मुक्ति की अनथक आकांक्षा

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: धूमिल ने दशकों पहले ‘दूसरे प्रजातंत्र’ की बात की थी, हमें अब अपना पुराना, भले अपर्याप्त, लोकतंत्र चाहिए. वह हमें पूरी तरह से मुक्त नहीं करेगा पर उस ओर बढ़ने की ऊर्जा, अवसर और साहस तो देगा.

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(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रवर्ती/द वायर)

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: धूमिल ने दशकों पहले ‘दूसरे प्रजातंत्र’ की बात की थी, हमें अब अपना पुराना, भले अपर्याप्त, लोकतंत्र चाहिए. वह हमें पूरी तरह से मुक्त नहीं करेगा पर उस ओर बढ़ने की ऊर्जा, अवसर और साहस तो देगा.

(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रवर्ती/द वायर)

कोई भी मनुष्य, किसी भी समाज या समय में रहता हो, मुक्ति की आकांक्षा ज़रूर करता है. हमारी परंपरा में मोक्ष और निर्वाण उसी मुक्ति के रूप हैं, जिसे सामूहिक मुक्ति में, स्वतंत्रता संग्राम के दौरान, मुख्यतः महात्मा गांधी ने बदला. अब हम जब स्वतंत्रता-समता-न्याय की बात करते हैं तो वे सामूहिक रूप से सबको उपलब्ध हों यही आकांक्षा करते हैं.

फिर याद करें कि सार्त्र से जीवन भर असहमत कवि आक्तावियो पाज़ ने सार्त्र की उक्ति ‘नरक दूसरे लोग हैं’ को बदलते हुए उनकी मृत्यु के बाद उन्हें प्रणति देते हुए कहा ‘मुक्ति दूसरे लोग हैं’.

आज हम जहां हैं, वहां हमें कैसी और किससे मुक्ति चाहिए इस पर कुछ विचार करना ज़रूरी है. हमें चाहिए मुक्ति उस राजनीति से, जो लोकतंत्र की प्रक्रियाओं का उपयोग कर लोकतंत्र की आत्मा को नष्ट कर रही है. उस राजनीति से, जो हमें स्वतंत्रता-समता-न्याय के संवैधानिक मूल्यों और लक्ष्यों से सुनियोजित ढंग से दूर ले जा रही है.

हमें उस मानसिकता से मुक्ति चाहिए, जो ‘दूसरों’ को नष्ट या अप्रासंगिक करना चाहती है ताकि हम दूसरों की मुक्ति में ही अपनी मुक्ति देख-पहचान सकें. हमें उस छद्म धार्मिकता से मुक्ति चाहिए, जो हमें ‘पीर पराई’ जानने से रोकती है.

हमें मुक्ति चाहिए उस लगातार फैलाई घृणा से, जो हमारे अनेक नागरिकों को दोयम दर्जे का नागरिक बनने पर मजबूर कर रही है. हमें मुक्ति चाहिए उस सामाजिक-आर्थिक कल्पना से, जिसमें ग़रीब और वंचित ग़ायब हैं या लगातार नज़रअंदाज़ किए जा रहे हैं. हमें मुक्ति चाहिए उस आर्थिकी से, जिसके चलते ग़रीब ग़रीबतर और अमीर और अमीर हो रहे हैं.

हमें मुक्ति चाहिए उन झूठों से, जो मीडिया और नई टेक्नोलॉजी और बाज़ार मिलकर बहुत तेज़ी से फैला रहे हैं और जिनके कारण हम सच और सचाई से लगातार दूर होते जा रहे हैं. हमें मुक्ति चाहिए लोकतंत्र में उस पालतू स्वामिभक्त सत्ता-परस्त मीडिया से, जो हमें असली मुद्दों से दूर रखकर महत्‍वहीन तुच्छ मुद्दों में उलझा रहा है और जो निज़ाम का भोंपू बन गया है.

हमें मुक्ति चाहिए अपनी भाषा के बढ़ते प्रदूषण और विकारों से जो उसे झगड़े, गाली-गलौज़, नफ़रत और असहिष्णुता का माध्यम बना रहे हैं.

