पुस्तक समीक्षा: हिंदी कविता और नई कहानी के प्रमुख हस्ताक्षर रहे अज्ञेय की अक्षय मुकुल द्वारा लिखी जीवनी ‘राइटर, रेबेल, सोल्जर, लवर: द मैनी लाइव्ज़ ऑफ अज्ञेय’ उनके जीवन के अनगिनत पहलुओं को तो उभारती ही है, साथ ही 1925 से 1980 के भारत के राजनीतिक-सामाजिक इतिहास का भी दस्तावेज़ बन जाती है.
हाल ही में साहित्यकार अज्ञेय पर पेंगुइन रैंडम हाउस से प्रकाशित 780 पृष्ठों की ‘राइटर, रेबेल, सोल्जर, लवर: द मैनी लाइव्ज़ ऑफ अज्ञेय’ लेखक-पत्रकार अक्षय मुकुल की शोधपरक किताब है, जिसकी तैयारी वह पिछले कई वर्षों से कर रहे थे. एकबारगी देखकर लगता है कि इतनी बड़ी, भारी-भरकम किताब! पर इन पन्नों से धीरे-धीरे उभरते व्यक्ति की जो छवि किताब खत्म होने पर स्वरूप ग्रहण करती है, उसके इतने विविध-विस्तृत जीवन के सामने इतने पृष्ठ भी कम ही लगते हैं.
हिंदी साहित्य नहीं, बल्कि आधुनिक भारतीय साहित्य और पत्रकारिता की धारा में सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ (1911-1987) का स्थान और योगदान इतना विशिष्ट है कि हिंदी में लिखी कई प्रामाणिक जीवनियों के बाद भी अक्षय मुकुल का यह नया योगदान जरूरी हस्तक्षेप भी लगता है और पिछली कमियों की पूर्ति भी.
पर पहला सवाल जो सबसे पहले किसी भी जिज्ञासु पाठक के मन में- विशेषकर जो हिंदी साहित्य से इतना वाकिफ़ न हो- वह यह हो सकता है कि 35 साल पहले गुज़र चुके अज्ञेय की ही जीवनी क्यों?
तो उसके कुछ जवाब हैं, मसलन-जैसा कि मुकुल की किताब के शीर्षक से ही स्पष्ट है कि अज्ञेय ने एक ही जीवन में कई जीवन जिया था. वह स्वतंत्रता आंदोलन में क्रांतिकारी थे, द्वितीय विश्वयुद्ध के समय सेना में शामिल थे, साहित्य और आलोचना के क्षेत्र में युगों के प्रवर्तनकर्ता थे (हिंदी साहित्य में प्रयोगवाद और तार सप्तक के माध्यम से कविता का एक नया युग), भारतीय पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रयोगवादी थे (प्रतीक, दिनमान, वाक जैसी लोकप्रिय साहित्यिक पत्रिकाएं), वैश्विक साहित्य और साहित्य-दृष्टियों, दर्शनों को भारतीय साहित्य से संपर्क करवाने वाले थे (जर्मन साहित्य, जापानी साहित्य का अनुवाद), भारतीय संस्कृति और धर्म के आध्यात्मिक मायनों के खोजी थे (भारतीय धर्मनिरपेक्षता की सामान्य परिभाषा के आलोचक और हिन्दुत्व-संबंधी विचार) और इन सबके ऊपर भारतीय राष्ट्र-राज्य के निर्माण के प्रत्यक्षदर्शी थे (स्वतंत्रता-विभाजन, संविधान-संस्थाओं का निर्माण, भारत-चीन युद्ध, बांग्लादेश का निर्माण, आपातकाल, बिहार-अकाल जैसे महत्वपूर्ण क्षणों के साक्षी).
कहने का अर्थ यह कि हिंदी कविता और नई कहानी का वह प्रमुख हस्ताक्षर जिसने साहित्य और जीवन दोनों ही में परंपराओं को तोड़ा, जिसके दर्शन और साहित्य दोनों ही को अपार प्रशंसा और घोर विरोध के दो विपरीत ध्रुवों में आंका गया. इसलिए यह जीवनी अज्ञेय के जीवन के अनगिनत पहलुओं को तो उभारती है ही, 1925 से (अज्ञेय के किशोरावस्था से) 1980 के भारत के राजनीतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक इतिहास का भी दस्तावेज़ बन जाती है.
