मंडला की पहचान अब सतत प्रवाहमान नर्मदा के साथ रज़ा से भी बन रही है

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: मध्य प्रदेश के मंडला में चित्रकार सैयद हैदर रज़ा की स्मृति में ज़िला प्रशासन द्वारा बनाई गई कला वीथिका क्षेत्र के एकमात्र संस्कृति केंद्र के रूप में उभर रही है.

/

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: मध्य प्रदेश के मंडला में चित्रकार सैयद हैदर रज़ा की स्मृति में ज़िला प्रशासन द्वारा बनाई गई कला वीथिका क्षेत्र के एकमात्र संस्कृति केंद्र के रूप में उभर रही है.

रज़ा स्मृति के दौरान मंडला की रज़ा वीथिका में हुई विभिन्न गतिविधियां. (सभी फोटो साभार: रज़ा फाउंडेशन/फेसबुक पेज)

इस बार चित्रकार सैयद हैदर रज़ा की छठवीं पुण्यतिथि पर हम फिर मंडला में थे, जहां यह मूर्धन्य अपने पिता के बग़ल की कब्र में दफ़न है. दोनों के अंतिम शरण्य को कुछ व्यवस्थित और सुकल्पित रूप दे दिया गया है. मंडला से नागपुर और जबलपुर को जाने वाली सड़कें भी अब बेहतर हैं. इसी बारिश में हमें उनका शव नागपुर से लाने में छ: से अधिक घंटे लगे थे- इस बार लौटने में चार घंटे काफ़ी हुए.

मंडला में रज़ा के नाम पर ज़िला प्रशासन ने एक कला वीथिका बनाई है और एक मार्ग का नाम उन पर रखा है. चूंकि इस बार हम रज़ा जन्मशती भी मना रहे हैं, हमारा वार्षिक आयोजन कुछ अधिक विशद और विपुल था.

दो महीने से चल रही बच्चों की कथक कार्यशाला संपन्न हुई. बच्चों के ही लिए मिट्टी में काम करना सिखाने की एक कार्यशाला हुई. नागरिकों ने गमले और छातों पर चित्रकारी की और हमने उन्हें चित्रित सामग्री को अपने साथ घर ले जाने दिया. थोड़ा और पहले हुई पत्थर पर शिल्प बनाने की एक युवा मूर्तिकला कार्यशाला में जो शिल्प बने वे अब वीथिका के अहाते में स्थायी रूप से प्रदर्शित हैं.

इस बार हम बारिश और अन्य असुविधाओं के कारण नर्मदा-तट पर कुछ करने नहीं जा पाए. सारी गतिविधियां रज़ा वीथिका के परिसर या उसके अंदर हुईं. वीथिका मंडला में एकमात्र संस्कृति केंद्र के रूप में इस तरह उभरी.

उज्जैन से आई वादक बहनों ने संतूर और सितार पर दुर्लभ प्रस्तुति दी. हिन्दी-कविता के अधिकांशतः युवा कवियों ने दो शामें कविता-पाठ किया. ये सभी क्रिया-कलाप मंडला के लिए नए और उत्साहवर्द्धक हैं. धीरे-धीरे मंडला जैसे कस्बाई शहर में और उसके आस-पास भी, लगता है, एक तरह की नई सांस्कृतिक चेतना उभर रही है और अब रज़ा फाउंडेशन की वहां होने वाली गतिविधियां उनके कैलेंडर में जगह पा गई हैं.

इस बार वीथिका में चौबीस गोंड चित्रकारों की एक प्रर्दशनी भी आयोजित थी. हम सभी, जिनमें मंडला के बच्चे और नागरिक भी शामिल थे, इस बात को लेकर चकित थे कि गोंड चित्रकारी में इधर जो बेहद सर्जनात्मक और कल्पनाशील उभार आया है, उसमें सूक्ष्मता, परिष्कार, कौशल और उन्मुक्त कल्पना सभी प्रगट हो रहे हैं. ये सभी गोंड चित्रकार उसी अंचल के हैं.

मंडला में आधुनिक कविता ऊपर से थोड़ी बेमेल बात लगती है. लेकिन पिछले कुछ सालों से हम समकालीन कविता यहां के नागरिकों के समक्ष प्रस्तुत करते रहे हैं. इस बार यह स्पष्ट था कि उसे लेकर एक सजग रसिकता आकार ले रही है. हो सकता है कि हम अपना वार्षिक युवा लेखक समागम इस वर्ष मंडला में ही करें.

यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि अब मंडला की पहचान ‘सर्वत्र पुण्या, उभयतटतीर्था की पुराण-कीर्ति वाली नर्मदा, जो सतत प्रवाहमान है, से है और आधुनिक कला-मूर्धन्य रज़ा से भी बन रही है.

पुणें में कथक

पुणे दशकों से हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की राजधानी रहा है. पर उसे उत्तर भारत के शास्त्रीय नृत्य का एक बड़ा केंद्र बनाने में गुरु-विदुषी रोहिणी भाटे और उनकी संस्था ‘नृत्य भारती’ की बढ़ी भूमिका रही है. इस संस्था की स्थापना उसी वर्ष हुई थी कि जिस वर्ष भारत स्वतंत्र हुआ था और पिछले दिनों उसके अमृत महोत्सव में जाने का सुयोग हुआ.

रोहिणी जी ने जब कुल 25 वर्ष की आयु में यह संस्था स्थापित की थी तो वे स्वयं विभिन्न गुरुओं से सीख रही थीं और साथ-ही-साथ सिखा रही थीं. यह क्रम एक तरह से उनके जीवन भर चलता रहा- सीखना और सिखाना.

कलाकार और गुरु होने के अलावा रोहिणी जी विदुषी थीं, ऐसी कि कथक के ज्ञात इतिहास में उन जैसी कोई विदुषी उनसे पहले हुई ही नहीं. वे शास्त्रीय संगीत में निष्णात, संस्कृत की अध्येता, परंपरा की सजग अवगाहक सब एक साथ थीं.

उन्होंने कथक को, पुणे में यानी कथक के मूल अंचल उत्तर भारत से बहुत दूर, स्थापित और प्रतिष्ठित किया जो कई तरह से कथक के भूगोल का विस्तार था. इससे पहले मुंबई में कथक आ चुका था पर एक ओर फिल्म के आकर्षण से और अन्यथा वहां कथक पर विचार की कोई परंपरा नहीं बन पाई. इसका उपक्रम पुणे में संभव हुआ.

वैदिक-औपनिषदिक संपदा से, आद्य शंकराचार्य के काव्य आदि से रोहिणी जी ने सामग्री लेकर उन्हें कथक में बहुत मार्मिक और भव्य रूप में प्रस्तुत किया. इस प्रयत्न ने एक तरह से कथक को अपने संस्कृत और प्राकृत मूलों से फिर से जोड़ा और उसे स्वयं अपने सुदूर अतीत की याद दिलाई. यह कथक के इतिहास का विस्तार था जो बिना किसी दावे के किया गया.

हम यह न भूलें कि कथक के घरानेदार कथक के जन्म को अपने दस-पंद्रह पीढ़ियों पहले के पुरखों भर से जोड़ पाते थे. रोहिणी जी ने एक तरह से भरत के नाट्यशास्त्र से कथक को जोड़कर उसकी सच्ची जातीय स्मृति को सक्रिय किया.

रोहिणी जी का तीसरा अवदान यह था कि उन्होंने स्वयं कथक के विभिन्न पक्षों पर विद्वत्ता और ज़िम्मेदारी से लिखा और उसे वैचारिक-बौद्धिक पृष्ठभूमि प्रदान की. उनके यहां कथक निरे कौशल का नहीं दृष्टि का भी मामला था. बिना ऐसा कोई दावा किए रोहिणी जी ने हमें सिखाया कि नृत्य भी मनुष्य और उसके संसार पर, उसके संभावनाओं और सौंदर्य पर, उसके सम्मोहन और विचलन पर विचार करने की एक वैध विधा है.

कथक पर उनके विचार और अन्वेषण की पुस्तक ‘लहजा’ (जो हिन्दी अनुवाद में रज़ा पुस्तक माला के अंतर्गत राजकमल द्वारा प्रकाशित) कथक और नृत्य विचार में एक प्रतिमान ग्रंथ है.

