बीते 25 जुलाई को म्यांमार के सैन्य शासन ने चार लोकतंत्र समर्थकों को फांसी दे दी थी, जिसके विरोध में भारत में निर्वासन में रह रहे वहां के लोगों के एक समूह ने 30 जुलाई को जंतर मंतर पर शांतिपूर्ण प्रदर्शन करने की दिल्ली पुलिस से अनुमति मांगी थी, जिससे पुलिस ने इनकार कर दिया था.
नई दिल्ली: म्यांमार में सैन्य शासन द्वारा चार लोकतंत्र समर्थक कार्यकर्ताओं को फांसी दिए जाने के खिलाफ वहां के असंतुष्ट लोगों के एक समूह ने दिल्ली में होने वाले एक प्रदर्शन को पुलिस द्वारा अनुमति न दिए जाने के चलते रद्द कर दिया गया. आयोजकों ने इसकी जानकारी दी है.
यह म्यांमार में दशकों बाद पहली न्यायिक हत्या की घटना थी. बीते 25 जुलाई को म्यांमार के सैन्य शासन (जुंटा) ने घोषणा की थी कि उसने आतंकवादी कृत्यों को अंजाम देने में मदद करने के आरोप में चार लोकतंत्र कार्यकर्ताओं को फांसी दी है.
उन पर सेना से लड़ने वाले विद्रोहियों की सहायता करने का आरोप लगाया गया था. मुकदमे के दौरान इन चारों को मौत की सजा सुनाई गई थी. सेना ने पिछले साल तख्तापलट कर म्यांमार की सत्ता पर कब्जा कर लिया था.
सीआरपीएच-एनयूजी इंडिया सपोर्ट ग्रुप नामक एक समूह ने इस घटना के विरोध में प्रदर्शन करने के लिए बुधवार (27 जुलाई) को दिल्ली पुलिस के समक्ष एक आवेदन दिया था.
बता दें कि सेना की क्रूर कार्रवाई से बचने के लिए म्यांमार के हजारों नागरिक, मुख्य तौर पर मिजोरम राज्य की पहाड़ी सीमा के पार से भागकर भारत आ गए थे.
निर्वासन में रहते हुए उनमें से कई जुंटा के मानवाधिकार उल्लंघन के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिए एक समूह बनाकर अपना प्रतिरोध जीवित रखने हेतु प्रयास करते रहे और भारत सरकार से म्यांमार सरकार के खिलाफ और अधिक कठोर रुख अख्तियार करने का आग्रह किया.
जैसा कि समूह के नाम से पता चलता है, यह नेशनल यूनिटी गवर्नमेंट (एनयूजी) से जुड़ा हुआ है, जो सीआरपीएच (The Committee Representing Pyidaungsu Hluttaw) के नाम से पहचाने जाने वाले अपदस्थ सांसदों द्वारा बनाई शैडो सरकार है.
सीआरपीएच म्यांमार का विधायी निकाय है, वहां तख्तापलट के बाद निर्वासन में है.
चार कार्यकर्ताओं को फांसी दिए जाने ने अंतरराष्ट्रीय आलोचना और म्यांमार के भीतर प्रदर्शनों को नई हवा दे दी. भारत स्थित असंतुष्टों के समूह ने शनिवार (30 जुलाई) दोपहर राजधानी दिल्ली के जंतर मंतर पर करीब 200 व्यक्तियों का शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन करने की अनुमति मांगी थी, ताकि वे इस ‘बर्बर कृत्य’ को लेकर अपनी निंदा व्यक्त कर सकें.
सीआरपीएच-एनयूजी इंडिया सपोर्ट ग्रुप के महासचिव विलियम सैन ने द वायर से कहा, ‘बुधवार को हम पुलिस के पास गए और अनुमति मांगी. मुझे शुक्रवार को उनके कार्यालय से फोन आया और पूछा गया कि हम कितने लोग आने वाले हैं. विरोध के बारे में पूछने के सबंध में शनिवार की सुबह और भी फोन आए. फोन करने वालों में से किसी ने भी नहीं कहा कि हमें अनुमति नहीं दी गई है.’
उनके अनुसार, जब किराये पर ली गई बस प्रदर्शन स्थल पर जाने के लिए तैयार हुई तब उन्हें पता लगा कि पुलिस ने उन्हें अनुमति नहीं दी है.
सात महीने पहले म्यांमार छोड़ने वाले विलियम ने कहा, ‘मुझे बताया गया कि हम कोई प्रदर्शन नहीं कर सकते हैं. जब मैंने कारण जानने पर जोर दिया, तो पुलिसकर्मी ने कहा कि उसके पास मुझे विरोध न करने देने संबंधी कारण बताने का अधिकार नहीं है.’