इस अर्थ में यह जीवनी अज्ञेय की विचारधारा- जहां वह व्यक्ति को समाज से अधिक वरीयता देते हैं-से अलग हो जाती है क्योंकि मुकुल, व्यक्ति अज्ञेय के जीवन और उसके दर्शन को उसके समाज और समय से अलग करके नहीं लिख सकते थे. इसलिए एक साहित्यिक जीवनी से अधिक यह एक विचारक-दार्शनिक की भी जीवनी है, जिस पर उसके समय के प्रभाव थे और जिसने अपने समय को प्रभावित किया था, जिसने विदेशों की अपनी लंबी यात्राओं और प्रवासों के अनुभव से नई-नई संस्कृतियों और परंपराओं को समझा, भारतीय कला और दर्शन के संदर्भ को वैश्विक स्तर पर कॉन्फ्रेंसों में, सेमिनारों में प्रतिनिधित्व दिया, हिंदी साहित्य और भाषा को बर्कले और हाइडलबर्ग जैसे विश्वविद्यालयों में लोकप्रिय बनाया. जिसने वत्सल निधि ट्रस्ट द्वारा साहित्यिक पदयात्राओं और शिविरों के माध्यम से हिंदी साहित्य में नई-नई लहरें उठाईं, जीवन का एक लंबा दौर नए रचनाकारों और साहित्यिकों के मार्गदर्शन और प्रोत्साहन में बिताया (रघुवीर सहाय, निर्मल वर्मा, कैलाश वाजपेयी, राजकमल चौधरी) और अपनी साहित्यिक साझेदारियों (परिमल समूह, प्रकाशक श्रीपत राय, विद्या निवास मिश्र, नेमिचन्द्र जैन) से साहित्य में, पत्रकारिता में नए-नए प्रयोग किए.
जीवनी को लेखन की सुविधा की दृष्टि से मुकुल ने पांच कालखंडों में बांटा है- 1) 1911-36, 2) 1936-43, 3) 1943-52, 4) 1952-1964, 5) 1964-1987. हर कालखंड में अज्ञेय के व्यक्तित्व के अलग-अलग तेवर, अलग-अलग मान्यताएं, अलग-अलग प्राथमिकताएं हैं, पर एक अंतर्धारा जो इन सब में सतत बहती रही है वो है- रचनाकार अज्ञेय की.
व्यक्तियों से, वादों से, संस्थाओं से जुड़ना-मोहभंग होता रहा, पर रचनात्मकता और वैचारिकता की शृंखला ताउम्र बनी रही. मुकुल न केवल अज्ञेय की सभी रचनाओं के लेखन के संदर्भ और प्रकाशन से जुड़ी कहानियां बतलाते हैं, बल्कि हर रचना को वृहत्तर साहित्यिक जगत ने किस प्रकार लिया, इसे भी दिखलाते हैं और इस प्रक्रिया में विभिन्न विचारधाराओं, वादों में विभाजित हिंदी साहित्य-जगत की गतिशील रचनात्मकता को भी बहुत हद तक पकड़ पाते हैं.
साहित्य-जगत की वैचारिक गहमागहमियां, पत्रकारिता से विचार-क्रांति लाने का जज़्बा, यह सब लेखक ने इतनी प्रामाणिकता से बतलाया है कि उस समय के बौद्धिक जन-क्षेत्र (पब्लिक स्फियर) की गतिशीलता और ऊर्जा, साहित्य और पाठक की सक्रिय साझेदारी को देखकर हैरानी होती है.
