अज्ञेय: ‘लेखक, विद्रोही, सैनिक, प्रेमी’

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: अज्ञेय के लिए स्वतंत्रता और स्वाभिमान ऐसे मूल्य थे जिन पर उन्होंने कभी समझौता नहीं किया. अक्षय मुकुल की लिखी उनकी जीवनी इस धारणा का सत्यापन करती है.

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अज्ञेय. (पोस्टर साभार: शिराज़ हुसैन/ख़्वाब तनहा कलेक्टिव)

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: अज्ञेय के लिए स्वतंत्रता और स्वाभिमान ऐसे मूल्य थे जिन पर उन्होंने कभी समझौता नहीं किया. अक्षय मुकुल की लिखी उनकी जीवनी इस धारणा का सत्यापन करती है.

अज्ञेय. (पोस्टर साभार: शिराज़ हुसैन/ख़्वाब तनहा कलेक्टिव)

अज्ञेय के कई जीवनों को समेटते-सहजते हुए लिखी गई बृहद जीवनी को जीवनीकार अक्षय मुकुल ने नाम दिया है: ‘राइटर, रेबेल, सोल्‍जर लवर: द मैनी लाइव्ज़ ऑफ अज्ञेय’. इसे प्रकाशित किया है विंटेज ने जो पेंगुइन समूह में शामिल है. जीवनी विशाल सिर्फ़ इसलिए नहीं है कि वह एक मूर्धन्य साहित्यकार की कई ज़िंदगियों की तथ्यपुष्ट संदर्भ-युक्त कथा कहती है: वह विशाल आकार में भी है- बड़े आकार के 565 पृष्ठ में जीवनी और 200 से अधिक पृष्ठों में संदर्भ सामग्री.

मुझे लगता है कि यह किसी हिन्दी साहित्यकार की सबसे सुशोधित जीवनी है. व्यापक भारतीय साहित्य में भी शायद ही किसी साहित्यकार की ऐसी विशाल जीवनी लिखी गई हो. अक्षय मुकुल ने इसे लिखने में कई वर्ष बिताए हैं और प्रामाणिक तथ्यों और संदर्भों की खोज में संसार भर से सभी संभव स्रोतों को खोजा-खंगाला है.

हिन्दी में ऐसा सुशोधन और अध्यवसाय सिरे से दुर्लभ है. बहुत थोड़ी जीवनियां प्रामाणिकता और विस्तार, ब्यौरों और तथ्यों के सम्यक अंकन के आधार पर खरी उतरेंगी. पता चला है कि इस विशाल जीवनी का हिन्दी अनुवाद पेंगुइन ही प्रकाशित करने जा रहा है.

लगभग चार दशक तक आधुनिक हिन्दी साहित्य में अज्ञेय का वर्चस्व रहा. अपने जीवनकाल में वे हिन्दी के सबसे विवादास्पद लेखक थे. उनके निजी जीवन को लेकर अनेक अफ़वाहें लगातार फैलती-फैलाई जाती रहीं. अक्षय इन अफ़वाहों से अनजान न रहे होंगे. पर उन्होंने बहुत वस्तुनिष्ठ ढंग से संदर्भों और दस्तावेज़ों का सहारा लेकर यह जीवन-गाथा कही है. उनका आख्यान एक पठनीय उपन्यास की तरह चलता है और लगभग कहीं भी उसमें ऊब का मुक़ाम या झोल नहीं है.

(साभार: पेंगुइन रैंडम हाउस)

अज्ञेय का एक और अल्पज्ञात प्रेम-संबंध कृपा सेन से शायद अक्षय की ही खोज है और इसलिए भी उनकी पुस्तक के शीर्षक में अज्ञेय को प्रेमी भी अभिहित करना उपयुक्त लगता है: वैसे अज्ञेय ने कुछ मार्मिक प्रेम-कविताएं लिखी हैं.

अज्ञेय के आरंभिक जीवन और उनके जेल-जीवन और अपने मुकदमे की खुद पैरवी का बहुत विशद वर्णन है. अज्ञेय ने अपने बचाव में जो तर्क और तथ्य दिए वे उनके भविष्य का भी संकेत देते हैं: वे सामाजिक और राजनीतिक मर्यादाओं को चुनौती देने वाले हैं यह स्पष्ट होता है.

