साक्षात्कार: चार साल पुराने एक ट्वीट के लिए दिल्ली पुलिस द्वारा हिरासत में लिए जाने के बाद ऑल्ट न्यूज़ के सह-संस्थापक मोहम्मद ज़ुबैर ने क़रीब तीन हफ्ते जेल में बिताए. इस बीच यूपी पुलिस द्वारा उन पर कई मामले दर्ज किए गए. हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें ज़मानत देते हुए कहा कि उनकी लगातार हिरासत का कोई औचित्य नहीं है. उनसे बातचीत.
नई दिल्ली: 39 वर्षीय फैक्ट-चेकर मोहम्मद ज़ुबैर अब कोई अनजाना नाम नहीं हैं. उनके चार साल पुराने एक ट्वीट को लेकर हुई उनकी गिरफ़्तारी, यूपी पुलिस द्वारा उनके खिलाफ दायर केस और आख़िरकार सुप्रीम कोर्ट से मिली ज़मानत के बाद जुबैर राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय सुर्खियों में बने रहे. उनकी ज़मानत के बाद उनसे हुई बातचीत के कुछ अंश.
आज़ादी मुबारक हो. कैसा महसूस कर रहे हैं?
मैं वापस आकर खुश हूं. मेरे साथ खड़े रहे दोस्तों और शुभचिंतकों का शुक्रगुज़ार हूं. यह जानना कि मेरी गिरफ़्तारी को इतने सारे लोगों ने उनकी जिंदगी और आज़ादी पर हमला माना, अभिभूत करने वाला है. मेरा परिवार डरा हुआ था लेकिन प्रतीक और उनकी मां साथ खड़े हुए और उन्हें रोज कॉल करते थे. वो लगातार उनके साथ केस संबंधी अपडेट साझा करते थे और चौबीसों घंटे यूपी की पांच अलग-अलग जगहों और दिल्ली में स्थानीय वकील की व्यवस्था करने की कोशिश में लगे रहते थे.
ऑल्ट न्यूज़ में अपने काम को सुचारु रूप से जारी रखने के अलावा उन्होंने वकीलों को मुक़दमे की तैयारी में भी मदद की. प्रतीक पर भी निशाना साधा गया था लेकिन वे शांत बने रहे. धमकियों के बावजूद हमारे डोनर्स ने साथ नहीं छोड़ा. असल में बीते दो महीनों में बिना किसी अपील के हमें ज्यादा आर्थिक सहयोग मिला है.
इस पूरे घटनाक्रम का सबसे दर्दनाक हिस्सा क्या था?
मेरे माता-पिता, पत्नी और बच्चे डरे हुए थे. मेरा बेटा गर्व से सबको बताता है कि मैं उसका पिता हूं. उसे कई दिनों तक स्कूल नहीं भेज सके. और उससे कहना पड़ा कि किसी को न बताए कि मैं उसका पिता हूं. मुझे लगता है कि यह बहुत दुखद था.
आपके अतीत के बारे में ऑनलाइन बहुत सारी अटकलें लगाई जाती हैं, तो शुरू से शुरू करते हैं. क्या अपने बचपन के बारे में बता सकते हैं?
मैं बेंगलुरु से लगभग 70 किलोमीटर दूर तमिलनाडु के थल्ली नामक एक सुदूर गांव से हूं. मेरे पिता एक किसान थे और उनका होसुर में फल-सब्जी का छोटा-सा कारोबार था. जब मैंने पहली कक्षा पास की, तो मेरी मां ने मुझे और मेरी छोटी बहन को होसुर के एक अच्छे स्कूल में भेजने पर ज़ोर दिया.
तो बेंगलुरु कैसे और कब आना हुआ?