एक लेखक, विद्रोही, सैनिक और प्रेमी की भूमिकाओं में अगर चुनाव किया जाए तो मेरी दृष्टि में अज्ञेय सबसे पहले और सबसे आखिरी एक लेखक थे. ‘आंगन के पार द्वार‘ पर साहित्य अकादमी पुरस्कार और ‘कितनी नावों में कितनी बार‘ काव्य संग्रह पर ज्ञानपीठ पुरस्कार, उनकी रचनात्मक श्रेष्ठता का प्रमाणपत्र मात्र नहीं, बल्कि हिंदी कविता को अज्ञेय के योगदान की झलक हैं.
लेखक ने उनकी कविताओं के अनूदित अंश बहुत स्थानों पर दिए हैं और लगभग सभी रचनाओं का सार भी यथासंभव दिया है जिससे ‘रचनाकार’ अज्ञेय को समझने में आसानी होगी, विशेषकर उन पाठकों को जिन्होंने अज्ञेय को नहीं पढ़ा है. पर सबसे अधिक रोचक हिस्से वह बन पड़े हैं जहां मुकुल एक ही रचना को लेकर साहित्यिकों-आलोचकों द्वारा की गई प्रतिक्रिया और आम पाठकों के पत्र एक साथ दिखाते चलते हैं.
इस अभ्यास से लेखक की लोकप्रियता-आलोचना का आधार समझने में आसानी होती है. अज्ञेय को लेकर अक्षय मुकुल के निजी विचार प्रत्यक्ष रूप से परिचय और अंतिम खंड के आखिरी हिस्सों में ही आया है. वह अज्ञेय के कार्यों, निर्णयों पर भावावेश में आकर टिप्पणी करने से अधिकांशतः बचे हैं.
अज्ञेय का स्वतंत्रता आंदोलन के दिनों में क्रांतिकारी राष्ट्रवाद से जुड़ना और भगत सिंह-सुखदेव की परंपरा की अगली कड़ी बनने का पूरा इतिहास जितना रोचक है, उतना ही यह समझना कि वह किस प्रकार इसे सैद्धांतिक स्तर पर आत्मसात कर चुके थे. बम बनाने से लेकर, साथी यशपाल से सैद्धांतिक मतभेद यह सब विद्रोही अज्ञेय के व्यक्तित्व के ही एक रूप थे.
आगे चलकर द्वितीय विश्वयुद्ध में जहां भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस युद्ध में भारतीयों को बिना उनकी मर्ज़ी जाने शामिल कर लिए जाने के विरोध में खड़ी थी, वहीं पर क्रांतिकारी अज्ञेय का सेना में सम्मिलित होने का निर्णय भी हतप्रभ करता है. पर जैसा कि मुकुल बार-बार स्पष्ट करते हैं कि अज्ञेय की लड़ाई फ़ासीवादी शक्तियों से थी और इस कार्य के लिए अगर ब्रिटिश सरकार का साथ भी देना पड़े तो वह तैयार थे. क्रांतिकारी जीवन और सैन्य अनुभवों ने अज्ञेय की रचनात्मकता पर गहरा प्रभाव डाला.
अज्ञेय से जुड़े कई विवादों को भी मुकुल संबोधित करते हैं. चाहे वह हिंदी मार्क्सवादी-प्रगतिवादी धड़े के साथ अज्ञेय के सैद्धांतिक मतभेद हों (एक तरह शिवदान सिंह चौहान, नामवर सिंह से विरोध और दूसरी तरफ गजानन माधव मुक्तिबोध से आजन्म तुलना का प्रश्न) या कांग्रेस फॉर कल्चरल फ्रीडम (जिसे सीआईए द्वारा अनुदान दिया जाता था) से जुड़े विवाद- जहां उन पर सीआईए का एजेंट होने का आरोप लगाया गया (जिससे स्वयं जय प्रकाश नारायण को भी जूझना पड़ा था) या किसी पार्टी विशेष की राजनीति से सरोकार नहीं रखने की अज्ञेय की विचारधारा के विरोधाभास, जब वो अंतिम दशकों में दक्षिणपंथ की राजनीतिक मान्यताओं के तरफ झुकते दिखते हैं.