जो लोग अज्ञेय पर अभिजात और जन से दूर रहने का आरोप लगातार लगाते रहे हैं उन्हें यह जीवनी विस्तार से बताती है कि कैसे अज्ञेय का, उदाहरण के लिए, किसान आंदोलन के घनिष्ठ संपर्क था. बाद में, उन्होंने रेणु के साथ मिलकर बिहार के अकाल के समय किसानों की दुर्दशा और प्रशासन की कोताहियों का लगातार कवरेज किया था.

अज्ञेय के पास पैसे की लगभग हमेशा कमी रही क्योंकि उन्होंने एक लेखक का जीवन बिताने का निर्णय उस समय किया था जब अधिकांशतः हिन्दी साहित्य में लेखकों को बहुत कम, नहीं के बराबर, पारिश्रमिक मिलता था. ‘शेखर’ जैसे लोकप्रिय हो गए उपन्यास से उन्हें सरस्वती प्रेस से बहुत कम रॉयल्टी मिली. इसलिए बाद में, अज्ञेय का अपने व्याख्यानों के लिए पारिश्रमिक दिए जाने पर इसरार करना समझ में आता है.

यह भी ग़ौर करने लायक है कि जब उन्हें कुछ धन मिलना शुरू हुआ, उदाहरण के लिए ज्ञानपीठ पुरस्कार से, तब उन्होंने एक ट्रस्ट बनाकर, उसे पुरस्कार-राशि से दोगुनी राशि देकर उसे दूसरों पर ख़र्च करने का उपक्रम किया. अज्ञेय संभवतः ऐसे पहले हिन्दी लेखक थे.

अज्ञेय के कांग्रेस फॉर कल्चरल फ्रीडम के संबंध को लेकर विवाद रहा है. यह संबंध था और उस समय संसार के कई मूर्धन्य लेखकों का ऐसा संबंध था. उससे पहले अज्ञेय प्रगतिशील लेखकों के साथ मिलकर फ़ासीवाद के विरुद्ध एक बड़ा सम्मेलन कर चुके थे. स्वतंत्रता और स्वाभिमान उनके लिए ऐसे मूल्य थे जिन पर उन्होंने कभी समझौता नहीं किया. यह जीवनी इस धारणा का सत्यापन करती है.

अज्ञेय के साहित्य, चिंतन, वैचारिक गतिविधियों से कोई अमेरिका-परस्ती साबित नहीं होती. अगर तब के सोवियत संघ से सस्ते दामों पर पुस्तकें प्रकाशित करने के लिए वित्तीय सहायता लेना और सोवियत लैंड पुरस्कार लेना उचित था तो अमेरिकी सहायता को भी उचित ठहराया जाना चाहिए. विडंबना यह है कि दोनों ख़ेमे उस समय सोवियत नरसंहार और अमेरिका की बाद में वियतनाम और कोरिया युद्धों में शिरकत और नरसंहार की अनदेखी कर रहे थे.

एक निजी प्रसंग भी इस जीवनी ने खोज निकाला है जिसे मैं भूल ही गया था. मेरा अज्ञेय से पत्राचार और संवाद तब शुरू हुआ जब मैं 18 बरस का था. उस समय एक बार उन्होंने जबकि उनकी आयु 50 की भी नहीं हुई थी, लिखना बंद करने की इच्छा व्यक्त की थी.

मैंने इसका विरोध करते हुए उन्हें लिखा कि अगर ऐसा हुआ तो यह दुर्भाग्यपूर्ण होगा और बड़ी क्षति. मैंने यहां तक सुझाया कि अज्ञेय को एक नया कविता संकलन प्रकाशित करना चाहिए जिसमें उनके काव्यानुभव, समकालीन कवियों द्वारा सामना की जा रही समस्याओं और नई कविता पर एक लंबा निबंध भी हो.