तीन साल तक मैंने और मेरी बहन ने अपनी शुरुआती शिक्षा के लिए रोज सरकारी बस से 60 किमी तक होसुर तक आना-जाना किया. फिर, मेरी मां ने फैसला किया कि हमें बेंगलुरु शिफ्ट होना चाहिए. मेरे पिता के परिवार से उन्हें कुछ प्रतिरोध का सामना करना पड़ा क्योंकि उस समय शहर जाने का फैसला लेना उतना आसान नहीं हुआ करता था. आखिरकार वो उन्हें समझाने में कामयाब रहीं. अगर हम बेंगलुरु नहीं गए होते तो आज शायद जिंदगी बिल्कुल अलग होती.
अपनी स्कूली जिंदगी के बारे में बताइए.
बड़े शहर में आने और मिशनरी स्कूल में दाखिला होने के बावजूद मुझे पढ़ाई-लिखाई में कोई दिलचस्पी नहीं थी. शुरू में तो मैं पढ़ाई में बहुत ख़राब था. मुझे क्रिकेट पसंद था और मैं दिन भर अपने नए दोस्तों के साथ मौज-मस्ती में लगा रहता था. एक-दो विषयों के अलावा मैं बाकियों में या तो फेल होता था या पासिंग मार्क्स ही आते. मैं छठी क्लास में फेल हो गया और अचानक मैं और मेरी बहन एक ही क्लास में आ गए. मेरी बहन मेरे इस लापरवाह रवैये पर हमेशा नजर रखती थीं. अगर उस समय मैं किसी लड़की से बात करता था तो वो या तो उसे डराकर भगा देती थीं, या मुझे शर्मिंदा करती थीं और पापा से शिकायत कर देतीं. फिर भी छुप-छुपकर बात हो जाती थी इधर-उधर.
तो फिर जिंदगी का टर्निंग पॉइंट क्या रहा? अचानक पढ़ाई में रुचि कैसे हुई?
पापा मेरी पढ़ाई की हालत से बेहद परेशान थे और फिर एक दिन, जैसा आम मिडिल क्लास घरों में अमूमन होता है, हमारे बीच बड़े होते बेटे और पिता वाली बातचीत हुई. उन्होंने मुझसे कहा कि कैसे उन्होंने हमारे भविष्य के लिए क्या कुछ किया है और अगर मैं फेल हो जाता हूं तो सब बर्बाद हो जाएगा. वो मुझसे इतना नाराज़ थे कि उन्होंने कहा था कि मैं दसवीं भी पास नहीं कर पाऊंगा- यही बात मेरे दसवीं के टीचर भी कहते थे. मुझे बहुत शर्मिंदगी महसूस हुई और मैंने मेहनत करने की सोची क्योंकि तालीम पाना ही हमारे परिवार के लिए एक उम्मीद थी. मैंने भी तय कर लिया और ठीक-ठाक नंबरों के साथ स्कूल की पढ़ाई पूरी की. फिर मुझे एमएस रमैया इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी, जो एक अच्छा इंजीनियरिंग कॉलेज था, वहां दाखिला मिल गया.
(हंसते हुए) अचानक हुए इस बदलाव के बाद पापा मेरे छोटे भाई-बहनों से कहा करते थे कि अगर जुबैर जैसा कोई ये सब कर सकता है, तो कोई भी कर सकता है. मैं अचानक ही परिवार का रोल मॉडल बन गया जिसने परिवार में सबसे पहले कोई प्रोफेशनल डिग्री हासिल की. मुझसे पहले न मां, न पापा किसी की तरफ के परिवार में किसी ने भी इस स्तर पर कोई औपचारिक पढ़ाई पूरी की थी. ये तब बहुत बड़ी बात थी. इसके बाद मेरे भाई-बहनों में दो डॉक्टर बने और दो इंजीनियर.
आपके इंजीनियरिंग करने की क्या वजह रही?
