‘साहिर की शख़्सियत और उनकी शायरी एक-दूसरे में हूबहू उतर गए थे’

पुण्यतिथि विशेष: यह भी एक क़िस्म की विडंबना ही है कि जिस साहिर के कलाम गुनगुनाकर अनगिनत इश्क़ परवान चढ़े, उसकी अपनी ज़िंदगी में कोई इश्क़ मुकम्मल न हुआ.

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पुण्यतिथि विशेष: यह भी एक क़िस्म की विडंबना ही है कि जिस साहिर के कलाम गुनगुनाकर अनगिनत इश्क़ परवान चढ़े, उसकी अपनी ज़िंदगी में कोई इश्क़ मुकम्मल न हुआ.

Sahir Photo By Rekhta
साहिर लुधियानवी (जन्म 8 मार्च, 1921, मृत्यु 25 अक्टूबर, 1980) (फोटो साभार: रेख़्ता)

आज से सैंतीस साल पहले आज ही के दिन. 25 अक्टूबर 1980. ज़िंदगी ‘साहिर’ के न रहने की ख़बर सुन एक पल के लिए हैरान रह गई. हिंदुस्तान से पाकिस्तान तक बिखरी कहानी किसी तौर पर यह मानने को राजी नहीं थी कि ‘मिथ्या संसार’ को ‘मुकम्मल सच’ की तरह जीने वाला शाइर इतनी जल्दी फ़ौत हो सकता है? इतनी जल्दी ‘परछाइयां’ हवा हो सकती हैं? और हक़ीक़त को तर्क करके बुना गया ख़्वाब इतनी जल्दी टूट सकता है? लेकिन ये हैरानगी, ये अफ़सोस, ये सवाल ज़िंदगी की आंखों में पक्का मकां बनाएं, उससे पहले ही पुराने क़स्बे में एक खिड़की खुली और वक़्त को यक़ीन हो गया कि सच में ‘साहिर’ का तिलिस्म टूटने के लिए नहीं…

वो शेरशाह सूरी के ज़माने का एक छोटा सा क़स्बा था. इतना छोटा कि इतनी बड़ी दुनिया और इतने बड़े देश में उसका होना भी बहुत सी नज़रों के लिए हैरानगी की बात थी. फिर भी वो था, अपने होने को पूरे हवास में महसूस करता हुआ.

इसी क़स्बे में एक खिड़की रहा करती थी. मुश्किल से दो या ढाई फुट लंबी और उतनी ही चौड़ी यह खिड़की दिखने में भले कितनी ही छोटी क्यों न लगे, लेकिन एक टुकड़ा आसमान हमेशा उसकी जद में रहा करता था. क्योंकि ये खिड़की जिस सड़क की ओर खुलती थी, वो सड़क उस क़स्बे का दिल कही जाती थी.

वैश्य समाज द्वारा कराए गए जागरण से लेकर चतुर्समाज के कार्यकर्ताओं द्वारा आयोजित रसिया-दंगल, कवि-सम्मेलन, होली-मिलन कार्यक्रम तक सब ऐन खिड़की की नज़रों के सामने संपन्न होते. यहीं राम-बारात की झांकियां आकर रुकतीं. यहीं ईद के दिन रेहड़ी पर सजा ‘थर्माकोल का चांद’ आकर ठहरता. यहीं क़स्बे के स्कूलों के सालाना जलसे होते और यहीं मुहर्रम के रोज़ पटेबाज़ियों, कलाबाज़ियों के बीच ‘हाय हुसैन हम न हुए’ कह-कहकर मातम मनाया जाता.

माने तमाशाई बनी खिड़की रोज़ ही ज़िंदगी के रंग बटोरती और रोज़ ही महसूस करती कि वाक़ई ज़िंदगी एक फ़रेब है. एक ऐसा ख़ुशरंग फ़रेब जो हक़ीक़त को हज़ारों-हज़ार परतों के नीचे छिपा देता है, ताकि दुनियावी लुत्फ़ कम हों और न उनकी तवज्जो… तभी जब क़स्बाई नियम के मुताबिक सई सांझ से खिड़की की आंखों पर मोटे पर्दे डाल दिए जाते, वह अछोर संसार का दूसरा छोर जानने के लिए भीतर की ओर मुड़ जाती.

उन चारदीवारों की ओर, जहां रात होने से पहले मेड इन जर्मनी कैसिट प्लेयर से झरता मौसिकी का जादू घर के कोने-कोने को अपनी गिरफ़्त में ले लेता. जैसे काग़ज़ यह जाने बिना कि कल तक वो किस दरख़्त का हिस्सा थे और किसने आज उनकी काली-कत्थई देह को झक सफ़ेद रंग में रंग दिया, एक के बाद दूसरी कहानी की पीठ बनते चले जाते हैं. ठीक वैसे ही पुराने क़स्बे की वो खिड़की भी मीलों दूर बैठे साहिर का इतिहास-भूगोल जाने बिना एक के बाद दूसरे गीत का ताना पकड़ उसके लफ़्ज़ों की जादुई सुरंग में गहरे उतरती चली जाती.

