मौजूदा अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल का कार्यकाल 30 सितंबर को समाप्त हो रहा है. इस पद के लिए सरकार ने वरिष्ठ अधिवक्ता मुकुल रोहतगी को पेशकश की थी, खबरों के मुताबिक पहले उन्होंने स्वीकृति दे दी थी, लेकिन अब अपने क़दम पीछे खींच लिए हैं. रोहतगी पहले 2014 से 2017 के बीच भी इस पद पर रह चुके हैं.
नई दिल्ली: वरिष्ठ अधिवक्ता मुकुल रोहतगी ने रविवार को कहा कि उन्होंने भारत का अगला अटॉर्नी जनरल बनने के केंद्र सरकार के प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया है. रोहतगी ने बताया कि उनके फैसले के पीछे कोई खास वजह नहीं है.
केंद्र ने मौजूदा अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल (91) की जगह लेने के लिए इस महीने की शुरुआत में रोहतगी को पेशकश की थी. वेणुगोपाल का कार्यकाल 30 सितंबर को समाप्त होगा.
रोहतगी जून 2014 से जून 2017 तक अटॉर्नी जनरल थे. उनके बाद वेणुगोपाल को जुलाई 2017 में इस पद पर नियुक्त किया गया था. उन्हें 29 जून को देश के इस शीर्ष विधि अधिकारी के पद के लिए फिर तीन महीने लिए नियुक्त किया गया था.
केंद्रीय कानून मंत्रालय के अधिकारियों ने बताया कि वेणुगोपाल ने ‘व्यक्तिगत कारणों’ से अपनी अनिच्छा जताई थी, लेकिन 30 सितंबर तक पद पर बने रहने के सरकार के अनुरोध को उन्होंने मान लिया था.
अटॉनी जनरल के रूप में वेणुगोपाल का पहला कार्यकाल 2020 में समाप्त होना था और उन्होंने सरकार से उनकी उम्र को ध्यान में रखकर जिम्मेदारियों से मुक्त कर देने का अनुरोध किया था.
लेकिन बाद में उन्होंने एक साल के नए कार्यकाल को स्वीकार कर लिया, क्योंकि सरकार इस बात को ध्यान में रखकर उन्हें इस पद पर चाह रही थी कि वह हाई-प्रोफाइल मामलों में पैरवी कर रहे हैं और उनका बार में लंबा अनुभव है.
सामान्यत: अटॉर्नी जनरल का तीन साल का कार्यकाल होता है. वरिष्ठ वकील रोहतगी भी उच्चतम न्यायालय एवं विभिन्न उच्च न्यायालयों में कई हाई-प्रोफाइल मामलों में पैरवी कर चुके हैं.
इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक, पहले ऐसा कहा जा रहा था कि उन्होंने अटॉर्नी जनरल बनने के सरकार के अनुरोध के प्रति इच्छा जताई थी, लेकिन अब उन्होंने अखबार को बताया कि उन्होंने दोबारा विचार करने के बाद यह फैसला लिया है.
जब उनसे कहा गया कि पहले तो उन्होंने अपनी सहमति दे दी थी, तो रोहतगी बोले, ‘इसलिए मैंने दोबारा विचार करने के बारे में कहा. अभी अधिसूचना नहीं आई है. इसलिए…’
सरकार वेणुगोपाल का कार्यकाल तीसरी बार बढ़ाना चाहती थी, लेकिन उन्होंने सरकार को साफ इशारा कर दिया था कि वे 30 सितंबर के बाद पद पर रहना नहीं चाहते हैं. इसलिए सरकार ने अन्य नामों की तलाश शुरू कर दी और रोहतगी का चयन किया, तब उन्होंने भी सहमति दे दी थी.
बता दें कि दिल्ली हाईकोर्ट के पूर्व जज जस्टिस अवध बिहारी रोहतगी के बेटे मुकुल रोहतगी को अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में 1999 में अतिरिक्त महाधिवक्ता नियुक्त किया गया था.
उन्होंने 2002 के गुजरात दंगों के मामले में सुप्रीम कोर्ट में गुजरात सरकार की पैरवी की थी.
जुलाई 2017 में महाधिवक्ता से हटने के बाद रोहतगी ने कई महत्वपूर्ण मामलों की पैरवी की है. 2018 में वे होटल व्यवसायी केशव सूरी की ओर से शीर्ष अदालत में प्रस्तुत हुए और समलैंगिकता को अपराध ठहराने वाले अनुच्छेद 377 की संवैधानिकता को चुनौती दी.
जज लोया की मौत से जुड़े मामले में रोहतगी को विशेष अभियोजक नियुक्त किया गया था. बाद में सुप्रीम कोर्ट ने जज लोया मौत की जांच की मांग वाली याचिकाओं को खारिज कर दिया.
उन्होंने अवैध खनन आवंटन के आरोपों में झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन, सेबी के मामले में एनडीटीवी के प्रमोटर प्रणय रॉय और राधिका रॉय की भी पैरवी की. महाराष्ट्र पुलिस द्वारा रिपब्लिक टीवी के अर्णब गोस्वामी की गिरफ्तारी पर उनकी ओर से भी वे पेश हुए थे.
वे गोधरा दंगों के दौरान मारे गए कांग्रेस सांसद एहसान जाफरी की पत्नी जाकिया जाफरी द्वारा दायर याचिका के विरोध में भी सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित एसआईटी की ओर से पेश हुए.
हाल ही में, उन्होंने योगी आदित्यनाथ द्वारा कथित रूप से 2007 में दिए एक भड़काऊ भाषण के मामले में यूपी सरकार का प्रतिनिधित्व किया.
2018 में, उन्हें प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली लोकपाल चयन समिति में ‘प्रतिष्ठित न्यायविद’ सदस्य नियुक्त किया गया था.
रोहतगी छत्तीसगढ़ के नागरिक आपूर्ति निगम घोटाले में ईडी द्वारा दायर स्वतंत्र जांच की मांग वाली याचिका के विरोध में छत्तीसगढ़ सरकार की ओर से भी आखिरी बार 19 सितंबर को पेश हुए थे.
(समाचार एजेंसी भाषा से इनपुट के साथ)