हमें मुक्ति चाहिए उन विज्ञापनों से, जो राजनेताओं की तस्वीरें छाप-छापकर भयानक ऊब पैदा कर रहे हैं. हमें चाहिए मुक्ति उस विस्मृति से, जो मनमाने ढंग से, बिना तर्कसंगत साक्ष्य के, नया इतिहास रचने और मनवाने पर आमादा है और जो हमें ‘जो हुआ’ उसे भूलने और ‘जो नहीं हुआ’ उसे याद रखने के लिए कह रही है.

हमें मुक्ति चाहिए उन धर्मों की जकड़बंदी से, जो घृणा-हिंसा-हत्या-असत्य का सहारा ले रहे हैं, अपने मूल सत्व और अध्यात्म से विश्वासघात करते हुए. हमें मुक्ति चाहिए आंकड़े दबाने या उन्हें विनियोजित करने के सरकारी खेल से.

हमें मुक्ति चाहिए आपस में बढ़ते परस्पर अविश्वास और संदेह की ज़हनियत से. सांस्कृतिक रूप से निरक्षर राजनेताओं के सांस्कृतिक संस्थाओं पर नियंत्रण और नियमन से. धूमिल ने दशकों पहले ‘दूसरे प्रजातंत्र’ की बात की थी, हमें अब अपना पुराना, भले अपर्याप्त, लोकतंत्र चाहिए. वह हमें पूरी तरह से मुक्त नहीं करेगा पर उस ओर बढ़ने की ऊर्जा, अवसर और साहस तो देगा.

हम क्या?

जिस तरह की लाचारगी परिदृश्य में छाई और व्यापक हुई दिखती है उससे यह नतीजा निकालना अनुपयुक्त नहीं है कि हम ज़्यादातर दुनिया या माहौल या मानसिकता बदलने की ज़िम्मेदारी दूसरों पर डालकर संतुष्ट हो गए लगते हैं. कुछ भी अकेले दूसरों से नहीं बदल सकता और बदलाव में अगर हमारी हिस्सेदारी नहीं होगी तो वह कभी आएगा ही नहीं.

उचित ही यह सवाल उठता है कि हम किस तरह का बदलाव चाहते हैं. इस बारे में विचारों और दृष्टियों की बहुलता है. इसी का लाभ वे शक्तियां उठाती हैं, जिनके पास बदलाव की एकतान दृष्टि है, भले ही वह कितनी भी लोकतंत्र-विरोधी क्यों न हो.

समकालीन राजनीति में यह बिल्कुल साफ़ नज़र आ रहा है. चूंकि लक्ष्य की एकता नहीं है और बदलाव के स्वरूप पर सहमति नहीं है, विकल्प की संभावना भी घट गई लगती है. उससे लाचारगी के अलावा एक तरह की आरामदेह निष्क्रियता उभरती है और अपना औचित्य भी पा लेती है.

एक और बात है. वह यह कि हमसे से हरेक यह सोच सकता है कि ‘मेरे अकेले से क्या हो सकता है?’ और ऐसा सोचना लगभग स्वाभाविक है. पर यह पूरी तरह से नैतिक और सर्जनात्मक नहीं है. अकेले से परिवर्तन नहीं होता पर अनेक अकेलों से परिवर्तन संभव है. इसका अर्थ यह है कि हम परिवर्तन लाने की ज़िम्मेदारी दूसरों पर डालने से बाज़ आएं और खुद पहल करें.

उसके साथ ही कोशिश करें कि समानधर्मा लोग भी साथ जुड़ें. यह वस्तुनिष्ठ आकलन नहीं होगा कि इस समय में परिवर्तन चाहने वाले लोगों की कमी है. ऐसे लोगों की संख्या तो बहुत है और कुछ बुनियादी चीज़ों पर उनकी एकमति संभव है. अगर हम स्वतंत्रता-समता-न्याय के पुनर्वास को एक प्रेरक और न्यूनतम सहमति संभव करने वाली मूल्य-त्रयी मानें तो बहुत लोग साथ आ सकते हैं.

