सरकार हमें बार-बार कह रही है कि देशवासियों ने अपने अधिकारों की दुहाई दे-देकर पिछले 75 साल बर्बाद कर दिए हैं. वक़्त आ गया है कि वे अब राज्य के प्रति अपने कर्तव्य को याद करें. कर्तव्य में बहुत आकर्षण है. गीता की याद दिलाई जा सकती है. कर्तव्य का नाम लेकर लोगों को शर्मिंदा किया जा सकता है.
‘ग़ुलामी की एक और निशानी को हमेशा के लिए मिटा दिया गया है.’ दिल्ली के केंद्रीय भाग के बीच से, संसद और राष्ट्रपति भवन के के क़रीब से गुजरने वाली सड़क का नाम राजपथ से बदल कर कर्तव्य पथ करने के अवसर पर प्रधानमंत्री ने यह दावा किया.
क्या राजपथ नाम ग़ुलामी के वक्त का नाम था? अगर अंग्रेज़ी राज से मुराद है तो उस वक्त इसका नाम किंग्सवे था. अंग्रेजों के भारत से विदा होने के बाद स्वाधीन भारत की सरकार ने इसका नाम राजपथ किया. राजपथ जिसके बिल्कुल समानांतर जनपथ है.
यहां राज का अर्थ है राज्य, अंग्रेज़ी राज नहीं. स्वाधीन भारत के जन ने अपना राज स्थापित किया. राज्य और जन के बीच एक रिश्ता होना चाहिए. वह क्या है? वह रिश्ता है जनता के द्वारा स्थापित किए गए राज्य के सारे संसाधनों का जन के अधिकार सुनिश्चित करने के लिए इस्तेमाल. राज्य और जन में हमेशा जन ऊपर होगा.
भारत अंग्रेजों की हुकूमत से आज़ाद होने के बाद गणतंत्र बना, राजतंत्र नहीं. यानी संप्रभु जन है. राज्य जन की कृति है. वह जन के प्रति जवाबदेह है. उल्टा नहीं.
फिर कर्तव्य पथ नाम के पीछे मंशा क्या है? अगर आप पिछले आठ वर्षों में अलग अलग मौक़ों पर दिए गए प्रधानमंत्री और दूसरे मंत्रियों के वक्तव्य याद कर लें तो इसका आशय स्पष्ट हो जाता है.
यह सरकार हमें बार-बार कह रही है कि इस देश के लोगों ने अपने अधिकारों की दुहाई दे-देकर पिछले 75 साल बर्बाद कर दिए हैं. देश अधिकारों को लेकर इस देश के लोगों की जिस की वजह से तेज़ी से विकास नहीं कर पाया है. वक्त आ गया है कि वे अब राज्य के प्रति अपने कर्तव्य को याद करें. अगर अगले 25 वर्षों में देश को विकसित हो जाना है, बल्कि अगर वह विश्व गुरु बनना चाहता है तो लोगों को अपने अधिकार का राग अलापना बंद कर देना चाहिए.
यहां तक कि अब मानवाधिकार आयोग भी कहने लगा कि अधिकार की अवधारणा ही ख़तरनाक है.
कर्तव्य में बहुत आकर्षण है. गीता की याद दिलाई जा सकती है. आख़िर प्रभु ने कहा है कि कर्तव्य किए जाओ, फल की चिंता न करो. कर्तव्य का नाम लेकर लोगों को शर्मिंदा किया जा सकता है.
चाहें तो आप मुक्तिबोध का भी इस्तेमाल कर सकते हैं. क्या उन्होंने नहीं कहा था कि लिया बहुत, दिया बहुत कम. मर गया देश ,जीवित रह गए तुम! क्या वे यही नहीं कह रहे थे कि हमें अपने अधिकार नहीं मांगने चाहिए, देश के प्रति कर्तव्य की चिंता करनी चाहिए?
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देश दिखता नहीं, सरकार दिखता है. वह देश की तरफ़ से मांग करती है. जब वह नोटबंदी कर दे तो उसके कहने पर आपको बैंक के आगे क़तार में खड़ा हो जाना चाहिए. जब वह कोरोना के नाम पर चार घंटे के नोटिस पर देश में तालाबंदी कर दे, तो ज़ुबान सिलकर जहां हैं, वहीं आपको जम जाना चाहिए. जब वह आपसे कहे कि आपकी कोई निजता नहीं, आप पूरे के पूरे देश के हैं, तो आपको अपना पूरा वजूद उसके हवाले कर देना चाहिए.