ये उन दिनों की बात है, जब न चौबीसों घंटे नमूदार रहने वाले ‘ख़बरिया चैनल’ थे और न ‘सूचना क्रांति’, इसलिए 25 अक्टूबर को बंबई (वर्तमान मुंबई) पर जो गुजरी, उसकी ख़बर खिड़की को अगले रोज़ यानि 26 अक्टूबर की सुबह उस वक़्त हुई, जब आंखों पर पड़े पर्दों को हटाकर आसमान निहारती नज़र अभी ताज़ादम होना शुरू हुई ही थी.

पहले-पहल दुनिया के तमाम कोनों की तरह खिड़की के मन में भी ठीक यही सवाल उठे कि क्या सचमुच ‘मिथ्या संसार’ को ‘मुकम्मल सच’ की तरह जीने वाला शाइर इतनी जल्दी फ़ौत हो सकता है? क्या सचमुच इतनी जल्दी ‘परछाइयां’ हवा हो सकती हैं? और क्या सचमुच हक़ीक़त को तर्क़ करके बुना गया ख़्वाब इतनी जल्दी टूट सकता है?

लेकिन अगले ही पल नज़रें पुरानी किताब से टकरा गईं, जिसकी जिल्द पर लिखा था ‘अब्दुल हई’ की दास्तान… और हाथ हठात पन्ने पलटने लगे. लुधियाना. ज़मींदार फज़ल मोहम्मद की हवेली. आए दिन इस हवेली से सिसकियों की आवाज़ उठतीं और फिर उसी के किसी कोने में दफ़न हो जातीं.

यूं इस हवेली ने अपने वारिस की बाट जोहते-जोहते मियां फज़ल मोहम्मद की हवेली ने एक-एक करके उनके चेहरे पर दस सेहरे देख लिए थे, लेकिन हर बार उसके हिस्से आहें और सिसकियां ही आईं. ज़मींदार साहब उसकी छत पर खड़े होकर थाली बजाएं, ऐसा एक भी मौक़ा अभी तक उसे नसीब नहीं हुआ. ग्यारहवीं दफ़ा जब फज़ल मोहम्मद सरदार बेगम ब्याहकर लाए, तो उम्मीद और नाउम्मीदी दोनों बरक़्स खड़ी थीं.

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साहिर लुधियानवी (बीच में), शायर जांनिसार अख़्तर (बाएं) और पंजाब के आर्किटेक्ट एमएस रंधावा (दाएं) के साथ. (फोटो: sahirludhianvi dot com)

हालांकि मुहल्ले भर में हो रहे मियां जी की आशिक मिजाज़ी के चर्चे हवेली के कानों को छलनी तो करते थे, मगर नई बेगम हवेली को वारिस देकर मियां के पैर बांध लेंगी, ये आस उन तमाम घावों पर मरहम लगा देती. सचमुच इस बार हवेली का इंतज़ार पूरा हुआ और साल 1921 के तीसरे महीने की 8वीं तारीख़ को सरदार बेग़म ने फज़ल मोहम्मद के इकलौते चश्म-ओ-चिराग़ को जन्म दिया.

बेशक ये चिराग़ अपने साथ कई नई उम्मीद और सपने लेकर आया था, मगर फज़ल मोहम्मद को जैसे कोई फ़र्क ही न पड़ा. उसके लिए बेटे का आना वैसा ही था, जैसे हवेली में कोई दूसरा समान आता. या जैसे उसकी पहली ग्यारहवीं बेगम आईं और बाद में बारहवीं भी… अलबत्ता अपनी औलाद को नाम देने की ज़िम्मेदारी ज़रूर फज़ल मोहम्मद ने ख़ुद उठाई और बड़ा सोच-समझकर बेटे को ‘अब्दुल हई’ नाम दिया.

अब्दुल हई… ये नाम जब सरदार बेगम ने पहली बार सुना तो उन्हें इसमें पाक क़ुरान के लफ़्ज उभरते नज़र आए, लेकिन जब मालूम हुआ कि उनके बेटे को यह नाम ज़मींदार साहब ने केवल इसलिए दिया है ताकि वे इसके ज़रिये अपने अब्दुल हई नाम के रसूखदार पड़ोसी को भला-बुरा कहकर अपनी बरसों पुरानी रंज़िश साध सकें, अपनी भड़ास निकाल सकें, तो दिल का दर्द सहन करने के लिए उन्होंने अपने होठ भींच लिए.