उस समय बस यही सोचते थे कि बेहतर जिंदगी कैसे बनाई जाए. उसके लिए या तो डॉक्टर बनना होता था या इंजीनियर. हमारे पास और विकल्प नहीं थे. मैं डॉक्टर नहीं बन सकता था- पहली बात क्योंकि मैं बायोलॉजी में अच्छा नहीं था और दूसरा- मुझे जल्द से जल्द कमाना शुरू करना था क्योंकि हमारे भविष्य के लिए परिवार ने लगभग हर चीज बेच दी थी. हमारे पास बहुत कुछ नहीं था और घर का बड़ा बेटा होने के नाते मेरी जिम्मेदारी थी कि मैं परिवार संभालूं.
तो बेंगलुरु का एक इंजीनियर, जिसे शायद एक दशक पहले तक राजनीति में कोई दिलचस्पी तक नहीं थी, इस पेशे में कैसे पहुंचा?
मैं हालात का बनाया हुआ इंसान हूं. मैं 2012 के करीब सोशल मीडिया पर एक्टिव हुआ था. मैं बहुत-से ऐसे पेज फॉलो करता था जो गैर-राजनीतिक कंटेंट पोस्ट किया करते थे. मेरी खुद की टाइमलाइन पर बस क्रिकेट छाया रहता था. लेकिन 2012-13 के बीच कुछ बदल गया. अचानक सभी पेज उस समय की कांग्रेस सरकार को निशाना बनाते हुए राजनीतिक पोस्ट करने लगे. मुझे मालूम नहीं था कि क्या चल रहा है. अगले दो सालों में फोकस सरकार की नाकामी से मुसलमानों पर आ गया और कई करीबी दोस्त एंटी-मुस्लिम बातें ऑनलाइन पोस्ट करने लगे. इसे देखकर मेरा दम घुटता था. अकेलापन लगता था, इस बात को लेकर मैं ठगा हुआ महसूस करता था कि मैं जिन लोगों के साथ इतने वक्त से था उन्होंने मुझे अलग कर दिया. उस समय मेरे गैर-राजनीतिक क्रिकेट वाले पोस्ट मेरी समझ और दुनिया से बाहर की बात लगने लगे थे. मुझे मेरे लोकल एमएलए या मुख्यमंत्री तक का नाम मालूम नहीं हुआ करता था. मैं राजनीति को लेकर इस तरह का था, लेकिन कुछ सालों में मेरी दिलचस्पी बढ़ती ही गई.
प्रतीक से मिलना कैसे हुआ?
मैंने उनके फेसबुक पेज से एक पोस्ट शेयर की थी. उन्होंने मुझे मैसेज किया कि मैंने उसका सही क्रेडिट नहीं दिया है. मैंने उसे सुधारकर दोबारा पोस्ट किया. फिर मुझे लगा कि हम लोगों में बहुत-सी बातें कॉमन हैं. ऊना वाली घटना के समय हमने उस बारे में रिपोर्ट करने के लिए अपने पेजों का इस्तेमाल किया था. उसके बाद धीरे-धीरे मुख्यधारा के मीडिया ने उस मुद्दे को उठाया था. इसी बात से हमें एहसास हुआ कि हमें अपनी वेबसाइट शुरू करनी चाहिए. शुरुआत में हम बस ऐसी वेबसाइट लाना चाहते थे जो मुख्यधारा में चल रहे नैरेटिव के बरक्स अपना दृष्टिकोण रखे, लेकिन फिर प्रतीक ने फैक्ट-चेक वेबसाइट के बारे में सोचा और इस तरह ऑल्ट न्यूज़ की शुरुआत हुई. 2018 तक मैं इससे फुल-टाइम नहीं जुड़ा था. शुरुआत में मेरे लिए अपने परिवार को इसके लिए मनाना मुश्किल था.
आपके मुताबिक, बढ़ते इस्लामोफोबिया और असहिष्णुता ने आपको वो करने के लिए प्रेरित किया जो आप आज कर रहे हैं. कैसे?
