नरेंद्र मोदी को महज़ एक राजनीतिज्ञ के स्तर से कहीं ऊपर उठाकर सुपरमैन की श्रेणी में डाल दिया गया है, जो सिर्फ शक्ति ही नहीं ज्ञान और बुद्धिमत्ता का भी जीता जागता प्रतीक है.
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करोड़ों भारतीयों के पास अब तीन नहीं तो कम से कम दो प्रमाणपत्र हैं, जो बताते हैं कि उन्हें कोविड-19 से बचाव का टीका लगाया गया है. इन सभी प्रमाणपत्रों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तस्वीर है. हम सभी के लिए संदेश साफ़ है- हम सब उनकी वजह से, उनकी दरियादिली, उनके आशीर्वादों के कारण ही सुरक्षित हैं.
पिछले कुछ दिनों में गणेश चतुर्थी के सालाना त्योहार के कारण हिंदू भगवान गणेश की तस्वीरें मीडिया में तैर रही थीं. इनमें से कई तस्वीरों में साथ में मोदी भी दिख रहे थे.
वे अखबारों में हैं. टेलीविजन पर हैं और होर्डिंग पर हैं. बाजार में उनके चेहरे वाली साड़ियां बिक रही हैं और कई किताबों की जिल्द उनके चेहरे से सजी हुई हैं.
पुल, सड़क और युद्धकतोप– वे हर चीज का उद्घाटन कर रहे हैं. पिछले महीने ही उन्होंने भुज, केरल और मेंगलुरु में परियोजनाओं का उद्घाटन किया. सारे बयान उनके मुखकमल से निकलते हैं जबकि संबंधित विभागों के मंत्री अपना सिर झुकाकर चुप रहते हैं. अगर उन्हें बोलने का मौका मिल भी जाता है, तो वे बस उनके कई गुणों का बखान करने का ही काम करते हैं. किसी और को सुर्खियां बटोरने का का अधिकार नहीं है. किम जोंग उन चाहें तो उनसे कुछ सबक सीख सकते हैं.
ऐसे में इस खबर में हैरान करने वाला कुछ नहीं है कि वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने तेलंगाना के एक जिला कलेक्टर को राशन की दुकान पर नरेंद्र मोदी का बैनर नहीं लगाने के कारण डांट दिया. सीतारमण ने कहा कि चावल पर दी जा रही सब्सिडी का बड़ा हिस्सा केंद्र सरकार के खजाने से दिया जा रहा है. और अगर ऐसा है तो इस ‘उपलब्धि’ का श्रेय स्वाभाविक तौर पर मोदी के सिर पर बंधना चाहिए.
यह तथ्य कि यह पैसा करदताओं की जेब से आ रहा है, यह विचार उनकी सोच से परे था. उनके हिसाब से यह प्रधानमंत्री की दरियादिली की एक और मिसाल है.
नरेंद्र मोदी का दैवीकरण पूरा हो चुका है. वे न सिर्फ सर्वव्यापी, सर्वशक्तिशाली हैं बल्कि वह सर्वज्ञाता भी हैं- आपके या आपके जीवन के बारे में ऐसा कुछ भी नहीं है, जो वे नहीं जानते हैं. आधार के व्यापक प्रयोग ने यह सुनिश्चित कर दिया है. वे घर के किसी चाचा-मामा या फूफा के जैसे- जो बच्चों को परीक्षा पर उपदेश देते हैं-, एक ज्ञानी बुजुर्ग, एक कुशल रणनीतिकार, राजनीतिक प्रचारक और दुनिया के अन्य नेताओं के साथ गंभीर गंभीर मंत्रणा करनेवाले एक विश्व नेता आदि हैं. उन्हें महज एक राजनीतिज्ञ के स्तर से कहीं ऊपर उठाकर सुपरमैन की श्रेणी में डाल दिया गया है, जो सिर्फ शक्ति ही नहीं ज्ञान और बुद्धिमत्ता का भी जीता जागता प्रतीक है.
मोदी अब पुख्ता तरीके से भारत और हिंदू धर्म की विशेषता समझी जाने वाली देवी-देवताओं की बड़ी सुरसरि में शामिल हो गए हैं. उनके लिए मंदिरों का निर्माण किया जा रहा है. हालांकि गुजरात में ऐसे एक मंदिर के निर्माण पर उन्होंने अपनी नाराजगी प्रकट की थी. लेकिन कोई भला श्रद्धालुओं को उन्हें अपने घर में स्थापित करने और अपने मन-मंदिर में बसाने से कैसे रोक सकता है?
