क्या केंद्र की सहमति के बिना चलने वाली कोई भी कल्याणकारी योजना ‘फ्रीबीज़’ कही जाएगी

भारतीय मध्यवर्ग अक्सर ग़रीबों को दी जाने वाली मुफ़्त सुविधाओं/कल्याणकारी योजनाओं की आलोचना करता है, लेकिन मुफ़्त सुविधा या फ्रीबी और कल्याणकारी योजनाओं के बीच अंतर तब जटिल हो जाता है जब राजनीतिक दल अपने-अपने हित के हिसाब से व्याख्याएं पेश करते हैं.

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(प्रतीकात्मक फोटो: रॉयटर्स)

भारतीय मध्यवर्ग अक्सर ग़रीबों को दी जाने वाली मुफ़्त सुविधाओं/कल्याणकारी योजनाओं की आलोचना करता है, लेकिन मुफ़्त सुविधा या फ्रीबी और कल्याणकारी योजनाओं के बीच अंतर तब जटिल हो जाता है जब राजनीतिक दल अपने-अपने हित के हिसाब से व्याख्याएं पेश करते हैं.

(फोटो: रॉयटर्स)

बड़े पैमाने पर घरेलू मांग-उन्मुख अर्थव्यवस्था होने के कारण महामारी के बाद भारत की आर्थिक स्थिति में सुधार हो रहा है. हालांकि साल की शुरुआत में जो सोचा गया था, उससे धीमी रफ़्तार में ही सही वित्त वर्ष 2022-23 में आर्थिक वृद्धि मजबूत होने के साथ वित्त वर्ष 2023 के लिए 7.3% जीडीपी वृद्धि की उम्मीद है. लेकिन उच्च घरेलू मांग का एक दूसरा पहलू भी है. अर्थव्यवस्था आपूर्ति के साथ उच्च मांग को संतुलित करने के लिए संघर्ष कर रही है, जिसके कारण भारत में महंगाई अपेक्षाकृत अधिक बनी हुई है.  इस प्रकार, ईंधन की उच्च कीमतें निश्चित रूप से महंगाई के लिए जिम्मेदार हैं, जहां भारत के लिए यह महंगाई व्यापक और लगातार बनी हुई है.

बढ़ती महंगाई बड़ी चुनौती बनी हुई है. उच्च घरेलू मुद्रास्फीति गरीबों की क्रय शक्ति पर अंकुश लगा रही है क्योंकि वर्तमान महंगाई के प्रमुख कारण- ऊर्जा और भोजन उनके उपभोग का एक बड़ा हिस्सा हैं.

उच्च मुद्रास्फीति क्रय शक्ति को कम करती है और केंद्रीय बैंकों को ब्याज दरों में वृद्धि करने के लिए मजबूर करती है, जिससे विकास की गति धीमी हो जाती है. आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, केंद्र सरकार का राजकोषीय घाटा जून में वार्षिक लक्ष्य के 21.2 प्रतिशत को छू गया, जबकि एक साल पहले की अवधि में यह 18.2 प्रतिशत था. अनुमान है कि 2022-23 के लिए सरकार का राजकोषीय घाटा 16.6 ट्रिलियन रुपये होगा.

मोटे तौर पर अर्थव्यवस्था की यही स्थिति है. इस बीच ‘मुफ्त सुविधाओं यानी फ्रीबीज़’ पर बहस चल रही है. हर चुनाव से पहले कई राजनीतिक दल टेलीविजन सेट, इंटरनेट के साथ लैपटॉप, साइकिल, स्कूटर, मासिक पेट्रोल कोटा, सेल फोन और यहां तक ​​कि घी जैसे मुफ्त उपहारों को देने का वादा करते हैं, जिन्हें ‘फ्रीबीज़’ का नाम दे दिया गया है. यह शब्द ‘फ्रीबीज़’ मुफ्त में दी गई किसी भी वस्तु/सेवा या सुविधा के लिए इस्तेमाल हो रहा है.