अब तो सर्वोच्च न्यायालय में भी ऐसे न्यायाधीश बैठे हैं जो कह सकते हैं कि सरकार या राज्य से वही कुछ कह सकता है जो कर देता है. क्या यह सच नहीं कि इस देश में सिर्फ़ 4% लोग कर देते हैं, एक न्यायाधीश ने पूछा. वकील को उन्हें याद दिलाना पड़ा कि प्रत्यक्ष कर जितने लोग भी देते हों, अप्रत्यक्ष कर हर कोई देता है. तो क्या अब कर के हिसाब से अधिकार बांटे जाएंगे?
कर्तव्य पथ का नामकरण जैसे इतिहास पर एक विजय की घोषणा थी. इसमें छद्म युद्ध का आनंद था. ऐसा युद्ध जिसमें आप सिर्फ़ ज़बान चलाते हैं. इस प्रकार का युद्ध पूरे देश में चलाया जा रहा है. नाम बदले जा रहे हैं.
इलाहाबाद अब प्रयागराज है. मुग़लसराय का नाम है दीन दयाल उपाध्याय रेलवे स्टेशन. फ़ैज़ाबाद अब लुप्त कर दिया गया है. गुड़गांव गुरुग्राम है. मानो जंग लड़ी जा रही है. फ़तहयाब फ़ौज जिस रास्ते निकलती है, अपनी जीत की निशानी के तौर पर उसे अपना नाम देती है. क्या एक शहर, एक गली, एक सड़क इस फ़ौज का मुक़ाबला कर सकती है?
हर शहर, क़स्बे में अब सेनाएं सक्रिय हो गई हैं. कभी कोई किसी सड़क के नाम पट्ट पर कालिख पोत देता है और नया नाम लगा देता है. यह करके भुजाएं झाड़ी जाती हैं. हर्र लगे न फिटकिरी, रंग आए चोखा!
सरकार एक कलम से नाम बदल सकती है. क्या उसे किसी विरोध का भय है? लेकिन ऐसा करने के बाद वह विजय की घोषणा कर सकती है. नाम बदलने में जंग जीतने का नशा है.
प्रधानमंत्री ने भी एक सड़क के नाम बदलने को जंग जीतने जैसी घटना बना दिया. मीडिया ने भी. मानो यह 1857 या 1947 जैसा ही कोई क्षण हो. साथ ही क़रीब में दशकों से ख़ाली पड़ी एक छतरी के नीचे नेताजी सुभाषचंद्र बोस की प्रतिमा खड़ी करके एक और इतिहास रचने का दावा किया गया.
प्रधानमंत्री ने कहा कि अगर देश सुभाष बाबू के रास्ते चलता तो अब तक तरक़्क़ी कर गया होता. देश की तरक़्क़ी के लिए सुभाष बाबू ने कांग्रेस के नेता और अध्यक्ष के रूप में कल्पना की थी एक योजना आयोग की. कांग्रेस अध्यक्ष रहते हुए उन्होंने इसके लिए जो समिति बनाई थी उसकी अध्यक्षता के लिए जवाहरलाल नेहरू से अनुरोध किया था.
उन्हीं नेहरू ने आज़ादी मिलने के बाद सुभाष बाबू की इच्छा के मुताबिक़ योजना आयोग स्थापित किया. आज की सरकार ने 2014 में सत्ता में आते ही सबसे पहले इस योजना आयोग को भंग कर दिया.
योजना आयोग को भंग करके उसकी जगह जो बनाया गया, उसका नाम सब जानते हैं: नीति आयोग. लेकिन नीति तो संक्षिप्त रूप है 4 अंग्रेज़ी शब्दों का: ‘नेशनल इंस्टिट्यूट फॉर ट्रांसफॉर्मेशन ऑफ इंडिया’ का. यानी भारत के कायांतरण करने के लिए बनाया गया संस्थान.
जब नाम में संस्थान है ही तो आगे आयोग क्यों? क्या संस्थान का भी आयोग होता है? लेकिन किसी ने इस हास्यास्पद नाम के बारे में एक बार भी कुछ नहीं पूछा. तो सुभाष बाबू ने भारत के निर्माण के लिए जो संस्था प्रस्तावित की थी, जिसे उनके मित्र नेहरू ने प्रधानमंत्री बनने के बाद स्थापित किया, उसे आज के प्रधानमंत्री ने भंग कर दिया.