सीतारमण भी एक उत्साही श्रद्धालु हैं और कभी ऐसा नहीं होता है कि अपने किसी भाषण में वे उनके नाम का जाप न करें. एक कलेक्टर पर कोप दृष्टि डालने को इसी की कड़ी में देखा जा सकता है. हास्य कलाकार उन पर चुटकुले गढ़ सकते हैं, पत्रिकाएं चाहें तो उनके अति-उत्साह पर पन्ने खर्च कर सकती हैं, तेलंगाना राष्ट्रीय समिति चाहे तो उनका मजाक बना सकती है, लेकिन वे इनमें से किसी का भी परवाह भला क्यों करेंगी? वे मोदी कैबिनेट का हिस्सा हैं और इस पद वे प्रधानमंत्री की कृपा से हैं.
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लेकिन बाकी जनता के लिए यह दिन-रात का कवरेज उनकी अपनी पसंद का मामला नहीं है. उन पर हर तरफ से प्रधानमंत्री की तस्वीरों- वीडियो या स्टिल- और उनकी आवाज की बौछार हो रही है, भले ही वे ऐसा चाहते हैं या नहीं चाहते.
ऐसा नहीं है कि दूसरे प्रधानमंत्रियों और मुख्यमंत्रियों ने अपनी तस्वीरें होर्डिंग्स और विज्ञापनों में नहीं दी है. देश में हर नुक्कड़ पर स्थानीय नेताओं की तस्वीर वाले पोस्टर दिखाई देते हैं, जो अपने क्षेत्र के लोगों को अपने होने की याद दिलाना चाहते हैं. इन पोस्टरों में पार्टी के नेता की भी तस्वीर साथ में होती है, जो उनके प्रति अपनी निष्ठा जताने का एक तरीका है.
लेकिन आज तक किसी अन्य ने यह काम इस तरह से नहीं किया है. जितने बड़े पैमाने पर छवि निर्माण का यह काम किया जा रहा है, वह अभूतपूर्व है. मोदी की तुलना अक्सर इंदिरा गांधी से होती है. सामान्य तौर पर यह तुलना सतही तरीके से होती है. लेकिन आपातकाल जिस समय परवान पर था, जब उनकी पार्टी के नेता उन्हें प्रसन्न रखना चाहते थे और बसों पर ‘पांच सूत्री कार्यक्रम’ चिपकाए गए थे, उस समय भी यह छवि निर्माण इस ऊंचाई (गहराई?) तक नहीं पहुंचा था, जैसा कि हम आज देख रहे हैं.
मोदी पंथ या मोदी कल्ट को यह आकार प्रदान करने में लाइव टेलीविजन और सोशल मीडिया का हाथ है, लेकिन इसके केंद्र में स्थित व्यक्ति की इच्छा, यहां तक कि ऐसा करने की उसकी मांग और उसके विश्वासप्राप्त समर्थकों-अनुयायियों द्वारा इसके निर्माण और इसे कायम रखने में अपनी सारी ऊर्जा झोंके बगैर यह कतई मुमकिन नहीं था. यह महत्वोन्माद का चरम है, जो हर समय खुराक मांगता है, जिसके बगैर वह असुरक्षित महसूस करने लगता है. एक पूरा उद्योग है, जिसका वजूद इस छवि को बनाए रखने पर टिका हुआ है.
यह वह एक चीज है, जो मोदी को महज एक और तानाशाह से ज्यादा बना देता है. वे अखबारों में अपना चेहरा देखना पसंद करने वाले एक और राजनीतिक नेता या एक और सार्वजनिक शख्सियत होने से बहुत आगे बढ़ चुके हैं. हमारे सामने एक पंथ है, जिसके लाखों-करोड़ों अनुयायी हैं.
तानाशाह लोगों के मन में अपना खौफ भर सकते हैं, अपने प्रति प्रेम नहीं भर सकते हैं. लेकिन संप्रदाय के सदस्य अपनी भक्ति में आकंठ डूबे हुए हैं. यह अंध आस्था है और आस्था रखने वाला जिससे उसे प्रेम है, उसमें कोई बुराई नहीं देखता, न ही उसके बारे में कोई आलोचना सुन सकता है. चाहे पार्टी के प्रवक्ता हों या मतदाता हों, वे हर आलोचना के खिलाफ उनका बचाव करेंगे, जो सभी उपलब्धियों का श्रेय उन्हें देंगे, लेकिन असफलता के समय उनके सामने कवच बनकर खड़े हो जाएंगे.