राजकोषीय स्थिरता तब बनी रहती है जब सरकार अपनी नीति को दीर्घकालिक आर्थिक उद्देश्यों की ओर निर्देशित करने में सक्षम होती है. अब सवाल यह है कि क्या राज्यों की वित्तीय स्थिति में गिरावट के लिए फ्रीबीज़ जिम्मेदार हैं? क्या ‘कल्याणकारी योजनाओं’ पर करदाताओं के पैसे के असीमित खर्च को भी ‘फ्रीबी’ के रूप में वर्गीकृत किया जाना चाहिए?

अब, फ्रीबीज़ की चर्चा अर्थव्यवस्था की स्थिति से क्यों जुड़ी है? 15वें वित्त आयोग के अध्यक्ष एनके सिंह के अनुसार, मतदाताओं को मुफ्त उपहार देने की होड़ ‘राजकोषीय आपदा’ का कारण बन सकती है. जब तक कल्याणकारी खर्च के उत्पादक और अनुत्पादक रूपों के बीच अंतर नहीं किया जाता है, फ्रीबीज़ पर असीमित खर्च देश के दीर्घकालिक आर्थिक विकास के लिए हानिकारक होगा.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चुनावी जीत हासिल करने के लिए ‘मुफ्त की रेवड़ी बांटने’ की राजनीतिक संस्कृति की आलोचना करने के बाद फ्रीबीज़ केंद्र और राज्यों के बीच विवाद का विषय बन गया. जब प्रधानमंत्री ने फ्रीबीज को रेवड़ी बताया तब दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने जवाब दिया कि भाजपा ने ठेकेदारों को रेवड़ी बांटी है, जबकि आम आदमी पार्टी ने आम लोगों को.

इस बात पर कोई आश्चर्य नहीं है कि मुफ्त उपहारों की अवांछनीयता को लेकर समाज में एक बड़ी सहमति है. भारतीय मध्यवर्ग अक्सर गरीबों को दी जाने वाली मुफ्त सुविधाओं/कल्याणकारी योजनाओं की आलोचना करता है, लेकिन फ्रीबी और कल्याणकारी योजनाओं के बीच अंतर तब जटिल हो जाता है जब राजनीतिक दल अपने हित के हिसाब से व्याख्याएं पेश करते हैं.

प्रधानमंत्री के बयानों के बाद भाजपा के एक नेता ने सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर कर चुनाव के समय फ्रीबीज़ बांटने की प्रथा को समाप्त करने की मांग की. इस बीच तमिलनाडु की सत्तारूढ़ पार्टी डीएमके के साथ-साथ आम आदमी पार्टी और वायएसआर कांग्रेस ने भी इस मामले में पक्षकार बनने के लिए सुप्रीम कोर्ट को लिखा है.

अब यह बहस इस बात पर केंद्रित हो गई है कि ‘फ्रीबीज़ कौन बांट रहा है, किस कारण से बांट रहा है और इनके असीमित वितरण को कौन नियंत्रित करेगा. फ्रीबीज़ के मुद्दे में रुचि दिखाते हुए उच्चतम न्यायालय ने तीन-न्यायाधीशों की पीठ स्थापित करने का आदेश दिया है. तीन जजों की नई बेंच कोर्ट द्वारा दिए हुए 2013 के एक फैसले कि राजनीतिक दलों द्वारा मतदाताओं को लुभाने के लिए किए गए चुनावी वादे ‘भ्रष्ट आचरण’ नहीं हैं, पर भी पुनर्विचार करेगी.

चूंकि किसान एक महत्वपूर्ण मतदाता समूह हैं, इसलिए उन्हें अधिकांश ‘रेवड़ियां’ देने का वादा किया जाता है. अधिकांश राज्यों में बिजली वितरण कंपनियां किसानों को बिजली सब्सिडी देने के कारण दिवालिया हो गई हैं. खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत गेहूं और चावल दो-तीन रुपये प्रति किलोग्राम की दर से दिया जाता है. इसका भी दुरुपयोग होता है- कुछ किसान अपने अनाज को उच्च खरीद मूल्य पर बेचते हैं, और फिर अपने उपयोग के लिए सब्सिडी वाले अनाज के रूप में वापस प्राप्त करते हैं, लेकिन फिर इसे खरीद एजेंसियों को बेच देते हैं.