इसी प्रकार, पुरस्कारों के प्रति, विशेषकर राज्य द्वारा दिए गए सम्मानों के प्रति उनका सैद्धांतिक विरोध भी बाद में उतने मुखर रूप में वह खुद पर लागू करते नहीं दिखते. अज्ञेय के व्यक्तित्व के ऐसे कई विरोधाभासों को मुकुल सामने लाते हैं, जहां अधिकांशतः जीवनीकार ने अपनी तटस्थता बनाए रखी है, पर कहीं-कहीं वह अज्ञेय के वक्ता के रूप में भी नजर आते हैं- संभवतः एक अंदरूनी द्वंद्व कि कितने हद तक अज्ञेय के व्यक्तित्व को तर्कसंगत, वैध ठहराया जाए.
पर देखा जाए तो ऐसा लगता है, मानो मुकुल स्वयं अपने ‘विषय’ के लार्जर देन लाइफ जीवन को लेकर उत्सुक हैं, और इसलिए पूरी रचना इस जिज्ञासा का समाधान ढूंढने का प्रयास है.
अज्ञेय ने साहित्य, पत्रकारिता, संस्कृति के क्षेत्र में साहित्यकार और एक बुद्धिजीवी होने की दृष्टि से जितने भी कार्य किए, उन सब का विस्तृत विवरण मुकुल ने दिया है. किताब के शुरुआती खंडों में यह विवरण बोझिल नहीं लगते पर अंतिम खंड आते-आते विवरण इतने शुष्क हो जाते हैं कि लगता है जीवन दृष्टि को उभारने के बजाय अज्ञेय के कार्यों के सूक्ष्म से सूक्ष्म ब्योरों को सिलेसिलेवार रूप से इकट्ठा कर दिया गया है.
पर, लेखक की भी संभवतः अपनी मजबूरी रही हो जब, उनके पास प्रारंभिक स्रोतों का इतना भंडार था (अज्ञेय के पत्र-निजी दस्तावजों से भरे 20 बक्से, कुछ कार्टन और दो अलमारियां) तो किस पहलू को छोड़ना है, और किसे डालना, यह चुनाव करना सबसे दुरूह रहा होगा. पर तथ्यों की अधिकता के बाद भी मुकुल के लिखने की शैली वस्तुतः इतनी रोचक है कि परदे पर फिल्म के दृश्य जिस तरह गुजरते हैं, उसी तरह नायक (कइयों के खलनायक?) अज्ञेय की कहानी हमारे सामने चलती रहती है.
अज्ञेय जो स्वयं यह मानते थे कि उनका जीवन एक आम साहित्यिकार की तरह या यूं कहें कि सामान्य पारंपरिक जीवन के ढर्रे पर नहीं बैठता था, उस व्यक्तित्व को लेखक ने उसकी पूरी विचित्रता में दिखलाया है.
अज्ञेय के जीवन में स्त्रियों की भूमिका को लेकर, प्रेम को लेकर अज्ञेय के नजरिये को बहुत हद तक मुकुल ने उभारा है. चाहे वह ‘शेखर एक जीवनी’ की शशि हो, या ‘नदी के द्वीप’ की रेखा, वह सब अज्ञेय के अपने यथार्थ से निर्मित पात्र थे.
बुआ की लड़की इंदुमती से अज्ञेय का एक अनाम संबंध (जिसका पीछा बहुत दूर तक मुकुल करते हैं), तो कृपा सेन से अज्ञेय की प्रगाढ़ता, जिसे अज्ञेय विवाह में नहीं बदल पाते, या जीवन के अंतिम दशकों में अपने से 30 साल छोटी इला के साथ रहने का निर्णय- यह सब अज्ञेय के जीवन में प्रेम के अलग-अलग पड़ाव हैं.
पहली पत्नी संतोष से शादी का निर्णय अगर एक बड़ी भूल थी तो, उम्र में सत्रह साल छोटी कपिला मलिक (आगे चलकर कपिला वात्स्यायन) से किया गया दूसरा विवाह रचनात्मक जीवन की नई आवश्यकता. पाठक को भले ही यह सब जानकर हैरानी का सामना करना पड़ता हो, पर लेखक अज्ञेय के निर्णयों के मानसिक कारणों की पड़ताल में जुटा दिखता है- उस पड़ताल में वह यही पाता है कि हर बार प्रेम, शादी के भंवर से मुक्त हो जाने की नैतिक ज़िम्मेदारी अज्ञेय बिना किसी अपराधबोध के उन स्त्रियों पर डालते हुए खुद धूल झाड़कर आगे बढ़ जाते हैं.
