नाम बदलकर बदलाव का भ्रम रचना दरअसल ऐसा करने वालों द्वारा यह स्वीकार लेना है कि उनके पास अपने काम से कोई बदलाव लाने का न बूता बचा है, न विवेक. अन्यथा अब तक वे इतना तो समझ ही गए होते कि ग़ुलामी के प्रतीकों की उनकी समझ कितनी नासमझी भरी है.
एक स्वयंभू दार्शनिक को एक सुबह जागते ही जानें क्या सूझी कि उसने अपने आसपास के लोगों को बुलाया और उनके समक्ष ऐलान कर दिया कि उसने रात में एक ऐसा उपाय खोजने में सफलता पा ली है, जिससे देश में ऐसी क्रांति हो जाएगी कि सारे गरीब मालपुए खाने लग जाएंगे और अभी उनका बहुविध शोषण कर रहे अमीर छाछ पर गुजर-बसर करने को अभिशप्त हो जाएंगे.
इस ‘चमत्कारी व क्रांतिकारी’ उपाय में लोगों की दिलचस्पी स्वाभाविक थी. सो, उन्होंने एक स्वर से पूछा- कैसे अमल में आएगा वह उपाय? दार्शनिक ने कहा- मालपुए और छाछ के नामों की अदला-बदली करके. मालपुए को छाछ और छाछ को मालपुआ कहना शुरू करके!
यह चुटकुला बीते गुरुवार को तब बहुत याद आया, जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राजधानी दिल्ली में ऐतिहासिक ‘राजपथ’ के सजे-संवरे व बदले हुए रूप के ‘कर्तव्य पथ’ के तौर पर उद्घाटन और इंडिया गेट के पास नेताजी सुभाष चंद्र बोस की प्रतिमा के अनावरण के बाद कहा कि देश ने गुलामी के प्रतीक राजपथ को हमेशा के लिए इतिहास के हवाले करके आजादी के अमृतकाल में गुलामी की एक और पहचान से मुक्ति पा ली है.
राजपथ गुलामी का प्रतीक था या नहीं, इस सवाल पर बाद में जाएंगे. पहले बताना जरूरी है कि 2014 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा के पहली बार अपने दम पर पूरे बहुमत से देश की सत्ता में आने के बाद से ही शहरों, जिलों, सड़कों, संस्थानों व रेलवे स्टेशनों वगैरह के नाम बदलना केंद्र व राज्यों की प्राय: सारी भाजपा सरकारों का प्रिय शगल बना हुआ है.
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने तो अपने पिछले कार्यकाल में इसका अभियान-सा चलाया. इस अभियान के फैजाबाद, इलाहाबाद व मुगलसराय से भी आगे गुजर जाने के बावजूद उनके समर्थक उसे अधूरा बताते हैं. इस कारण अखबार व चैनल बताते रहते हैं कि आगे कभी भी लखनऊ व अलीगढ़ वगैरह के नाम बदलने का नंबर आ सकता है.
भाजपा, उसके मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री इस तरह के नाम परिवर्तनों के ज्यादातर मामलों को ‘गुलामी के प्रतीकों से मुक्ति’ से ही जोड़ते हैं. हालांकि इसके पीछे की उनकी वास्तविक मंशा को लेकर शायद ही किसी को संदेह हो. इसीलिए जानकार प्राय: यह कहकर उनकी आलोचना करते रहते हैं कि नाम बदलने में कुछ नहीं रखा, क्योंकि इससे लोगों पर इमोशनल अत्याचार जितने भी होते हों, हालात कतई नहीं बदलते.
आलोचक यह भी कहते हैं कि नाम बदलकर बदलाव का भ्रम रचना दरअसल ऐसा करने वालों द्वारा यह स्वीकार लेना है कि उनके पास अपने काम से कोई बदलाव लाने का न बूता बचा है, न विवेक. अन्यथा अब तक वे इतना तो समझ ही गए होते कि गुलामी के प्रतीकों की उनकी समझ कितनी नासमझी भरी है.
तब उन्हें यह बताने की जरूरत भी नहीं पड़ती कि इन प्रतीकों के खात्मे से कहीं ज्यादा जरूरी उन कारणों को दूर करना है, जिनके कारण अतीत में देश को लंबी गुलामी झेलनी पड़ी और अभी भी उसके अनेक बदले हुए रूप देशवासियों का पीछा छोड़ने को तैयार नहीं हैं.
इन कारणों में सबसे बड़ा है, देशवासियों को सांप्रदायिक व धार्मिक आधार पर बांटकर राज करने का सत्ताधीशों का स्वार्थी मंसूबा और यह विश्वास करने के कारण हैं कि अंग्रेजों के बाद ऐसा मंसूबा सबसे ज्यादा वर्तमान सत्ताधीशों ने ही बांध रखा है.
इसी के चलते बंटवारे और नफरत की अपनी राजनीति को वे उस मुकाम तक ले आए हैं, जहां विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी को देश के बिखराव के अंदेशे सता रहे हैं और उसे उसकी एकजुटता के लिए ‘भारत जोड़ो’ यात्रा करनी पड़ रही है.
कौन कह सकता है कि इन अंदेशों को बढ़ाते रहकर देशवासियों पर इमोशनल अत्याचार के लिए गुलामी के प्रतीकों के खात्मे की बात करना एकदम वैसा ही नहीं है, जैसे कोई सिर के ऊपर के बालों की हिफाजत करके उसका श्रेय लेने को तो आतुर रहे, लेकिन उस गरदन की सुरक्षा की ओर से लापरवाह बना रहे, जिसके कट जाने से बाल तो बाल, सिर का जीवन भी नष्ट हो जाता है.