शायद मन में यक़ीन रहा हो कि आज नहीं तो कल बेटे की मोहब्बत बाप का मन बदल देगी, मगर ‘अब्दुल हई’ के अब्बा के तेवर रस्सी जैसे थे. माने जलकर भी बल छोड़ना उनके लिए मुमकिन नहीं था. लिहाज़ा जब उनकी ज़िद, अकड़ और आशिकी मिजाज़ी उसी तादाद बढ़ती रही, जिस तादाद में उनके चेहरे पर सेहरों की गिनती बढ़ रही थी तो एक रोज़ सरदार बेगम ने ज़मींदार साहब की हवेली छोड़ दी और अब्दुल को लेकर अपने भाई के घर चली आईं.

यह घर रेल पटरी के बहुत क़रीब था. इतना क़रीब कि जब-जब ट्रेन पटरी पर दौड़ती, तो आसपास के तमाम घरों की नींव हिल जाती. 13 बरस के अब्दुल मियां इतने छोटे न थे कि ट्रेन के गुज़रने से दहल जाएं, लेकिन बाप की लताड़, दुत्कार और मार ने उन्हें इतना बड़ा होने ही कब दिया था कि वे इस धड़धड़ाहट से बहल जाएं… हालांकि अपनी ओर से ख़ूब ज़ब्त किया, मगर एक रात जब सहन नहीं हुआ, तो अब्दुल मियां मां से लिपटकर रोने लगे, ‘अम्मी मैं अब्बा की मार रोज़ खा लूंगा, पर ख़ुदा के वास्ते घर चलो.’

बेटे की इस दुहाई ने सरदार बेगम की आंखों को जिसना खारे समंदर में डुबोया, उससे ज़्यादा उनमें बेबसी का रंग भर दिया. मन के आंचल में पनाह ढूंढते अब्दुल हुई को उनकी आंखों में ऐसे रंग देखने की उम्मीद नहीं थी.

‘अजीब से गणित में उलझी इस दुनिया में बस एक इसी जगह तो उसे अपनी ज़िंदगी दो के पहाड़े जैसी आसान लगती थी. अगर यहां भी बेबसी हक़ जमा लेगी, तो वो अपनी ताक़त कहां से लाएगा?’ उन्होंने फ़ौरन अपने आंसू पोंछ दिए और ख़ुद को पूरी तरह से मां के सुपुर्द कर दिया.

अब सरदार बेगम ही उनकी छत थीं और सरदार बेगम ही धरती… एक रिश्ते के लिहाज़ से यह मोड़ बेशक बेहद ख़ूबसूरत था, लेकिन जाने-अनजाने यह मोड़ उनको वहां ले गया, जहां पतली-सी कमर, सरकश नाक, ख़ूबसूरत आंखों लचकीली टांगों और लंबे क़द वाले ख़ासे मज़बूत अब्दुल हुई को मां के अलावा कोई दूसरा न अपने क़रीब जान पड़ता था और न अज़ीज़.

ऐसे में ज़्यादातर वक़्त अकेले बिताते हुए जहां अब्दुल मां की तरह हर किसी को शक की नज़र से देखना सीख रहे थे, वहीं पिता जैसी ज़िद भी उनमें बहुत चुपके से परवान चढ़ रही थी. लिहाज़ा जब वे घर पर होते तो छोटी-छोटी बात पर ज़िद करते और जब बाहर होते, तो छोटी-छोटी बात पर हड़बड़ा जाते.

इन हालतों के बीच अगर उनमें शेर-ओ-शायरी का शौक जगा, तो कोई बड़ी बात नहीं थी. लेकिन बड़ी बात यह थी कि उनकी मां ज़माने की रिवायती सोच के मुताबिक उन्हें डॉक्टर या इंजीनियर बनते देखना चाहती थीं. मियां अब्दुल मां को दुखी नहीं करना चाहते थे, मगर अपने शौक पर रोक लाना भी उनके लिए मुमकिन नहीं था.

सो उन्होंने कल की बात कल पर छोड़ दी और अपने आज को मां जी के सपने के साथ-साथ अपने शौक से बावस्ता कर लिया. अच्छा यह रहा कि स्कूल में भी उस्ताद ऐसे मिले जिन्होंने अब्दुल के शौक को तराशकर हुनर की शक्ल देने में कोई कसर बाक़ी न रखी. मैट्रिक की तैयारी के दौरान एक रोज़ अब्दुल का साबका मशहूर शाइर ‘इक़बाल’ की एक नज़्म से पड़ा, जो उन्होंने ‘दाग़ देहलवी’ के लिए लिखी थी. इस नज़्म में एक शेर है,

सैंकड़ों साहिर भी होंगे, साहिब-ए-एजाज़ भी
उठेंगे आज़र हज़ारों शेर के बुत-ख़ाने से

अब्दुल को यहां इस्तेमाल किया ‘साहिर’ लफ़्ज़ जंच गया. इंशाअल्लाह अब तक अब्दुल मियां भी शेर कहने-सुनने के पड़ाव तक पहुंच चुके थे, सो फ़ौरन उन्होंने इसी लफ़्ज़ के साथ अपनी जन्मस्थली का नाम जोड़कर अपने लिए एक नया नाम, एक नई पहचान ‘साहिर लुधियानवी’ गढ़ ली.