जब मैं एक मल्टीनेशनल कंपनी में काम करता था तब जुमे के रोज़ कुरता पहनकर दफ्तर जाया करता था. ऐसी ही किसी जुमे को मेरे मैनेजर ने मुझे बुलाया. वो नाराज़ थे कि मैंने उस दिन कुरता नहीं पहना था. उन्होंने कहा, ‘आज तो जुमा है, तुमने कुरता क्यों नहीं पहना? उसमें तुम बहुत अच्छे लगते हो.’ फिर अचानक इन्हीं सब कलीग को किसी पॉलिटिकल बातचीत के दौरान अचानक बदलते हुए, गुस्से में भरे देखना मेरे लिए परेशानी का सबब था. न मेरे पास उस समय कोई जानकारी ही थी न ही हिम्मत कि मैं उन्हें काउंटर कर सकूं. हम तीन-चार मुस्लिम किनारे कर दिए गए थे और हमारे पास वॉट्सऐप पर आ रहे प्रोपगैंडा का कोई जवाब नहीं था.
फिर मैंने इस बारे में पढ़ना और रिसर्च करना शुरू किया. अपने काम के दौरान मुझे समझ में आया कि प्रोपगैंडा के खिलाफ तथ्य सामने रखना जितना जरूरी है, उतना ही जरूरी है उन्हें एक बड़ी आबादी के बीच पहुंचाना. मेरा फेसबुक पेज- अनऑफिशियल सुसु स्वामी- इन बेवकूफ़ियों को लेकर मेरी हताशा को निकालने का जरिया बन गया. एक समय पर तो मुझे मेरी नौकरी के हिस्से के बतौर अलग-अलग देशों में सफर करने में उतना मजा नहीं आता था, जितना इस फेसबुक पेज के सटायर (व्यंग्य) में आता था.
और इसी सटायर ने आपको पिछले दिनों मुश्किल में डाल दिया!
देखिए, ये बात तो बिल्कुल साफ है कि मुझे मेरे किसी पुराने ट्वीट या फेसबुक के पैरोडी पेज के चलते गिरफ्तार नहीं किया गया था. हर पुरानी पोस्ट किसी न किसी नेता के घटिया बयान के जवाब में की गई आलोचना थी.
फिर आपको क्यों गिरफ्तार किया गया था?
जैसे ही भाजपा प्रवक्ताओं के बयानों वाले मेरे ट्वीट वायरल हुए और इन्हें लेकर कूटनीतिक आलोचनाओं का दौर शुरू हुआ, मुझे पता था कि अब वो मेरे पीछे पड़ जाएंगे.
एक वरिष्ठ पत्रकार ने अपने एक कॉलम में कहा है कि आपने भाजपा नेता नूपुर शर्मा के मुक्त अभिव्यक्ति के अधिकार को बनाए नहीं रखा. इस पर क्या कहेंगे?
मैं उनकी बात से इत्तेफाक नहीं रखता. मेरे ही ट्वीट के नीचे सैकड़ों लोगों ने मेरे पैगंबर, मेरे धर्म को जितना मुमकिन है, उतने ख़राब ढंग से गाली दी. मैंने उन सबको को जवाब नहीं दिया. लेकिन सत्ताधारी पार्टी के जो नेता इस तरह के घटियापन को आम बात में बदल रहे हैं, उन पर बात होनी चाहिए. ये बहस नहीं है, जहां आप लोगों को एक-दूसरे पर कीचड़ उछालने, गाली देने के लिए बुला रहे हैं.
मैंने तो उन मौलाना की भी आलोचना की थी, जो हिंदुओं के खिलाफ हेट स्पीच दे रहे थे. बात इकोनॉमी की हो, या वायु प्रदूषण की, इन्हीं ‘इज़्ज़तदार धार्मिक नेताओं’ को बुलाया जाता है जिससे वे कोई विवादास्पद बात कहें और प्रोपगैंडा के लिए कच्चा माल तैयार हो! जाहिर तौर पर गोदी मीडिया को उनसे कोई दिक्कत नहीं है. असल में चुनावों से पहले डर फैलाने के लिए उनके वीडियो वायरल करवाए जाते हैं. ये चित भी मेरी-पट भी मेरी वाली स्थिति है. ये बहसें किसी धार्मिक आलोचना या लिबरल मूल्यों को फैलाने के लिए आयोजित नहीं की जाती हैं.