ऐसा नहीं है कि जिसकी वे पूजा करते हैं, वह हम हमेशा ऐसी कट्टर वफादारी की मांग करता है- ज्यादातर समय वे बस इसे अर्पण करते हैं. जब पार्टी का कोई व्यक्ति ऐसा करता है, तो बात समझ में आती है, आखिर उसकी नौकरी इसी पर टिकी हुई है; लेकिन एक साधारण समर्थक के अर्थव्यवस्था और दूसरे मोर्चों पर विध्वंसकारी नीतियों को देखने और मानने से इनकार करने की व्याख्या कैसे की जा सकती है?
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साधारण तौर पर बिल्कुल दुरुस्त दिमाग वाले लाखों-करोड़ों व्यक्तियों द्वारा लॉकडाउन के दौरान सिर्फ इसलिए थाली पीटने लगना कि ऐसा करने का निर्देश उनके नेता ने दिया है, इसे समझना तो और भी असंभव है.
यह सब संस्था की कीमत पर हो रहा है. भाजपा एक पुरानी पार्टी है और इसका इतिहास 1980 में इसके गठन से कहीं पीछे जाता है. आरएसएस का गठन लगभग एक सदी पहले हुआ था. नरेंद्र मोदी का उभार परंपरा से हुआ होगा, लेकिन अब वे उनको आगे बढ़ाने वाले संगठनों से बहुत बड़े हो गए हैं.
उन्हें अब इन दोनों में से किसी की भी जरूरत नहीं है. वोट उनके नाम पर पड़ते हैं, न कि भाजपा के नाम पर और जब उनकी सरकार हिंदुत्ववादी नीतियों को आगे बढ़ाती है, तो यह उनके मुफीद बैठता है, क्योंकि उन्हें इस बात की पूरी समझ है कि इसका चुनावी फायदा मिलता है.
लेकिन फिर भी, उन्हें इस बात से चिंतित होना चाहिए कि भले सभी गलत फैसलों के बावजूद उनकी लोकप्रियता बनी हुई है- कम से छवि के स्तर पर, लेकिन उनकी विरासत दागदार हो रही है. आदर्श तौर पर वे एक ऐसे व्यक्ति के तौर पर याद किया जाना चाहेंगे, जो इस देश को महानता के रास्ते पर ले गया. लेकिन उनके नेतृत्व में भारत उच्च स्तर की बेरोजगारी, महंगाई की मार झेल रहा है और अर्थव्यवस्था में सामान्य तौर पर गिरावट है.
ये वो कठोर हकीकत हैं, जिन्हें छवि निर्माण पर चाहे जितना भी जोर लगाने के बाद भी छिपाया नहीं जा सकता है. इस तथ्य से भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि चीन ने भारत की जमीन पर कब्जा कर रखा है.
अब तक मोदी पंथ या मोदी कल्ट अपराजेय रहा है और यह मानने का कोई कारण नहीं है कि नजदीकी भविष्य में इसमें अचानक कोई बदलाव आने वाला है. लेकिन इसमें सेंध लगने के संकेत मिलने लगे हैं.
चुनावी तौर पर तो कम से कम, और इसका महत्व कम नहीं है, पश्चिम बंगाल और इससे पहले महाराष्ट्र में मतदाताओं ने इसे नकारा है. बिहार में नीतीश कुमार ने अलग राह पकड़ ली है. अधिकांश दक्षिण क्षेत्र मोदी के विजय रथ के तले अभी तक रौंदा नहीं जा सका है और आनेवाले निकट भविष्य में इसके घुटने टेक देने की कोई संभावना नहीं है.
ज्यादा महत्वपूर्ण तरीके से अपनी सभी कठोरताओं के साथ प्रकट होने वाला यथार्थ भक्तों को भी चोट पहुंचा रहा है- मुस्लिमों के घरों पर बुलडोजर चलाना या अंतरधार्मिक दंपतियों को अपमानित करना, सिर्फ थोड़े समय तक लोगों का ध्यान भटका सकते हैं. एक पंथ/कल्ट को बनाए रखने का खतरा यह है कि अपराजेयता का मुखौटा कभी गिरना नहीं चाहिए और इसके लिए संसाधनों की जरूरत पड़ती है.
सत्ता में बने रहना काफी अहम है, क्योंकि उसके बगैर सत्ता और सरकार की संस्थाओं का दोहन करना असंभव हो जाएगा. भाजपा के खिलाफ राजनीतिक असंतोष की हवा मजबूत हो रही है. अगर अगले कुछ सालों में चीजें बदलती हैं, तो मोदी कल्ट या तो अंदर से ही विखंडित हो जाएगा या धीरे-धीरे अपनी शक्ति गंवा देगा.
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