लेखक इन स्त्रियों से सहानुभूति रखकर भी अज्ञेय पर कड़े प्रश्न उठाने का साहस नहीं दिखाता. मानो अज्ञेय के निर्णयों को सब चुपचाप एक कड़वे घूंट की तरह स्वीकार करने के लिए बाध्य दिखते हैं- चाहे फिर वो अज्ञेय के जीवन की स्त्रियां हो या स्वयं जीवनीकार. शक्ति और प्रभाव के विशेषाधिकार से लैस व्यक्ति के हर कार्य को मौन सहमति किस प्रकार मिली हुई थी, इस पर केवल आश्चर्य ही किया जा सकता है.
बहरहाल, लेखक के अध्ययन की प्रामाणिकता और विस्तार पर कोई सवाल नहीं उठाया जा सकता. अज्ञेय पर अब तक हुए सभी रचनात्मक कामों के गहरे अध्ययन के बाद ही यह किताब लिखी गई है जिसका प्रमाण है किताब के अंत में 200 से भी अधिक पृष्ठों में समाहित संदर्भ सूची और टिप्पणिया. जिस बारीकी से इन स्रोतों का जीवनी के लिए उपयोग किया गया है, उसे देखकर मुकुल की कड़ी मेहनत की सराहना किए बिना नहीं रहा जा सकता.
पर निस्संदेह ऐसी मेहनत का आधार अज्ञेय के लिए पैशन ही हो सकता है. पर चूंकि यह अज्ञेय को केंद्र में रखकर लिखी गई किताब है इसलिए यह स्वाभाविक ही है कि यह सिर्फ अज्ञेय का पक्ष सबसे सबल रूप में रख रही है. जिस तरह मुकुल किताब में इस बात की संभावना देते हैं कि हिंदी पत्रकारिता-प्रकाशन संस्थाओं के इतिहास पर शोध होना चाहिए ताकि अज्ञेय और उन जैसे कई संपादकों के योगदान का आकलन किया जा सकेगा. उसी तरह अज्ञेय के प्रतिपक्ष रचने वालों पर भी इतना ही विस्तृत शोध न केवल एक नए व्यक्तित्व को सतह पर लाएगा बल्कि उससे साहित्य की वैचारिक गतिशीलता का एक अलग इतिहास लिखा जा सकेगा.
और एक और अहम बात जो इस जीवनी को पढ़कर लगती है वह यह है कि अज्ञेय के विशेषाधिकारों से भरी हुई ज़िंदगी- जहां सुविधाओं, साधनों और मौकों की कोई कमी नहीं थी, पर तो महाकाव्य लिख दिया गया, ऐसा महाकाव्य क्या औरों पर (जिनके पास विशेषाधिकार नहीं रहे) लिखा जा सकेगा- क्या उनके जीवन की भी महानता या न्यूनता तय की जा सकेगी- वह भी विशेषाधिकार वाली भाषा अंग्रेजी में?
अक्षय मुकुल की साल 2015 में प्रकाशित पहली किताब ‘गीता प्रेस एंड द मेकिंग ऑफ हिंदू इंडिया’ ने हिंदू राष्ट्रवाद के अध्ययन में एक नया अध्याय जोड़ा था. धार्मिक पत्रिकाओं की भूमिका एक व्यापक सांप्रदायिक हिंदू जनमत तैयार करने में किस प्रकार महत्वपूर्ण रही, मुकुल ने अपनी पहली किताब में दिखलाया था. संभव है, अज्ञेय की यह विस्तृत जीवनी हिंदी और बाकी भाषाओं के रचनाकारों पर भी इस तरह के विस्तृत शोध के लिए नए रास्ते खोले.
(अदिति भारद्वाज दिल्ली विश्वविद्यालय में शोधार्थी हैं.)