आपकी गिरफ़्तारी को लेकर मीडिया का एक वर्ग खुश था. इस तरह की नफरत की क्या वजह है?
उनके पास मुझसे नफरत करने की हर वजह है. मुख्यधारा का मीडिया नफरत भड़काता है और इस तरह के ‘इंसाफ’ का जश्न मनाता है. उन्होंने आईटी सेल की भूमिका को आग लगाने वालों में सीमित कर दिया है. पहले जब कभी किसी फर्जी खबर की आलोचना की जाती थी, तब वो माफी मांगते थे, लेकिन अब वे ऐसा पूरी बेशर्मी और किसी जवाबदेही या सजा के डर के बिना करते हैं. मेरा काम उनके लिए शर्मिंदगी का सबब है. उन्हें समाज को बांटने और लोगों में डर भरने के लिए सार्वजनिक तौर पर जवाबदेह ठहराए जाने से डर लगता है.
काम के हिस्से के रूप में आपने नफरत और हिंसा भरे सैकड़ों वीडियो देखे हैं, क्या कोई ऐसा वीडियो है, जिसने आपको सबसे ज्यादा परेशान किया?
हरिद्वार की ‘धर्म संसद’ में हुए हिंसा के आह्वान और सीतापुर में पुलिस की मौजूदगी में बलात्कार की खुली धमकियों ने मुझसे सबसे ज्यादा हैरान किया.
बीते दिनों जेल में रहने के दौरान सोशल मीडिया पर आपके कानों को लेकर एक ‘कॉन्सपिरेसी थ्योरी‘ चल रही थी. क्या आप वाकई में अपने कान छिपा रहे थे?
पुलिस ने मुझे सुरक्षा कारणों से अपना चेहरा छिपाने को कहा था. (हंसते हुए) मेरे लिए पहली बार था. मुझे नहीं मालूम था कि टीवी पर पुलिस द्वारा यहां-वहां ले जाने के वीडियो मुझे खूंखार अपराधी या आतंकी के बतौर दिखाने के लिए किस तरह इस्तेमाल किए जाएंगे.
हालांकि, जब मुझे लगा कि ये सुरक्षा कारणों से नहीं बल्कि मेरी छवि ख़राब करने के लिए हो रहा है तब मैंने अपना चेहरा नहीं छिपाया. आप बाद के वीडियो देखेंगे तो मैंने कहीं मास्क नहीं पहना है न ही चेहरा छिपाया है. कहीं-कहीं तो मैंने मीडिया को देखकर हाथ भी हिलाया था.
आपकी पिछली जिंदगी के बारे में एक और कॉन्सपिरेसी थ्योरी ये भी थी कि शायद आप अजमल कसाब हैं जो भारतीय कानूनी एजेंसियों को चकमा देकर भागने में कामयाब रहे…
मैं बस एक आम नागरिक हूं जो अपने परिवार को बेहतर कल देने के लिए काम कर रहा है.
इन लोगों से किसी ढंग की बात की उम्मीद भी नहीं की जा सकती! ऐसे तो ये हंसी में उड़ाने वाली बात है लेकिन किसी के खिलाफ ऐसा मजबूत प्रोपगैंडा अभियान किसी भी तार्किक सोच वाले इंसान को देशद्रोही बनाकर पेश कर सकता है. और अगर आप मुस्लिम हैं, तो ऐसा करना और भी आसान है.
पुलिस ने पूछताछ के दौरान किस तरह के सवाल किए?