यहां कहा जा सकता है कि ऐसा वर्तमान सत्ताधीश ही नहीं कर रहे. पहले भी ऐसी सरकारें हुई हैं, जिन्हें महात्मा गांधी की कही हुईं बातें मानकर उनके रास्ते पर चलना कठिन लगा, तो उन्होंने विभिन्न शहरों में महात्मा गांधी मार्ग बनाने शुरू कर दिये और दावा करने लगीं कि उनके रास्ते चलकर गांधी जी के विचार ही नहीं, उनको अभीष्ट रामराज भी जल्दी ही सारे देश को मीठे फल देने लगेगा.
लेकिन उसे नहीं देना था, सो उसने नहीं दिया और आगे चलकर हम ऐसी प्रतिक्रांति के हवाले हो गए, जिसमें राम के राज से उनका भव्य मंदिर ज्यादा जरूरी हो गया- वह भी गुलामी की प्रतीक कई सौ साल पुरानी मस्जिद को ढहाकर. एकदम उसी की जगह पर.
क्या आश्चर्य कि इस प्रतिक्रांति के लाभार्थियों ने अब राजपथ को भी गुलामी का प्रतीक समझ लिया है, उसका अस्तित्व मिटाने पर उतर आए हैं और इस मोटी बात का समझना भी गवारा नहीं कर रहे हैं कि राजपथ किंग्स-वे का हिंदी अनुवाद नहीं है, न ही दोनों की अर्थ-ध्वनियां एक हैं, क्योंकि राज और राजा दोनों एक नहीं हैं.
इसीलिए रानियों के पेट से पैदा होते रहे राजाओं को अंतिम प्रणाम करने के बावजूद हमने राज को लोकराज, स्वराज व सुराज के अपने सपनों में जगह दे रखी है. यहां तक कि यह राज मोदीराज में भी है ही. विचारकों की मानें तो जब तक मनुष्य अपनी संपूर्णता में परिपक्व नहीं हो जाता, तब तक उसे इस राज की जरूरत बनी ही रहनी है.
ऐसे में यह बात सामान्य समझ से सर्वथा परे है कि इस जरूरत के बरक्स राजपथ को गुलामी का प्रतीक क्यों समझा गया? प्रसंगवश, गुलामी के दौर में 1911 में ‘दिल्ली दरबार’ में शामिल होने के लिए किंग जॉर्ज पंचम भारत आए तो गोरे साहबों ने उनके सम्मान में, अब कर्तव्य पथ कही जाने वाली सड़क का नाम ‘किंग्स-वे’ रख दिया था.
बताते हैं कि उन्हें इसका सुझाव सेंट स्टीफेंस कॉलेज के इतिहास के तत्कालीन प्रोफेसर पर्सिवल स्पियर ने दिया था. अकबर रोड, पृथ्वीराज रोड व शाहजहां रोड जैसे नाम भी उन्हीं के सुझाए बताए जाते हैं.
गौरतलब है कि उसी समय कोलकाता की जगह दिल्ली को ब्रिटिश भारत की राजधानी बनाने की घोषणा हुई थी. आजादी के बाद 1955 में किंग्स-वे को ब्रिटिश हुकूमत का प्रतीक मानकर बदला और राजपथ कर दिया गया.
इसी क्रम में प्रिंस एडवर्ड रोड को विजय चौक, क्वीन विक्टोरिया रोड को डॉ. राजेंद्र प्रसाद रोड और किंग जॉर्ज एवेन्यू रोड का नाम बदलकर राजाजी मार्ग कर दिया गया.
लेकिन अब राज व राजा में फर्क नहीं कर पा रहे सत्ताधीशों ने राजपथ को भी गुलामी का प्रतीक मान लिया और औपनिवेशिक सोच दर्शाने वाला बताकर बदल दिया है और अपने इस कृत्य पर मूंछें ऐंठ रहे हैं तो उन्हें इस सवाल के सामने क्यों नहीं खड़ा किया जाना चाहिए कि क्या उनकी निगाह में 1955 में यानी किंग्स-वे के राजपथ नामकरण के वक्त भी भारत गुलाम था या जिन्होंने राजपथ नामकरण किया, वे भी गुलामी के प्रतीक थे?
सच तो यह है कि वे आजादी के अग्रदूत थे और अब आजादी के 75 साल बाद के वर्तमान सत्ताधीशों को वे और उनके काम दोनों नहीं सुहा रहे तो इसके पीछे आजादी की लड़ाई को पीठ दिखाने का इन सत्ताधीशों के पुरखों का शर्मिंदगी भरा इतिहास है, जो वे मुंह से कहें कुछ भी, उन्हें आजादी के किसी भी नायक पर सच्चा गर्व नहीं करने देता.
बहरहाल, एक और सवाल यह है कि क्या ऐसी कोई व्यवस्था कर ली गई है कि आगे चलकर कर्तव्य पथ का हश्र भी गांधी मार्गों जैसा ही न हो जाए? अगर नहीं तो क्या जैसे गांधी मार्गों पर चलने के बावजूद लोग महात्मा गांधी से दूर होते गए, कर्तव्य पथ पर चलकर कर्तव्यों से दूर नहीं हो जाएंगे?
ऐसा हुआ तो क्या यह सारी कवायद बेवजह का द्रविड़ प्राणायाम नहीं सिद्ध होगी? एक कार्टूनिस्ट ने तो अभी ही व्यंग्य कर दिया है कि ‘कर्तव्य पथ बन गया तो अब एक अधिकार पथ भी बन जाना चाहिए.’ सारे समझदारों को यह इशारा काफी होना चाहिए.
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं )