बिलक़ीस केस: दोषियों की सज़ा माफ़ी की समिति में थे भाजपा विधायक और गोधरा मामले के गवाह

बिलक़ीस बानो के सामूहिक बलात्कार और उनके परिजनों की हत्या के 11 दोषियों की सज़ा माफ़ करने वाली समिति के चार सदस्य भाजपा से जुड़े थे, जिनमें दो विधायकों के अलावा पूर्व पार्षद और गोधरा अग्निकांड मामले के गवाह मुरली मूलचंदानी शामिल थे. उस मामले में उनकी गवाही को कोर्ट ने झूठा क़रार दिया था.

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15 अगस्त 2022 को दोषियों के जेल से रिहा होने के बाद उनका स्वागत किया गया था. (फोटो: पीटीआई)

बिलक़ीस बानो के सामूहिक बलात्कार और उनके परिजनों की हत्या के 11 दोषियों की सज़ा माफ़ करने वाली समिति के चार सदस्य भाजपा से जुड़े थे, जिनमें दो विधायकों के अलावा पूर्व पार्षद और गोधरा अग्निकांड मामले के गवाह मुरली मूलचंदानी शामिल थे. उस मामले में उनकी गवाही को कोर्ट ने झूठा क़रार दिया था.

15 अगस्त को दोषियों के जेल से रिहा होने के बाद हुआ उनका स्वागत. (फोटो: पीटीआई)

नई दिल्ली: गुजरात में भारतीय जनता पार्टी के दो विधायक उस समिति का हिस्सा थे जिसने 2002 के दंगों में बिलकिस बानो के साथ हुए सामूहिक बलात्कार और उनके परिवार के सात सदस्यों की हत्या करने वाले 11 दोषियों की रिहाई की सिफारिश की थी.

द हिंदू की रिपोर्ट के अनुसार, भाजपा विधायक सीके राउलजी और सुमन चौहान गोधरा कलेक्टर और जिला मजिस्ट्रेट सुजल मायत्रा की अध्यक्षता वाली उस समिति का हिस्सा थे, जिसने इन दोषियों को सजा में छूट की सिफारिश करने के लिए ‘सर्वसम्मति से निर्णय’ लिया.

समिति के दो अन्य सदस्य भी भाजपा से जुड़े हुए हैं. अखबार के अनुसार, वे सामाजिक कार्यकर्ता और भाजपा गोधरा नगर निगम के पूर्व पार्षद मुरली मूलचंदानी और भाजपा की महिला शाखा की कार्यकर्ता स्नेहाबेन भाटिया हैं.

मूलचंदानी को गोधरा ट्रेन अग्निकांड, जिसमें अयोध्या से लौट रहे 59 कारसेवकों को जिंदा जला दिया गया था, के मामले में अभियोजन पक्ष द्वारा एक चश्मदीद गवाह के तौर पर पेश किया गया था.

एक निजी मीडिया आउटलेट द्वारा किए गए एक स्टिंग ऑपरेशन में मूलचंदानी, को दो अन्य चश्मदीद गवाहों नितिन पाठक और रंजीत जोधा पटेल के साथ कथित तौर पर ऐसे बयान देते हुए दिखाया गया था, जो उनकी मूल गवाही के उलट थे.

हालांकि, इस बात को मामले को देख रही एक विशेष फास्ट ट्रैक अदालत द्वारा स्वीकार नहीं किया गया था. यहां जज ने-स्पष्ट विसंगतियों के आधार पर- स्वयं यह निष्कर्ष निकाला था कि मूलचंदानी और अन्य तथाकथित गवाहों को ‘सच्चा गवाह’ नहीं कहा जा सकता है और ‘इस अदालत के पास उनके सबूतों को पूरी तरह से खारिज करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है.’

इसके अलावा समिति में जिला समाज कल्याण अधिकारी, एक सत्र न्यायाधीश और जेल अधीक्षक भी शामिल थे.

गुजरात सरकार द्वारा इस समिति की सिफारिश को स्वीकार करने के बाद 11 दोषियों को रिहा कर दिया गया और विश्व हिंदू परिषद और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा उनका जोरदार स्वागत किया गया.

समिति के एक के सदस्य ने द हिंदू से कहा, ‘हमें लगा कि दोषियों ने पहले ही काफी कुछ भुगता है और इसलिए उन्हें समय से पहले रिहा किया जाना चाहिए.’

हालांकि, समिति के सदस्य ने अखबार को यह बताने से इनकार कर दिया कि उनकी कितनी बैठकें हुई और निर्णय पर पहुंचते समय किन पहलुओं पर विचार किया गया.