कई सवाल तो बेतुके और बवाल खड़ा करने वाले थे. हाथरस में तो जिन दो अधिकारियों ने मुझसे पूछताछ की थी, वो वाकई में दक्षिणपंथी प्रोपगैंडा वेबसाइट के लेखों पर आधारित सवाल कर रहे थे. एक अधिकारी ने मुझसे जॉर्ज सोरोस (अमेरिकी कारोबारी) से फंडिंग मिलने के बारे में सवाल किया था, जिस पर मैंने इस जानकारी का स्रोत बताते हुए उनसे कहा कि उनकी ये बात फलाने व्यक्ति के ट्वीट से ली हुई है न, इस पर वे सकपकाए और फिर जोर से हंसे.
सीतापुर पुलिस तो ऐसे बर्ताव कर रही थी जैसे मानो वो उस ‘प्यार फैलाने वाले’ के वकील हैं! उन्होंने मुझसे कहा, ‘क्या तुम्हें पता है कि वो इंसान किन हालात से गुजरा है जो वो ऐसे भाषण देता है. तुमने उसकी माफ़ी पोस्ट क्यों नहीं की?’ लेकिन क्या वो वाकई में कोई माफ़ी थी?
जेल में ईद कैसी रही?
मैंने नमाज़ और दुआ पढ़ी, जो मेरे घरवालों ने मुझसे पढ़ने को कहा था, हालांकि मैं सही से ऐसा कर नहीं पाया क्योंकि मुझे लगातार इस शहर से उस शहर ले जाया जा रहा था. मैं खुद को अकेला नहीं करना चाहता था, मैं चाहता था कि इस मौकों को जेल की चारदीवारी के अंदर की दुनिया को और ज्यादा जानने के लिए इस्तेमाल करूं.
मैंने जितना मुमकिन था उतने कैदियों और पुलिसवालों से बातचीत की. मुझे लगता है कि जेल में अलग-अलग लोगों से बात करने से मेरे तजुर्बे में काफी इज़ाफ़ा हुआ है. एक वक्त तो वहां मुझे बहुत कमजोर महसूस हुआ था लेकिन फिर मेरे कई दोस्त बन गए, शायद इसलिए कि मैं उनकी कहानियां जानना चाहता था.
आपने अपनी जमानत को अपवाद बताया है, क्यों?
ये मेरी किस्मत है कि मेरे पास पैसा, पहुंच, संसाधन, सिविल सोसाइटी, पत्रकारों की बिरादरी का समर्थन और सबसे महत्वपूर्ण मजबूत लीगल टीम थी. मैं जेल में कई नौजवान कैदियों से मिला जो महज सोशल मीडिया पोस्ट के चलते वहां कई सालों से हैं. मैं युवा कश्मीरियों से मिला जिनके परिवार लंबी कानूनी लड़ाई नहीं लड़ सकते हैं. उनका हाल सुनकर मेरी आंखें नम हो गई थीं.
तिहाड़ में मुझे एक रसूखदार व्यक्ति ने कहा, ‘मैं खुश भी हूं और दुखी भी कि तुम यहां हो. मैं चाहता हूं कि और पत्रकार भी यहां आएं और कैदियों की हालत देखें, जिससे कि जब वो बाहर जाएं तो दुनिया को हमारे और हमारी कहानियों के बारे में बता सकें.’
बहुतों के लिए सोशल मीडिया पर इस तरह का आक्रोश खड़ा नहीं होगा. इस समस्या से निपटने के लिए पूरी व्यवस्था में बड़े बदलाव की जरूरत है, जिससे कि लोगों को ऐसे बिना सोचे-समझे उनके आजादी के अधिकार से वंचित न किया जा सके. पत्रकारों को भी विचाराधीन कैदियों की स्थिति पर ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है, खासकर उन पर, जिनके समर्थन में हैशटैग चलाने वाला कोई नहीं है.
बीते कुछ समय से कर्नाटक हेट क्राइम और इसी तरह की गतिविधियों को लेकर ख़बरों में रहा है. इस बदलाव को किस तरह देखते हैं?