मैंने यह लिखने की भी हिम्मत की कि उस समय नई कहानी और नई कविता के सबसे प्रामाणिक प्रतिनिधि लेखक निर्मल वर्मा और रघुवीर सहाय हैं. मुझे यह जानकर सुखद अचरज हुआ कि अज्ञेय ने यह पत्राचार सुरक्षित रखा जबकि मेरे पास अज्ञेय के पत्र, उस समय के, खो गए.

अज्ञेय का एक और पक्ष इस जीवनी से उभरता है: उनका अपने समय की सक्रिय कई पीढ़ियों से उनका संपर्क और संवाद. बहुतों की उन्होंने यथासमय मदद भी की. वत्सल निधि द्वारा आयोजित लेखक-शिविरों को लेकर भी विवाद हुए हैं. अक्षय मुकुल ने सावधानी से उनकी पृष्ठभूमि और उनमें हुए विमर्श की छानबीन की है.

दशकों से अनेक वामपंथी लेखक इस मूर्धन्य को दक्षिणपंथी जनविमुख आदि बताकर निंदा करते रहे हैं. यह जीवनी स्पष्ट करती है कि अधिकांश वामपंथियों के उलट अज्ञेय स्वतंत्रता में भाग लेने के कारण तीन वर्ष जेल में रहे; उनका उसके बाद छोटे-छोटे आंदोलनों से संपर्क रहा; उन्होंने ‘दिनमान’ और ‘नवभारत टाइम्स’ का संपादन करते हुए कभी कोई सत्ता पक्षधर जनविरोधी रुख नहीं अपनाया, लोकतांत्रिक और आलोचनात्मक बने रहे और उस समय के विशाल और निर्णायक जनांदोलन में जयप्रकाश नारायण का साथ दिया.

मुक्तिबोध से उनका लंबा संवाद रहा है और हरिशंकर परसाई पर जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के गुंडों ने हमला किया था तो ‘नया प्रतीक’ में उसकी निंदा की थी.

अगर आप खुले मन से इस जीवनी को पढ़ेंगे तो आपको अज्ञेय के जीवन के संघर्ष, उनके लेखकीय स्वाभिमान, गरिमा और किसी क़दर मटमैले, पर प्रामाणिक जीवन का आत्मीयता से एहसास होगा.

आरंभ और अंत

गीतांजलि श्री के बहुचर्चित और पुरस्कृत उपन्यास ‘रेत समाधि’ के आरंभ और अंत के दो हिस्से देखें:

‘एक कहानी अपने आप को कहेगी. मुकम्मल कहानी होगी और अधूरी भी, जैसा कहानियों का चलन है. दिलचस्प कहानी है. उसमें सरहद है और औरतें, जो आती हैं, जाती हैं आरम्पार. औरत और सरहद का साथ हो तो खुदबखुद कहानी बन जाती हैं बल्कि औरत पर भी. कहानी है.

सुगबुगी से भरी फिर जो हवा चलती है उसमें कहानी उड़ती है. जो घास उगती है, हवा की दिशा में देह को उकसाती, उसमें भी, और डूबता सूरज भी कहानी के ढेरों कंदील जलाकर बादलों पर टांग देता है और ये सब गाथा में जुड़ते जाते हैं राह आगे यों बढ़ती है, दाएं बाएं होती, घुमावती बनी, जैसे होश नहीं कि कहां रुके, और सब कुछ और कुछ भी किस्से सुनाने लगते हैं.’

और अंत की पंक्तियां:

‘कहानियों की क्या कमी, किसी में शायद हम भी ऐन बीच होंगे. आसमान में चंदा है, जिससे अजीब-सी रोशनी फूट रही है. कितनी सुंदर रात है. हवा चल रही है हौले-हौले धीमी सीटी की तरह बजती. कैसी रात है चांदनी के उजास से भरी. कहानियां घूमती हों कि किस पर अपना जाल फेंकें.

हसरत से खिड़की से छलांग लगाता हूं. खिड़की न हुई, कैनवास का वो वाला कोना हो गई जहां अभी रंग भरने, दूसरे किस्से किरदारों के उठने, नए आकारों के सरोकार बाक़ी हैं.’

किसी और उपन्यास ने बिन्दी पे अपने कहानी होने पर ऐसा इसरार, अपने शुरू और आखि़र में किया हो, याद नहीं आता.

(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)

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