गोधरा के विधायक राउलजी ने अखबार को बताया कि समिति ने ‘प्रक्रिया का पालन किया और नियमों के अनुसार काम किया.’

इस बीच एक मीडिया संस्थान से बात करते हुए राउलजी ने कहा कि दोषियों का व्यवहार जेल में अच्छा था. वे कहते हैं, ‘अपराध किया या नहीं ये नहीं पता लेकिन उनके परिवार का आचार-व्यवहार अच्छा था. वैसे भी वो ब्राह्मण थे, उनके संस्कार बहुत अच्छे होते हैं.’

वे यह भी कहते हैं कि एक समुदाय के लोगों द्वारा दूसरे समुदाय के लोगों को फंसाया जाता है.

समिति में शामिल भाजपा अन्य सदस्य सुमन चौहान गोधरा जिले के कलोल से पहली बार विधायक बनी हैं.

इससे पहले बुधवार को अपनी वकील के जरिये जारी बयान में बिलकीस ने गुजरात सरकार से इस फैसले को वापस लेने की अपील की है.

बिलकीस बानो ने कहा कि इस मामले में उम्रकैद की सजा काट रहे 11 दोषियों की समयपूर्व रिहाई से न्याय पर उनका भरोसा डिग गया है.

बिलकीस ने आगे कहा, ‘मैंने इस देश की सबसे बड़ी अदालत पर भरोसा किया. मैंने व्यवस्था पर भरोसा किया और मैं धीरे-धीरे अपने सदमे के साथ जीना सीख रही थी. दोषियों की रिहाई ने मेरी शांति छीन ली है और न्याय-व्यवस्था पर से मेरा भरोसा डिग गया है.’

उन्होंने यह भी जोड़ा, ‘मेरा दुख और डगमगाता भरोसा सिर्फ अपने लिए नहीं है, बल्कि उन सब औरतों के लिए है जो इंसाफ की तलब में आज अदालतों में लड़ रही हैं.’

गौरतलब है कि 27 फरवरी, 2002 को साबरमती एक्सप्रेस के डिब्बे में आग लगने की घटना में 59 कारसेवकों की मौत हो गई. इसके बाद पूरे गुजरात में दंगे भड़क गए थे. दंगों से बचने के लिए बिलकीस बानो, जो उस समय पांच महीने की गर्भवती थी, अपनी बच्ची और परिवार के 15 अन्य लोगों के साथ अपने गांव से भाग गई थीं.

तीन मार्च 2002 को वे दाहोद जिले की लिमखेड़ा तालुका में जहां वे सब छिपे थे, वहां 20-30 लोगों की भीड़ ने बिलकीस के परिवार पर हमला किया था. यहां बिलकीस बानो के साथ सामूहिक बलात्कार किया गया, जबकि उनकी बच्ची समेत परिवार के सात सदस्य मारे गए थे.

बिलकीस द्वारा मामले को लेकर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग में पहुंचने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई जांच के आदेश दिए थे. मामले के आरोपियों को 2004 में गिरफ्तार किया गया था.

मामले की सुनवाई अहमदाबाद में शुरू हुई थी, लेकिन बिलकीस बानो ने आशंका जताई थी कि गवाहों को नुकसान पहुंचाया जा सकता है, साथ ही सीबीआई द्वारा एकत्र सबूतों से छेड़छाड़ हो सकती, जिसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने अगस्त 2004 में मामले को मुंबई स्थानांतरित कर दिया.

21 जनवरी 2008 को सीबीआई की विशेष अदालत ने बिलकीस बानो से सामूहिक बलात्कार और उनके सात परिजनों की हत्या का दोषी पाते हुए 11 आरोपियों को उम्रकैद की सजा सुनाई थी. उन्हें भारतीय दंड संहिता के तहत एक गर्भवती महिला से बलात्कार की साजिश रचने, हत्या और गैरकानूनी रूप से इकट्ठा होने के आरोप में दोषी ठहराया गया था.

सीबीआई की विशेष अदालत ने सात अन्य आरोपियों को सबूतों के अभाव में बरी कर दिया. एक आरोपी की सुनवाई के दौरान मौत हो गई थी.

इसके बाद 2018 में बॉम्बे हाईकोर्ट ने आरोपी व्यक्तियों की दोषसिद्धि बरकरार रखते हुए सात लोगों को बरी करने के निर्णय को पलट दिया था. अप्रैल 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने गुजरात सरकार को बिलकीस बानो को 50 लाख रुपये का मुआवजा, सरकारी नौकरी और आवास देने का आदेश दिया था.

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