यदि हम तटीय क्षेत्र की छिटपुट घटनाओं को एक तरफ रखें, तो कर्नाटक हाल के समय तक इन सांप्रदायिक झगड़ों से सुरक्षित था. लेकिन अब चीजें काफी तेजी से बदलीं, खासकर पिछले एक साल में. यहां फैली सांप्रदायिक नफरत का जहर देखकर दुख होता है. युवा जान गंवा रहे हैं लेकिन इस पागलपन का कोई अंत नहीं है.
मैं यह नहीं कह रहा हूं कि पूरे भारत में बहुत अच्छे हालात रहे हैं, लेकिन इस हिस्से में हाल कभी इतना बुरा नहीं था. हम ऐसे युवा भारतीयों के रूप में बड़े हुए हैं, जो एक-दूसरे की इज्जत करते थे. यहां कम से कम सभी के लिए जगह थी- जिसका वो हिस्सा थे और जहां वो सपने देखते थे.
युवा पत्रकारों को क्या संदेश देंगे?
अगर मैं खामोश बैठा तो औरों के लिए इसका असर और ख़राब होगा. यही वो वजह है जिसके चलते मुझे गिरफ्तार किया गया था. एक मुस्लिम का जवाबदेही मांगना और पत्रकार के बतौर काम करना जुर्म नहीं है. मैं अपने नौजवान साथियों से यही कहना चाहता हूं कि उनका काम जरूरी है और उन खतरनाक घटनाओं को, जिन्हें अन्यथा भुला दिया जाएगा, दर्ज करना अपराध नहीं है.
आपको सोशल मीडिया पर मौजूद रहना चाहिए और अपनी कहानी खुद लिखनी चाहिए. अपने आस-पास चल रहे प्रोपगैंडा को यूं ही मत जाने दें. अगर हर जिले में कोई एक इंसान भी ऐसा हो जो फैक्ट-चेक करे, हेट स्पीच के खिलाफ खड़ा हो, गोदी मीडिया मीडिया चैनलों के प्रोपगैंडा को चुनौती दे तो आखिरकार चीजें बेहतर होंगी.
कुछ चंद लोगों का काम, भले ही वो कितना ही अच्छा क्यों न हो, एक अच्छे मुख्यधारा के मीडिया की कमी को पूरा नहीं कर सकता. लेकिन यह कहना आसान है, करना मुश्किल. ये हमारी जिम्मेदारी है कि ऐसी जगहें तैयार करें और नई आवाजों, खास तौर पर हाशिए से आने वालों को संसाधन मुहैया करवाएं. हमें उन्हें ट्रेनिंग देनी होगी, टेक्निकल हुनर सिखाने होंगें. ये सोचना कि हम बिना लोकतांत्रिक मीडिया के एक लोकतांत्रिक समाज बना सकते हैं और बिना नई आवाजों के लोकतांत्रिक मीडिया बना सकते हैं, कोरी कल्पना ही होगी.
क्या कोई उम्मीद नजर आती है?
मैं नहीं चाहता कि बच्चे एक-दूसरे से नफरत करते हुए या अपने बारे में किसी तरह के अविश्वास के साथ बड़े हों- लेकिन मैं झूठ नहीं बोलूंगा- मुझे कोई उम्मीद नहीं दिखती. मुझे लगता है कि यह राजनीतिक माहौल ऐसा ही रहने वाला है या शायद इससे बदतर हो.
हालांकि मुझे नहीं लगता कि चुप रहना कोई विकल्प भी है. हमारे पास जो भी संसाधन हैं, उनकी मदद से सच कहना जारी रखना ही होगा. अब तक मेरा ज्यादा ध्यान हेट स्पीच, हेट क्राइम के बारे में रिपोर्ट करने और फर्जी ख़बरों को सामने लाने पर रहता था लेकिन अब मैं मुख्यधारा के मीडिया द्वारा भड़काई जा रही सांप्रदायिक नफरत को उजागर करने पर ज्यादा ध्यान दूंगा.
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