अब इसे नाम की जादूगरी कहें या किरदार का करिश्मा कि ‘साहिर’ की पहली किताब ‘तल्ख़ियां’ को लोगों ने हाथों हाथ लिया. मशहूर शायर कैफ़ी आज़मी ने साहिर और तल्ख़ियां की तारीफ़ में कहा कि ‘मैं अक्सर यह सोचने पर मजबूर हो जाता हूं कि मैं साहिर को उनकी शायरी के ज़रिये जानता हूं या फिर उनकी शायरी को ख़ुद साहिर के ज़रिये… क्योंकि उन्हें पढ़ते हुए हर बार ऐसा महसूस होता है कि साहिर ने अपनी शख़्सियत का जादू अपनी शायरी में उतार दिया है और उनकी शायरी के जादू का अक्स उनकी शख़्सियत में हूबहू उतर आया है.’

साहिर इस वक़्त लाहौर में थे और मनमाफ़िक काम की तलाश में कभी किसी रिसाले के दफ़्तर में दाख़िल होते दिखाई देते और कभी किसी दूसरी जगह, लेकिन आख़िर में उनकी सही जगह, उनके सही मुक़ाम माने बंबई ने उन्हें अपनी ओर खींच लिया. जहां कई दिग्गज शायरों, कलमकारों से मिलना-जुलना, सीखना-सिखाना हुआ.

ये उन दिनों की बात है, जब एक देश की जड़ों को काटकर दो अलहदा मुल्क़ बनाए जाने की कोशिशें यकायक तेज़ हो चुकी थीं. आए-दिन जगह-जगह से दंगों-झड़पों की ख़बरें आती सुनाई देतीं. साहिर की मां तब लुधियाना में थीं और वे ख़ुद बंबई में लगातार अनहोनी न होने देने की दुआ पढ़ रहे थे, मगर जब माहौल ज़्यादा ख़राब होता नज़र आया, तो वे मां के पास लाहौर चल दिए.

वहां बंटवारे की आंधी ने उन्हें ऐसा घेरा कि काफ़ी वक़्त तक के लिए उन्हें वहीं रह जाना पड़ा. जिस दौरान उन्होंने उर्दू पत्रिकाओं के संपादन का काम किया. ‘सवेरा’ इन्हीं में से एक थी, जिसमें उनकी कलम ने पाकिस्तान सरकार को इस क़दर नाराज़ कर दिया कि उनके ख़िलाफ़ गिरफ़्तारी वारंट जारी हो गया. साहिर लाहौर छोड़ दिल्ली आ गए और वहां से ख़्वाबों की नगरी बंबई…

शुरुआत में ज़िंदगी ने तेवर तल्ख़ दिखाए, लेकिन धीरे-धीरे तल्ख़ियां कम होती गईं और शोहरतें, मोहब्बतें बढ़ती गईं. हालांकि यह भी एक क़िस्म की विडंबना ही है कि जिसके कलाम गुनगुनाकर अनगिनत इश्क़ परवान चढ़े, उसकी अपनी ज़िंदगी में कोई इश्क़ मुकम्मल न हुआ. लोग अक्सर कहते हैं कि प्रेम चौधरी हो, इशर कौर, अमृता प्रीतम या सुधा मल्होत्रा… कोई साहिर को बांध न सका, लेकिन ‘साहिर’ कब इतनी आसानी से बंधते हैं!

अब्दुल हई की दास्तान में ‘साहिर’ का जादू महसूस करती खिड़की की नज़रें आसमान पर टिकी थीं और कान फ़िज़ाओं में तैरकर आते लफ़्ज़ों पर, ‘मैं पल दो पल पल का शाइर हूं/ पल दो पल मेरी कहानी है/ पल दो पल मेरी हस्ती है, पल दो पल मेरी जवानी है…’ शाम हो चली थी. पर्दों के ढंकने का वक़्त भी हो गया था. अब आने वाली सुबह तक आसमान को एक ओट लेकर छिप जाना था, ठीक वैसे ही जैसे रूह छिप जाती है वक़्त की परछाइयों की ओट में…

(लेखिका स्वतंत्र पत्रकार हैं)

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