सीधी कार्रवाई एक लुभावना कर्म तो हैं पर पर्याप्त कर्म नहीं है. जो सीधी कार्रवाई कर सकने की सामर्थ्य और इच्छा जुटा सकते हैं, वे ज़रूर वैसी कार्रवाई करें. पर साहित्य और कलाओं और संस्कृति के अन्य क्षेत्रों, शिक्षा आदि में सक्रिय लोग अपने सृजन, विचार और कर्म में इन मूल्यों का प्रतिपादन, उनका विवेचन, उनकी आवश्यकता और प्रासंगिकता पर जोर दें और उनका एक प्रभावशाली मानवीय-सामाजिक वृत्त बनाएं.

साहित्य-कला कर्म नागरिक कर्म है और उसमें नागरिकता को साहसी, निर्भीक और मुखर होना चाहिए. लिखकर, बोलकर, रचकर हम कुछ आगे बढ़ सकते हैं. हम कह सकते हैं कि जब लोकतंत्र ध्वस्त हो रहा था, स्वतंत्रता-समता-न्याय के मूल्य अवमूल्यित हो रहे थे, जब घृणा और झूठ तेज़ी से फैलाए जा रहे थे तब हमने समुदाय और व्यक्ति दोनों ही रूपों में इन मूल्यों का पुनर्वास करने, सच और सचाई का साथ देने की कोशिश की.

इतिहास गवाह है कि ऐसी कोशिशें निरर्थक नहीं जातीं. एक नई हिस्सेदार सजग सृजनशील नागरिक निर्भीकता और सक्रियता की ज़रूरत है. लोकतंत्र को हमेशा रही है और संकटग्रस्त लोकतंत्र को तो और भी.

संवाद की कठिनाई

लोकतंत्र में संवाद का अर्थ ही कई दृष्टियों और मूल्यों के बीच संवाद होता है. आज जब हम हिंदुत्व नामक एक राजनीतिक विचारधारा को सत्तारूढ़ और वर्चस्वशाली और लोकप्रिय होते देखते हैं तो उसके विचारधारियों से संवाद करने की लोकतांत्रिक अपेक्षा की क्या स्थिति है?

ज़्यादातर संवादों में उनकी जगह नहीं बनती. इसका एक कारण तो शायद यह है कि इस विचारधाारा से अलग विचार-दृष्टियों की पर्याप्त बहुलता है और कई विरोधी दृष्टियों के बीच संवाद होता रहता है और पर्याप्त लोकतांत्रिक लगता है.  दूसरा कारण यह है कि इस विचारधारा ने स्वयं दूसरों से संवाद को ज़रूरी या प्रासंगिक नहीं माना है.

उसका जो राजनीतिक रूप विन्यस्त हुआ है उसमें सारा विपक्ष यानी दूसरी दृष्टियां राष्ट्र-विरोधी क़रार दी गई हैं और वैचारिक असहमति को अपराध लगातार मानकर यथासंभव दंडित किया जा रहा है. इसका एक अर्थ यह भी है कि यह विचारधारा संवाद में विश्वास नहीं करती जो कि, एक तरह से, लोकतंत्र में ही विश्वास न करने के बराबर है. उसे अगर संवाद से बाहर रखा जा रहा है तो यह उसके ही विश्वासों और आचरण के कारण. रंगे हाथों आप पकड़े तो जा सकते हैं पर संवाद नहीं कर सकते.

एक तीसरा कारण शायद यह है कि हिंदुत्व की मूल प्रेरणा नकारात्मक है: वह धर्म का दावा करने के बावजूद अपने मूल सत्व में हिंदू धर्म के अध्यात्म, चिंतन-परंपरा, संस्थापक ग्रंथों का निषेध करता है, अपनी दृष्टि और आचरण दोनों में. उसकी हिंदू राष्ट्र की कल्पना भारत के स्वतंत्रता-संग्राम और उसके व्यापक संघर्ष का अस्वीकार है जिसके फलस्वरूप हम एक लोकतांत्रिक गणतंत्र बने. वह दूसरे धर्मों से घृणा और उनके स्वीकार को बढ़ावा देता है जो हमारे संवैधानिक लक्ष्यों का अस्वीकार है.

हमारे लोकतंत्र की यह बड़ी विडंबना है कि सत्ताधारी विचारधारा ने स्वयं अपने से कोई सार्थक बौद्धिक-सर्जनात्मक खुला संवाद असंभव कर दिया है.

(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)