्याप्त है कि आरोपी जानबूझकर सार्वजनिक रूप से एक अनुसूचित जनजाति के सदस्य का अपमान कर रहा है.

बार एंड बेंच के अनुसार, अदालत ने इस पहलू पर भी गौर किया कि ‘चल रहे क़ानून के सिद्धांत’ को लागू किया जाना चाहिए और चूंकि विचाराधीन वीडियो अभी भी सोशल मीडिया पर उपलब्ध है और कोई भी इसे आसानी से एक्सेस कर सकता है, इसका मतलब है कि इस ब्रॉडकास्ट/टेलीकास्ट में पीड़ित और जनता की मौजूदगी है.

कोर्ट ने कहा, ‘इंटरनेट के आने से पहले किसी बंद जगह के भीतर दिए  गए भाषण को केवल वहां मौजूद लोगों द्वारा ही सुना या देखा जा सकता था. हालांकि, इंटरनेट आने के बाद से इस पर अपलोड की गई सामग्री को जनता के किसी भी सदस्य द्वारा किसी भी समय देखा या सुना जा सकता है, जैसे कि वे इसे उसी समय देख या सुन रहे हों, न केवल जब इसे प्रसारित किया गया था, बल्कि तब भी जब प्रोग्राम (इंटरनेट के जरिये) एक्सेस किया जाता है. हर बार जब कोई व्यक्ति अपलोड किए गए कार्यक्रम तक पहुंचता है, तो वह सामग्री के प्रसारण में प्रत्यक्ष या रचनात्मक रूप से मौजूद माना जाता है.

हाईकोर्ट ने ई. कृष्ण नयनार के मामले का हवाला देते हुए कहा कि किसी व्यक्ति की उपस्थिति में उनका डिजिटल या ऑनलाइन तौर पर मौजूद होना भी शामिल होता है.

सभी पक्षों को सुनने के बाद, अदालत ने कहा कि साक्षात्कार के बयानों का अवलोकन कई मौकों पर ‘अपमानजनक’ शब्दों के इस्तेमाल का संकेत देता है और आरोपी ने पीड़ित को ‘एसटी’ के रूप में भी संदर्भित किया, जिससे पता चलता है कि वह जानता था कि वह एक अनुसूचित जनजाति की सदस्य है.

न्यायालय ने अंतरिम जमानत याचिका ख़ारिज करते हुए कहा, ‘इस प्रकार, साक्षात्कार में याचिकाकर्ता द्वारा इस्तेमाल किए गए शब्द प्रथमदृष्टया अपमानजनक हैं.’

(समाचार एजेंसी भाषा से इनपुट के साथ)

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