सिर्फ़ नया नाम नहीं था, उसका काम भी नया था. जहां योजना आयोग भारत के संघीय चरित्र की रक्षा करता था, वहीं ‘नीति आयोग’ उसे पूरी तरह ध्वस्त कर देने का औजार है. उसकी अपनी कोई आवाज़ भी नहीं है.
वैसे ही कोशिश की गई 2 अक्टूबर का नया नामकरण स्वच्छता दिवस और बड़े दिन का सुशासन दिवस करने की. गांधी के सत्याग्रह की शताब्दी के मौक़े पर प्रयास किया गया सत्याग्रह की जगह स्वच्छाग्रह शब्द प्रचलित करने का.
उसके पहले अचानक हमने देखा विकलांग की जगह हर जगह दिव्यांग शब्द. इसे भी हमने बिना सवाल किए स्वीकार कर लिया. बिना इस शब्द में छिपे धोखे पर विचार किए. विकलांग शब्द में एक कमी का एहसास है. उसके लिए कुछ करने की ज़रूरत का ख़याल भी. सरकार को भी उसके लिए साधन मुहैया कराने होंगे. दिव्यांग शब्द निरर्थक है. लेकिन उसमें एक छद्म गौरव है. नकली सम्मान.
‘नाम में क्या रखा है,’ यह पूछा था नाटककार ने. लेकिन राजनेता जानता है कि मनुष्य के लिए कभी-कभी नाम में ही सब कुछ है. सुरूप न हो लेकिन सुनाम हो तो भी एक सांत्वना है. वह उसकी भरपाई है.
राष्ट्र निर्माण में नामों, प्रतिमाओं, भवनों का प्रतीकात्मक महत्त्व है. प्रतिमाएं, प्रतीक लगाए जाते हैं, हटाए जाते हैं. जब ऐसा किया जाता है तो अतीत नहीं, वर्तमान के बारे में हमारी समझ प्रकट होती है. प्रतीक हमारी भाषा का निर्माण करते हैं.
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दिल्ली के केंद्र में इंडिया गेट के पास ब्रिटेन के सम्राट की मूर्ति आज़ादी के बाद अप्रासंगिक थी. उसे जब वहां से हटा दिया गया तो सिर्फ़ रह गई छतरी जिसके नीचे वह मूर्ति थी. जिस छतरी के नीचे इस देश के उत्पीड़क की प्रतिमा हो, क्या उसके नीचे किसी राष्ट्र नायक की छवि रखी जा सकती है?
ओम थानवी ने ठीक ही लिखा, ‘सम्राट की मूर्ति हटी. छतरी खाली रही. चार बार वहां राष्ट्रपिता की मूर्ति धंसाने का प्रस्ताव आया. हर बार खारिज हुआ. ‘हल्का (चीप) काम होगा’, आम धारणा बनी. पर वह काम कल हो गया. खाली छतरी विदा आततायियों की निशानी, आजाद हवा की गवाही थी. वहां नेताजी की मूर्ति लगाना उनका कद छोटा करना है.’
जब कोई कहता है कि सुभाष को भुला दिया गया और मुझ जैसे आज़ाद भारत में ही प्रौढ़ हुए लोग जवाब नहीं देते, तो इसका मतलब है हम जान बूझकर एक झूठ को पांव जमाने दे रहे हैं.
मुझे याद है कि आज़ादी की रजत जयंती के मौक़े पर अपने प्रिय नेता के रूप में मैंने सुभाष बाबू की प्रशंसा में एक जोशीला भाषण दिया था. उनका प्रिय नारा भी श्रोताओं से लगवा दिया था और पहला इनाम हासिल कर लिया था. उन पहले 25 सालों में, जिनमें नेहरू के 17 साल थे, किसने सुभाष की स्मृति को जीवित रखा था? फिर आज उनकी प्रतिमा को ब्रिटिश सम्राट की छतरी में ‘धंसाते’ समय जो राष्ट्रीय झूठ प्रसारित किया गया, उसकी मीडिया ने पड़ताल क्यों नहीं की?
सुभाष बाबू की प्रतिमा तो है लेकिन उसमें प्राण नहीं हैं. कर्तव्य पथ है लेकिन राज्य ने देशवासियों के प्रति कर्तव्य से ख़ुद को आज़ाद कर लिया है. वह उनका मालिक हो बैठा है. देश में सिर्फ़ एक आवाज़ है. उसकी एक का अधिकार है. बाक़ी सब के सिर्फ़ गले हैं. उन गलों से आवाज़ उस मालिक की है. 75 साल की आज़ादी के बाद हमारी गणतांत्रिक चेतना का यह हाल हमने कर डाला है!
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)