बाद में उन्हें (शनिवार को) दिल्ली पुलिस से एक पत्र लेने के लिए कहा गया, जिसमें कहा गया था कि ‘सुरक्षा/कानून-व्यवस्था/यातायात कारणों के मद्देनजर’ अनुमति नहीं दी गई है.
विलियम ने कहा, ‘मुझे एक हस्ताक्षरित पत्र प्रस्तुत करने के लिए भी कहा गया था कि हम शनिवार को कोई प्रदर्शन नहीं करेंगे.’
अंतिम समय में अनुमति नहीं मिली, लेकिन समूह ने दिल्ली के सभी हिस्सों से अपने सदस्य जुटाने की तैयारी भी कर ली थी. औपचारिक प्रदर्शन न कर पाने के बाद उन्होंने एक पार्क में विरोध से जुड़ीं तख्तियों के साथ कुछ देर तक मौजूद रहे.
समूह के लिए यह चौंकाने वाला था कि उन्हें अनुमति नहीं मिली, क्योंकि इससे पहले वे इस साल फरवरी में आधिकारिक अनुमति के साथ एक प्रदर्शन आयोजित कर चुके थे.
समूह के एक अन्य वरिष्ठ पदाधिकारी ने कहा, ‘हमने 22 फरवरी को भी हमारे लोगों को प्रेरित करने और लोकतंत्र की बहाली में भारत की मदद मांगने के लिए एक प्रदर्शन किया था.’
म्यांमार में रह रहे अपने परिजनों को खतरे में डालने से बचाने के लिए उक्त पदाधिकारी ने अपना नाम गोपनीय रखा.
विलियम सैन और समूह के अन्य सदस्यों के लिए अनुमति न मिलना निराशाजनक था, क्योंकि उन्हें उम्मीद थी कि वे म्यांमार के भीतर के गंभीर हालातों की ओर और भी अधिक ध्यान आकर्षित कर पाएंगे.
अपने फेसबुक पेज पर प्रकाशित एक कविता में उन्होंने अपनी पीड़ा व्यक्त की और भारत की इस कार्रवाई की तुलना एक ऐसे व्यक्ति को ठोकर मारने से की, जो कि पहले ही जमीन पर रौंदा जा चुका है.
गौरतलब है कि एक फरवरी के तख्तापलट के बाद भारत ने म्यांमार में लोकतांत्रिक परिवर्तन का आह्वान करते हुए ‘गंभीर चिंता’ व्यक्त की थी. हालांकि, पश्चिमी देशों की तुलना में भारत ने अधिक मौन रुख अपनाया था, क्योंकि वह म्यांमार से जुड़े पूर्वोत्तर राज्यों में सुरक्षा के हालातों को लेकर चिंतित था और उसने वहां के सैन्य शासन जुंटा के साथ आगे बढ़ने के रास्ते खोले रखे.
भारत चीन की उपस्थिति को लेकर भी चिंतित था, जिसने म्यांमार को व्यापक अंतरराष्ट्रीय निंदा से बचाने के लिए अपने राजनयिक रसूख का इस्तेमाल किया.
पिछले साल जून में भारत ने म्यांमार पर यूएनजीए के प्रस्ताव पर इस आधार पर भाग नहीं लिया कि इसने ‘लोकतांत्रिक प्रक्रिया को मजबूत करने की दिशा में प्रयास नहीं किए.’ तब तक भारत ने क्षेत्रीय गुट आसियान के पांच सूत्रीय सहमति के आधार पर शांति के प्रयासों का भा समर्थन कर दिया था.
हालांकि, आसियान (जिसका म्यांमार भी एक सदस्य है) राजनीतिक स्थिरता और लोकतंत्र की दिशा में रोडमैप लागू करने में जुंटा की प्रगति की कमी से उदासीन हो गया है.
लोकतंत्र कार्यकर्ताओं की फांसी की घोषणा के बाद आसियान के अध्यक्ष कंबोडिया ने 26 जुलाई को इसे ‘‘अत्यधिक निंदनीय’ बताया था. कंबोडिया ने जुंटा की कार्रवाई को लेकर कहा था कि वह आसियान की पांच सूत्रीय सहमति शांति योजना को लागू करने के समर्थन में इच्छाशक्ति की कमी का प्रदर्शन कर रहा है.
दो दिन बाद भारत ने घटनाक्रम पर ‘गहन चिंता’ व्यक्त करते हुए फांसी पर प्रतिक्रिया दी और कहा था कि कानून के शासन और लोकतांत्रिक प्रक्रिया को बरकरार रखा जाना चाहिए. विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने कहा था, ‘म्यांमार के लोगों के मित्र के रूप में हम म्यांमार में लोकतंत्र और स्थिरता की वापसी का समर्थन करना जारी रखेंगे.’
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