फिर प्रदर्शन से जुड़ी प्रोत्साहन (पीएलआई) योजनाएं हैं, जिसमें यदि कंपनियां एक निश्चित स्तर का प्रदर्शन दिखाने में सक्षम होती हैं, तो कॉरपोरेट कर की दर कम हो जाती है. इन्हें अक्सर प्रोत्साहन समझा जाता है, न कि फ्रीबी. हालांकि इस तरह की रियायतों से उच्च निवेश नहीं हुआ है.

इसके अलावा, प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना (पीएमजीकेएवाई) एक मुफ्त भोजन योजना जो 800 मिलियन से अधिक लोगों को लाभांवित करने का दावा करती है, को लेकर कभी खर्च संबंधी आलोचना नहीं हुई. लेकिन एक समान भाव से चलने वाली सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) हमेशा नकारात्मक टिप्पणियों का केंद्र बनती रही है.

नीति आयोग के सदस्य रमेश चंद ने चेतावनी दी है कि अगर भारत कृषि जैसे क्षेत्रों में ‘फ्रीबीज की संस्कृति’ और सब्सिडी में कटौती नहीं करता है, तो देश को श्रीलंका जैसे आर्थिक संकट का सामना करना पड़ सकता है. उनका मानना है, ‘हम सब्सिडी पर अधिक से अधिक खर्च कर रहे हैं और बुनियादी ढांचे और सिंचाई पर जोर देने में विफल हो रहे हैं. नतीजतन, हम एक दुष्चक्र में फंस जाते हैं… कोई किसान नेता यह नहीं पूछ रहा है कि नहर सिंचाई में आने वाले क्षेत्र में कम क्यों हो रहे हैं. चूंकि बिजली मुफ्त है इसलिए हर कोई ट्यूबवेल का विकल्प चुनता है..’

दूसरी ओर, पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यम का कहना है कि ‘फ्रीबी कुछ मायनों में समस्या का लक्षण है…’ लगभग सभी राज्य और केंद्र सरकारें स्वास्थ्य, शिक्षा और आवास जैसी बुनियादी जरूरतों को पूरा करने में विफल रही हैं.

यह अक्सर दावा किया जाता है कि मोदी सरकार के तहत कुल गरीबी में कमी आई है. हालांकि कम सुना गया तथ्य यह है कि महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) और सार्वजनिक वितरण प्रणाली जैसे ‘कल्याणकारी उपायों’ ने गरीबी कम करने में योगदान दिया है.

चार दशक पहले जब तमिलनाडु के एमजी रामचंद्रन ने ‘मिड-डे मील’ की शुरुआत की थी. भारत जैसे देश में जहां लगातार भोजन की कमी के कारण 34% बच्चे अविकसित हैं, स्कूल जाने वाले बच्चों को 400 कैलोरी प्रदान करने के लिए एमजीआर की का उपाय एक परिवर्तनकारी और क्रांतिकारी सार्वजनिक नीति के बतौर कारगर रहा. दशकों तक आलोचना का केंद्र रहा मिड-डे मील आज सभी राज्यों में सभी राजनीतिक दलों का एक प्रमुख कार्यक्रम है.

तो सवाल यह है कि यदि किसी योजना या उपाय को केंद्र सरकार की सहमति मिल गई है तो क्या यह फ्रीबी नहीं है? इस बहस की कई बारीकियां हैं और सभी राजनीतिक दलों के बीच केवल संवाद ही इस प्रश्न को हल कर सकता है कि क्या असीमित ‘फ्रीबीज़’ देना उचित है या नहीं.

यदि पिछली सरकारों ने जीवन की मूलभूत जरूरतों की पूर्ति की दिशा में अपना काम किया होता, तो आज ऐसे अल्पकालीन, बड़े-बड़े वादे और मुफ्त सुविधाओं के जरिये उन्हें अपनी योग्यता साबित नहीं करनी पड़ती.

(वैशाली बसु शर्मा रणनीतिक और आर्थिक मसलों की विश्लेषक हैं. उन्होंने नेशनल सिक्योरिटी काउंसिल सेक्रेटरिएट के साथ लगभग एक दशक तक काम किया है.)