लगभग तीन घंटे की एक लंबी विविध विपुल प्रस्तुति में ‘नृत्यभारती’ ने रोहिणी जी के समूचे काम को पुरानी क्लिप्स और युवा कलाकारों की जीवित प्रस्तुतियों द्वारा सजीव किया. उनकी रेंज, नवाचार, सघन विचारशीलता, कौशल, दृष्टि सभी अनोखे और आश्चर्यकारी लगे.

अपना रोना

आत्माभिव्यक्ति शब्‍द कुछ बासा-फीका पड़ गया है और उसका इस्तेमाल आजकल कोई लेखक अपनी दृष्टि या कौशल को बताने के लिए नहीं करता. उसे एक रूमानी धारणा मान लिया गया और शायद यह पूर्वाग्रह भी ख़ासा व्यापक है कि साहित्य का काम समाज की स्थिति और संभावना को व्यक्त करना है और आत्माभिव्यक्ति इस उदात्त लक्ष्य के आड़े आती है.

आत्म की चर्चा हमारे चालू विमर्शों में कहीं नहीं होती: हम ज़्यादातर ‘समाज’ और ‘व्यक्ति’ से काम चला लेते हैं. वहां भी व्यक्ति का कोई आत्यंतिक महत्व नहीं है- वह सार्थक या ध्यान देने योग्य तभी है जब उसका कुछ स्पष्ट संबंध या संदर्भ समाज से हो.

इस सिलसिले में अगर आप आजकल का साहित्य देखें तो उसमें एक महत्वपूर्ण और बड़ा हिस्सा ऐसा है जिसमें कवि या लेखक कुछ अपना रोना रोता है. यह आत्माभिव्यक्ति क्यों नहीं है यह समझ पाना कठिन है.

इसका एक अर्थ यह भी है कि न तो व्यक्ति अनिवार्यतः समाज से विविक्त है और न ही समाज व्यक्ति से. यह आशय निकालना भी अनुचित या अनुपयुक्त नहीं है कि वही समाज सम्यक् और स्वस्थ, लोकतांत्रिक और मानवीय कहा जा सकता है जो व्यक्ति को आत्माभिव्यक्ति का अवसर और अधिकार देता है.

जैसे सामाजिकता वैसे ही आत्माभिव्यक्ति, साहित्य में अनिवार्यतः एक-दूसरे से गुंथे होते हैं. आत्माभिव्यक्ति की व्यापकता से उसकी सामाजिकता तय होती है. न तो साहित्य में, न ही समाज में आत्म के बिना सार्थक सामाजिकता संभव है.

हम यह न भूलें कि साहित्य में मर्म, अंतर्ध्वनि, गहराई, अद्वितीय आत्म की स्थिति और सक्रियता से ही संभव हो पाती हैं. आत्महीन सामाजिकता अक्सर खोखली होती हैं. जैसे आत्मरति हमेशा ही अनुर्वर. आत्म का अवमूल्यन, सामाजिकता का भी अवमूल्यन हो सकता है. ऐसी साहित्यिक अभिव्यक्ति जिसमें आत्म अनुगुंजित न हो, मार्मिक या स्मरणीय नहीं हो सकती.

(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)

pkv bandarqq dominoqq pkv games dominoqq bandarqq sbobet judi bola slot gacor slot gacor bandarqq pkv pkv pkv pkv games bandarqq dominoqq pkv games pkv games bandarqq pkv games bandarqq bandarqq dominoqq pkv games slot pulsa judi parlay judi bola pkv games pkv games pkv games pkv games pkv games pkv games pkv games bandarqq pokerqq dominoqq pkv games slot gacor sbobet sbobet pkv games judi parlay slot77 mpo pkv sbobet88 pkv games togel sgp mpo pkv games
slot77 slot triofus starlight princess slot kamboja pg soft idn slot pyramid slot slot anti rungkad depo 50 bonus 50 kakek merah slot bandarqq dominoqq pkv games pkv games slot deposit 5000 joker123 wso slot pkv games bandarqq slot deposit pulsa indosat slot77 dominoqq pkv games bandarqq judi bola pkv games pkv games bandarqq pkv games pkv games pkv games bandarqq pkv games depo 25 bonus 25 slot depo 10k mpo slot pkv games bandarqq bandarqq bandarqq pkv games pkv games pkv games pkv games slot mahjong pkv games slot pulsa